विदेशी सरज़मीं: तू डाल डाल मैं पात पात

कभी–कभी लगता है जैसे देश में जो राजनीतिक द्वंद इन दिनों दिखाई पड़ रहा है ,वह पूरी तरह से राजनीतिक ना होकर समझ का है, परिपक्वता का है। उसे वैचारिक द्वंद कहना भी सही नहीं होगा। वह तो कुरुक्षेत्र में अर्जुन का था। जिसके हाथ में सत्ता है वह खुद को इस कदर सर्वशक्तिमान समझ रहे हैं  कि सरकार चलाने के लिए वे दूसरे पक्ष की भूमिका, व्यवस्था के स्तंभों को भी ध्वस्त कर देना चाहते हैं । उन्हें दंभ है कि वे ही जनता के हितैषी हैं और उसके लिए और किसी भी रास्ते को चुनने के हकदार   भी। दंभ तब भी झलकता है जब वह कहते हैं  कि अभी तक कुछ नहीं हुआ और जो कर रहे हैं वही कर रहे हैं । यही भाव सब तक पहुंचाने की पुरज़ोर कोशिश होती है। यहां तक की मीडिया जिसका काम जनता की तकलीफ़ सरकार तक पहुंचाने का  है, वह अब केवल और केवल सरकार की बातें सुनाने के लिए जनता के बीच है। सुनने का भाव कहीं बचा ही नहीं है तो यह 140 करोड़ की आबादी जिसके बारे में सरकार का कहना है कि इसमें से अस्सी करोड़ को वे मुफ्त अनाज दे रहे हैं, वे आखिर कहां जाए? कोई है जो इस हताश आबादी के दर्द सुनेगा ? लोकतंत्र के ढहते स्तंभों की सुध लेगा? राहुल गांधी ने अपनी हाल ही में संपन्न  इएम यात्रा के दौरान जब कह दिया कि भारत में लोकतंत्र नाम की कोई चीज़ बची नहीं है तो भारत में भारतीय जनता पार्टी के नेता खूब हमलावर हो रहे हैं। उनका कहना है कि राहुल गांधी विपक्ष की धरती पर भारत का अपमान कर रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष और सोनिया गांधी को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए। दरअसल जवाब तो इस तर्क के साथ आना चाहिए कि जो राहुल गांधी कह रहे हैं, गलत कह रहे हैं। मुद्दा यह बनाया जा रहा है कि विदेशी धरती पर ऐसा क्यों कहा गया ? क्या वाकई किसी भी नेता को ऐसा नहीं करना चाहिए ? यह देशहित में नहीं है ?
 कभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विदेशी धरती पर( शंघाई की बैठक में) ऐसा नहीं कहा कि पहले भारतीयों को शर्म आती थी,अपने को भारतीय कहने में लेकिन आज उसका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। क्या ऐसा कहने से विदेशी सरजमीं पर भारत का मान बढ़ जाता है जब वे कहते हैं  इसके पहले की सरकारों का कचरा हमें झेलना पड़ रहा है? बर्लिन में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का नाम लिए बगैर उन्होंने लाभार्थी योजनाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि अब किसी प्रधानमंत्री को यह नहीं कहना पड़ेगा कि 'मैं दिल्ली से एक रुपया भेजता हूं और नीचे पंद्रह पैसे पहुंचते है।’फिर उन्होंने अपने एक हाथ के पंजे को फैलाकर उसे दूसरे हाथ की अंगुलियों से घिसते हुए पूछा कि वह कौनसा पंजा था जो 85 पैसे घिस लेता था? इसी तर्ज पर उन्होंने कभी एक बात राजस्थान की सभा में भी कही थी कि वह कौनसी कांग्रेस की विधवा थी जो पेंशन का पैसा खा जाती थी? ह्यूस्टन,अमेरिका में 'अब की बार ट्रंप सरकार' के नारे भी प्रधानमंत्री ने मौजूद जन समूह से लगवाए थे। क्या यह सब विदेशी धरती पर भारत का सम्मान बढ़ाने के लिए किया गया था? यह किसी देश के आतंरिक मामलों में दख़ल नहीं था। अब यहाँ अगर राहुल गाँधी अपने देश के लोकतंत्र को बचाने के लिए सशक्त देशों से हस्तक्षेप की मांग कर रहे हैं तो उन्हें भी अपना मंतव्य स्पष्ट करना चाहिए क्योंकि उनकी बात  की आलोचना में उनकी पार्टी के पुराने बाग़ी भी मुखर हो चले हैं।

 राजस्थान में एक समय सचिन पायलट  के समर्थन में  बाग़ी हो गए मंत्री विश्वेन्द्र सिंह के बेटे अनिरुद्ध सिंह ने अपने ट्वीट में कहा है -"वे झक्की हो चुके हैं जो अपने ही देश को दूसरे देश की संसद में अपमानित करते हैं या शायद वे इटली को अपना देश मानते हैं। " उन्होंने दूसरा ट्वीट राहुल गांधी की उस टिप्पणी पर किया कि भारतीय जनता पार्टी हमेशा सत्ता में नहीं रहेगी। "क्या यह बकवास वे अपने देश में नहीं कर सकते थे या जेनेटिकली उन्हें यूरोप की मिटटी ही पसंद है।" बहरहाल सचिन पायलट के कट्टर समर्थक अनिरुद्ध सिंह का विवाद से नाता नया नहीं है। मई 2021 में वे अपने पिता विश्वेन्द्र सिंह के लिए कह चुके हैं कि वे अपने पिता से छह हफ़्तों से बात नहीं कर रहे हैं क्योंकि उन्होंने मेरी मां  के ख़िलाफ़ हिंसा का सहारा लिया। यह सच है कि  मंत्री विश्वेन्द्र सिंह पहले खुलकर सचिन पायलट के समर्थन में आ गए थे लेकिन मामला शांत होने के बाद उनकी दोबारा दोस्ती अशोक गहलोत से हो गई और वे अब भी राजस्थान के पर्यटन मंत्री हैं । फिलहाल उनके बेटे ने ज़रूर एक बार फिर  मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। वैसे राहुल गांधी अपनी पार्टी के लिए अक्सर दोहराते रहे हैं कि हमारी पार्टी में भीतरी लोकतंत्र ज़िंदा है इसीलिए इतने मत भी हैं। 

अगर जो राहुल गांधी की आलोचना हो रही है तो प्रधानमंत्री की बातें कैसे उचित ठहराई जा सकती हैं, क्या इसलिए कि वे पीएम हैं ? तब राहुल गांधी भी विपक्ष के नेता हैं उनकी पार्टी वर्षों तक शासन में रही है। इस वक्त भी बारह करोड़ वोट उन्हें मिलते हैं।आलोचना फिर दोनों की होनी चाहिए कि एक विदेश में पिछली सरकारों की आलोचना कर अपनी सरकार के लिए वाहवाही लूटना चाहते हैं तो दूसरे अपने ज़ख़्म दिखाकर हमदर्दी की तलाश में हैं । अतीत में ऐसा किसी राष्ट्रध्यक्ष ने किया हो ऐसे उदाहरण न के बराबर मिलते हैं। ऐसे ज़रूर मिलते हैं कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने युवा और प्रखर अटल बिहारी वाजपेयी का  अमेरिका में खास ध्यान रखे जाने की पहल की थी। ऐसा भी नहीं है  कि किसी दूसरे देश के शासनाध्यक्षों ने हमारे देश में आकर यूं अपनी घरेलू राजनीति पर टीका-टिप्पणी की हो। पीएम ने यदि अपनी यात्राओं में भारत के लोकतंत्र को मज़बूती से पेश किया होता तो आज राहुल गांधी ऐसा बिल्कुल नहीं कर पाते। देश बड़ा है ,सरकारें आती-जाती हैं। यह जोड़ने वाली कड़ी सिरे से गायब है। ऐसा क्यों होना चाहिए कि विदेश की धरती पर  पूर्व प्रधानमंत्रियों और उनके दल को किसी शत्रु की तरह रखा जाए । राहुल गांधी परिवार के उस सदस्य की भूमिका में दिखाई पड़ रहे हैं जिनकी घर में सुनी नहीं जा रही, उनसे कहा जा रहा है कि थोड़ा अन्याय सह लो लेकिन घर की बात घर में रहने दो। यह भारतीय जनता पार्टी को भी समझना होगा कि उसके मुखिया देश के मुखिया हैं। किसी की आवाज़ घर में इस क़दर न घोटी जाए कि उसे बाहर निकलकर आवाज़ बुलंद करनी पड़े। क्रिया की प्रतिक्रिया होती ही है। 

राहुल गांधी अपने वजूद और लोकतंत्र को बचाने के लिए निकले हुए हैं यह उनकी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान भी स्पष्ट नज़र आया था। लोकसभा में माइक का बंद कर दिया जाना, उनकी पार्टी सहित कई  विपक्षी दलों पर ईडी,आईटी के छापे और सीबीआई की जांच के अलावा संवैधानिक इकाइयों को कमजोर किए जाने के ज़ख्म अब वे दुनिया को दिखाना चाहते हैं। वे साफ कहते हैं कि भारत में संवाद को ख़त्म किया जा रहा है। जैसे मैं कैंब्रिज में बोल पा रहा हूं वैसे मुझे भारत के  विश्वविद्यालयों में नहीं बोलने दिया जाता। यह सब भारत में भी भारत के लोग कह रहे हैं फिर भी अगर किसी को उम्मीद है कि पश्चिम जैसा यूरोप के मसलों पर खुल कर बोलता है, पूर्व के मसले पर आंख मूंदे ना बैठा रहे तो यह कुछ ज़्यादा उम्मीद करना होगा। पक्ष हो या विपक्ष देशहित दोनों के लिए सर्वोपरि होना चाहिए। चौराहे की चर्चा बनाने की कोशिश किसी की नहीं होना चाहिए। दोनों ही पक्षों को मर्यादा नहीं लांघनी चाहिए। छवि जब बिगड़ती है तो इस भूल सुधार का समय भी नहीं देती। देश की जनता अपेक्षा करती है कि ये दोनों पक्ष आपस में बात करें। बातचीत मैदान के कुरुक्षेत्र बनने से पहले होनी चाहिए। 










टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम

सौ रुपये में nude pose

एप्पल का वह हिस्सा जो कटा हुआ है