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जायज हो जिस्मफरोशी ?

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पीला हाउस की असंख्य रंडिये शाम ढलते ही सस्ता पावडर और शोख लिपस्टिक पोत कर खड़ी होने लगी हैं फाकलैण्ड स्ट्रीट के दोनों तरफ क्या बसा है उनकी उजाड़ आंखों में सुकून नहीं इसरार नहीं ललक नही उम्मीद नहीं खौफ हां भूख हां बेचैनी हां अवमानना हां बेपनाह बोझे जैसी बेबसी बसी है पेट और उसके अतराफ अलाव की शक्ल में लोग कहते हैं एड्स दे रही हैं ये रंडियें कोई नहीं कहता हम उन्हें आखिर क्या देते हैं फाकलैंड रोड मुंबई का रेडलाइट एरिया है। विख्यात पत्रकार शाहिद मिर्जा की दो दशक पहले लिखी यह कविता आज भी सवाल करती है कि हम उन्हें आखिर क्या देते हैं। चंद रुपए, दलालों की सोहबत, बेहिसाब बीमारियां, पकड़े जाने पर हवालात, पुलिस की गालियां। और जो कभी जूतों की ठोकरें कम पड़ीं तो यही पुलिस अखबारों में उनकी चेहरा ढकी तस्वीरें दे कर उन्हें सरेआम बेपर्दा कर देती है कि लो देखो ये धंधेवालियां हैं। क्यों बनती हैं ये धंधेवालियां ? पिछले बुधवार को सर्वोच्च न्यायालय ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए चौंकाने वाली टिप्पणी की कि सदियों पुराने इस व्यवसाय को यदि कानून के जरिए बंद नहीं किया जा सकता सरकार को इसे वैध कर देना चाहिए। जस्

एक लड़की की डायरी से

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एकता चौहान की कविताएं ये कविताएँ सीधे तेईस साल की एकता चौहान की डायरी से आयी हैं , जब उन्होंने पढ़ाईं तो लगा ताज़ा हवा का झोंका छूकर गुज़र गया. हालाँकि मेरी कविताओं की समझ बहुत सीमित है. हो सके तो आप बेहतर कीजियेगा.बतौर विसुअल डेली न्यूज़ की मगज़ीन खुशबू साथ है. मेरा पता शहर के बीचों-बीच वो जो चार लेन की रोड है दाएं-बाएं बंगले जिसके और बड़े-बड़े मॉल हैं वहीं आगे मोड़ पे एक लंबा काला नाला है घास वहां कचरे में पलती कीचड़ से सनी जमीन है और जो छठा तम्बू , किनारे वही मेरा घर है! 2. संदूक संभालें आओ जरा... गुड़िया,मोती,चवन्नी कहीं फिर से कट्टा ना हो जाएं! 3. सुबह-सुबह जब उठता हूं वो पहले से आ जाती है मैं उन्हें देख मुस्काता हूं वो मुझे देख मुस्काती हैं दाना डालो, भूख लगी है अपनी बोली में बतलाती हैं जाता हूं मैं, ये कह दूं तो हामी में सिर वो हिलाती हैं 4. डूबता है पर्वत के डूबता वो नीर में मन के भीतर डूबता वो डूबता शरीर में उलझा-सुलझा पहेली-सा शंकाओं से घिरा हुआ वो हर अक्षर में डूबता ढूंढता खुद को स्याही की लकीर में 5 चौक में प्रतिदिन तुलसी सींची जाती है प्रतिदिन भोगली से फूंक-फूंक के आंखें भी... ह

हमने चुनी जयपुर की लेडी मेयोर

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हमारे शहर जयपुर की प्रथम महिला को हमने सीधे चुना है। किसकी पतंग कटेगी और किसकी उड़ेगी, उससे भी ज्यादा जरूरी है कि कौन शहर की आबो-हवा को खुशनुमा रखेगा। आबो-हवा के मायने शहर की आत्मा को समझने से है। क्या है जयपुर? शानदार ऐतिहासिक विरासत का शहर या मॉल्स, मल्टीप्लैक्स जैसी ऊंची आधुनिक इमारतों का शहर। हम इसके छोटी काशी के स्वरूप से स्नेह करते हैं या आधी रात को सिगरेट के लच्छे बनाते-लहराते युवक-युवतियों के डिस्को थेक से निकलने पर? नहीं यह मोरल पुलिसिंग नहीं है। नैतिकता तजते हुए तो लोग पवित्र परिसरों में भी देखे जा सकते हैं, लेकिन जयपुर दर्शन के लिए आने वाला सैलानी यहां कतई मॉल्स में शॉपिंग करने या डिस्को में थिरकने नहीं आता। शायद इन से भागकर ही आता है। तभी तो कल जयपुर पधारे ग़ज़ल गायक पंकज उधास ने भी कहा 'जयपुर आकर जो शांति और सुकून मिलता है वह दुनिया के किसी कौने में नहीं मिलता बड़े शहरों में सिवाय बिल्डिंग्स और मोल्सके कुछ नजर नहीं आता' सैलानी आता है उस मरुस्थल को महसूस करने, जहां कभी जिंदा रहना सिर्फ मानवीय जिजीविषा का ही नतीजा था। यहां का बाशिंदा न केवल जिंदा रहा, बल्कि राजस्थान प

भटेरी की भंवरी देवी

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कैसी हैं वे सामूहिक बर्बरता के १७ साल बाद ? उन्हीं दिनों दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आया करता था परख। प्रस्तुत करते थे विनोद दुआ। उसी कार्यक्रम के जरिए इंदौर में रहते हुए राजस्थान के भटेरी गांव की भंवरी देवी की आवाज सुनी थी। आवाज क्या थी दर्द और आक्रोश में डूबा हाहाकार था। इंटरव्यू में भंवरी देवी ने स्वयं पर हुए अत्याचार को जुबां दी थी। वह एक-एक कर पांचों आरोपियों का नाम लेकर खुद पर हुए जुल्म का ब्यौरा दे रही थी। उनका सामूहिक बलात्कार हुआ था। देखने वालों के दिल में उनकी तकलीफ नश्तर की तरह धंसती जा रही थी। यकीन मानिए वह आवाज आज भी कौंधती है। फिर एक सुबह बाखबर करने वालों का एक एसएमएस मिला कि शहर में आठ महिलाओं की चित्र प्रदर्शनी लग रही है। "द मेल " शीर्षक के इर्द-गिर्द ही चित्रों का ताना-बाना बुना गया है। बतौर अतिथि भंवरी देवी आमंत्रित हैं। न्याय की राह देखती सामूहिक बलात्कार की शिकार स्त्री से द मेल चित्र श्रखला का उद्घाटन। खैर, इस अवधारणा की दाद देने या आलोचना में पड़ने के बजाय बेहतर यह जानना होगा कि आज सत्रह साल बाद भंवरी देवी किस हाल में हैं? वह भंवरी देवी जो साथिन थीं , है

चला रहा है निजाम ए हस्ती...वो ही खुदा है

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ॐ जय जगदीश अल्लाह ओ अकबर बोले सो निहाल सत् श्री अकाल जय यीशु यह महज शब्द नहीं बल्कि उस परम पिता परमेश्वर का जय घोष है जो दुनिया के निजाम को चला रहा है। यह दिन-रात जोर-जोर से दोहराने, पुकारने का नाम भी नहीं है। यह हर हाल में अपने मानस को तनाव से मुक्त रखने के लिए है। क्या हम पूछ सकते हैं कि आज के माता-पिता अपने बच्चों में इसे रोपने का दायित्व कितना निभा पा रहे हैं ? कल ही की बात है। नन्हा मोनू दरवाजे से टकराकर गिर गया और जोर-जोर से रोने लगा। घबराई मां दौड़कर रसोई से बाहर आई और मोनू को गोद में उठा पुचकारने लगी। मोनू का रोना कम नहीं हुआ। मां ने एक जोरदार प्रहार दरवाजे पर किया और कहा देख दरवाजे की पिटाई हो गई अब वह रो रहा है। दरवाजे को पिटते देख मोनू चुप हो गया। मोनू की मां अकसर कभी दरवाजे को पीटकर तो कभी जमीन पर धप लगाकर मोनू के लिए झूठ-मूठ की चीटियां मरवाती रहती हं उस दिन साहिल भी स्कूल से चोट लगवाकर आया। हाथ पर घाव था और पट्टी बंधी हुई थी। मां से बेटे का दुख देखा ना गया। चल पड़ी स्कूल राहुल को ढूंढ़ने क्योंकि साहिल ने यही बताया था कि राहुल ने उसे धक्का दिया। दरअसल, यह बहुत ही सेडिस्ट

मेरा वो सामान लौटा दो

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मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है सावन के कुछ भीगे भीगे दिन रखे हैं और मेरे एक खत में लिपटी रात पड़ी है वो रात भुला दो, मेरा वो सामान लौटा दो गुलजार साहब ने यह पंक्तियाँ फिल्म इजाजत के लिए लिखी थीं। क्या वाकई अतीत का वर्तमान में विश्लेषण कर पाना इतना आसान है? हिसाब हो सकता है इस सामान का? आप पति-पत्नी थे। एक-दूसरे को प्रिय थे। आपने बहुत से अच्छे काम किए, खुशियां साझा की। अब खटकने लगे। अलग हो गए। तलाक हो गया और न्यायलय का फैसला आ गया कि आपका सारा सामान संपत्ति अलग-अलग नहीं होगी किसी एक के पास जाएगी। पति के पास कभी सोचा है आपने कि पति यदि बाहर जाकर पैसे कमा रहा है तो पत्नी कितना कुछ घर में दे रही है। उसके काम की गणना करने की हिम्मत की है किसी ने। उस प्रेम का हिसाब कौन देगा जो उसने अपनी गृहस्थी से किया है। और वे बच्चे जो दोनों कितने जतन और उम्मीद से दुनिया में लाए थे। उन दोनों के प्रेम का नतीजा। उसे कौन और कैसे अलग करेगा। का तो आपने कह दिया पति को मिलेगी लेकिन बच्चे? फिर तो वे भी पति को मिलने चाहिए। कई और भी अच्छे काम हुए होंगे। सब पर उसी का हक है क्योंकि निर्णय तो उसका है। आम स्त्री

मुझको इतने काम पे रख लो. . .

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जब भी सीने पे झूलता लॉकेट उल्टा हो जाए तो मैं हाथों से सीधा करता रहूं उसको मुझको इतने काम पे रख लो फिजा में भीनी -भीनी महक है। प्यारे से रिश्ते की महक। एक-दूजे को खुद को सौंपते हुए सृष्टि को आगे बढ़ाने वाला यह रिश्ता इतना अलौकिक क्यों जान पड़ता है। एकदम डिवाइन-सा। गौर किया जाए तो यही रिश्ता बेहद लौकिक है, यानी पृथ्वी पर तय किया हुआ। माता-पिता, भाई-बहन जैसे तमाम रिश्ते जरूर ईश्वरीय लगते हैं, क्योंकि इन्हें तय करने में हमारी कोई भूमिका नहीं है। यह सौ फीसदी ऊपर वाले के बनाए हैं, लेकिन पति-पत्नी का रिश्ता...। कितना अपना, कितना करीब। कोई तीसरा इसकी थाह नहीं जान सकता। एक हॉलीवुड फिल्म देखी थी पिछले दिनों, शल वी डांस। नायक रिचर्ड गेर [वही शिल्पा शेट्टी का सरेआम चुंबन लेने वाले गेर] और नायिका जेनिफर लोपेज। नायक के बच्चे किशोर हो चुके हैं और वह अपनी वैवाहिक जिंदगी से बेहद खुश है, फिर भी कुछ कमी है। अकसर, नहीं हर रोज़ वह ट्रेन से गुजरते हुए एक डांस क्लास की खिड़की पर खड़ी खूबसूरत डांसर को निहारा करता है। यह कशिश इतनी गहरी है कि वह डांस क्लास में दाखिला ले लेता है। दोनों एक डिवाइन रिश्ते में बंधने ल

पाँच हजार रुपये में बेच दी बच्ची

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बाज़ार में इन दिनों जहाँ कबाड़ से लेकर महल तक बिक रहे हैं वहीँ जिंदगियां भी दाव पर लगी हैं उसने अपनी नवजात बच्ची को बेच दिया. यह पहली बार नहीं था कि धन के नीचे संवेदना कुचली गयी हो. नवरात्र में कन्या जिमाने का दस्तूर है लेकिन उसने अपना अंश किसी और के सुपुर्द कर दिया था. अगर आप मान रहे कि वह बिटिया थी इसलिए ऐसा हुआ तो आप भूल करेंगे यह बेटी तेईस साल की भव्या की चौथी संतान है। पति नंदू खास कमाता नहीं। पड़ोसी थे, शादी कर ली। दोनों के माता-पिता की सहमति इस शादी में नहीं थी। अपनी संतान से मुंह मोड़ पाना कब किस के बस में रहा है [लेकिन भव्या -नंदू के बस में तो है]वे धीरे-धीरे जुड़ने लगे। धन का अभाव अमावस के अंधेरे की तरह इनके साथ लगा हुआ था। कामचोर पति का साथ निभाते हुए भव्या ने कई छोटी-मोटी नौकरियां की, लेकिन कोई भी कायम नहीं रही। पहली संतान एक बेटा हुआ, जो कुपोषण का शिकार था। दो महीने बाद ही वह दुनिया छोड़ गया। दसवीं फेल भव्या कभी किसी पार्लर में, कभी कैटरिंग सर्विस में और कभी सेल्स में काम करती रही। बेटे की मौत के एक साल बाद दूसरी संतान उसकी गोद में थी। पालने के लिए न समय था, न पैसा। भव्या की स

हर चेहरा विदा....

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क्या वाकई तिथियों के साथ गम भी विदा हो जाते हैं ? काश यादों का भी तर्पण हो सकता और यदि नहीं तो कागे की जगह एक बार ही वह दिखाई दे जाता जिसके लिए आँखों से नमी का नाता टूट ही नहीं पा रहा है. सांझ सां .....झ हर चेहरा विदा. अन्तिम तीन पंक्तियाँ कवि अशोक वाजपेयी की हैं जो उन्होंने 1959 में लिखी थीं । क्या वाकई हर चेहरा विदा है? विदा होते ही सब कुछ खत्म हो जाता है कि कुछ रह जाता है तलछट की तरह। सालता, भिगोता, सुखाता और फिर सराबोर करता। कभी किसी प्रेम में डूबे को देखा है आपने? एक ऐसे सम पर होता है जहां चीजें एक लय ताल में नृत्य करती हुई नजर आती हैं। इतना सिंक्रोनाइज्ड कि कोई चूक नहीं। समय से बेखबर बस वह उसी में जड़ हो जाता है। यह जड़ता तब टूटती है जब दोनों में से कोई एक बिखरता है। विदा होता है। अवचेतन टूटता है। चेतना जागती है। तकलीफ, दुख, पीड़ा जो भी नाम दें, सब महसूस होने लगते हैं। एहसास होता है जिंदा होने का। एहसास होता है उस ...ताकत का जो इस निजाम को चला रही है। इससे पहले तक लगता है जैसा हम चाह रहे हैं वही हो रहा है। हमने यह कर दिया, वह कर दिया। हमारे प्रयास से ही सब बेहतर हुआ। फि

हाउ अनहैप्पी इज हर टीचर्स डे ?

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happy teachers day की ध्वनियों के बीच वह कहीं उदास कोने में बैठी होगी.लड़ रही होगी हालात से.बिखर रही होगी या शायद बिखरकर जुड़ रही होगी वह 14 की और प्रिंसिपल 48 शिक्षक दिवस यानी डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन। हमारे देश के पूर्व राष्ट्रपति और एक समर्पित शिक्षक। हमेशा की तरह इस दिन को भी श्रद्धा भाव से मनाने की कोशिश थी। गुरु को ईश्वर से भी बड़ा दर्जा देने वाले इस देश की परंपरा में कुछ और विचारने का मन भी नहीं करता, लेकिन जब जयपुर के महाराजा पब्लिक स्कूल के संचालक और प्रिंसिपल का कृत्य उजागर हुआ तो लगा जैसे शिक्षक ही इस परंपरा को चुनौती दे रहे हैं। वे इस दर्जे से नाखुश हैं। यह वाकये का सामान्यीकरण करने की कोशिश नहीं है, लेकिन अनेकानेक घटनाएं हैं, जो नैतिक पतन की ओर इशारा करती हैं। हमें यह बिलकुल नहीं भूलना चाहिए कि दुष्कर्म की शिकार इस बच्ची की उम्र चौदह है और अपराधी की 48। रिपोर्टर की छानबीन बताती है कि दुष्कर्म के बाद स्कूल संचालक ने लड़की को अच्छे नंबरों से पास करने का लालच दिया। लड़की की मां ने ताड़ लिया था, लेकिन डर के मारे उसने कुछ भी नहीं बताया। दूसरे दिन उसने वही हरकत फिर द

रत्ती-जिन्ना छोटे सफर के हमसफ़र

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रत्ती [20.02.1900-20.021929] के इंतकाल के दौरान भी मोहम्मद अली जिन्ना शांत और संयत बने रहे लेकिन जब रत्ती सुपुर्दे-खाक की जा रही थी और पहली मिट्टी जिन्ना को देनी थी तब यह पत्थरदिल शख्स किसी अबोध बच्चे की तरह फफक-फफक कर रो पड़े। तर्क और गांभीर्य के प्रतीक जिन्ना के सब्र का बांध टूट चुका था। उनकी रत्ती सदा के लिए धरती की गोद में समा चुकी थीं। जिन्ना के व्यक्तित्व का जब-जब आकलन हुआ है तब-तब शोर मचा है, जिरह हुई है, बेदखली हुई है। यहाँ मकसद इसमें और इजाफा करने की बजाए उन सुनहरे पलों को याद करना है जो एक खूबसूरत, राष्ट्रवादी, समृद्ध पारसी लड़की रतन बाई के बिना मुकम्मल नहीं होते। जिन्ना ने खुद से 24 बरस छोटी रतनबाई उर्फ रत्ती से जब प्रेम विवाह किया था तो दोनों ही समाज सकते में आ गए थे ...। दिल्ली में 15 अगस्त 2006 की एक सुबह। स्वतंत्रता दिवस पर आयोजित एक कार्यक्रम में मंच पर पूर्व राज्यसभा नजमा हेपतुल्ला, पंजाब के पूर्व डीजीपी केपीएस गिल और वरिष्ठ पत्रकार शाहिद मिर्जा आसीन थे। कार्यक्रम के बाद जारी अनौपचारिक बातचीत में बॉम्बे डाइंग वाले नुस्ली वाडिया भी शामिल हो गए। मोहम्मद अली जिन्ना और रतन

जयपुर की महारानी गायत्री देवी नहीं रहीं

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जयपुर की महारानी गायत्री देवी का आज जयपुर में निधन हो गया . वे ९० वर्ष की थीं .बुधवार दोपहर संतोकबा दुर्लभजी अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली. कूंच बिहार में जन्मीं गायत्री देवी का असली नाम आयशा था.उनका विवाह जयपुर के महाराजा मानसिंह के साथ १९४० में हुआ. वे उनकी तीसरी पत्नी थीं. उनका रहन-सहन अन्य महारानियों से अलग था .वे घुड़सवारी करतीं गौल्फ़ खेलती शिकार पर जातीं . इन सब के बावजूद गायत्री देवी से सादगी और गरीमा कभी अलग नहीं हुई .वोग पत्रिका ने उन्होंने दुनिया की सबसे खूबसूरत महिलाओं में शुमार किया. मकबूल फ़िदा हुसैन और अमिताभ बच्चन उनके प्रशंसकों में रहे हाँ इंदिराजी से ज़रूर उनका बैर रहा. वे जयपुर से तीन बार सांसद का चुनाव जीतीं लेकिन आपातकाल [१९७५] में उन्हें इंदिरा गाँधी ने तिहाड़ जेल में बंद कर दिया . पिछले कुछ दिनों से वे अस्पताल में दाखिल थीं . सांस लेने और पेट दर्द की शिकायत के बाद वे कुछ बेहतर भी महसूस कर रहीं थी लेकिन आज जब दफ्तर में यह खबर आयी तो सबके स्वर धीमे हो गए अधिक से अधिक सामग्री देने के जूनून के साथ सब जैसे दर्द को भी जी रहे हैं. इस गरिमावान जीवन और mgd [स्कू

बात कुफ्र की की है मैंने....

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पेश है एक वार्तालाप टॉम-उफ...क्या हो गया है देश को डिक-क्यों क्या हुआ... टॉम-अरे... अब ऐसे घृणित काम को भी कानूनी मान्यता मिल गई... महिला का महिला और पुरुष का पुरुष के साथ संबंध पर कोर्ट को कोई एतराज नहीं... डिक-तो इसमें गलत क्या है टॉम-गलत ही गलत है। ये कुदरत के खिलाफ है। सोचकर ही घिन आती है। यह फैसला शादी, परिवार जैसी व्यवस्था को खत्म कर देगा। डिक-यह सब पर लागू नहीं होता, बल्कि जो लोग ऐसे हैं उन्हें प्रताड़ना से बचाएगा। इन्हें समझने की बजाए हम घरों में कैद कर देते हैं। पुलिस उनके साथ खराब सुलूक करती है। टॉम-इन्हें क्या समझना...ये तो बीमार और पागल हैं। डिक- यह न तो बीमार हैं और न असामान्य। जैसे आप किसी स्त्री को पसंद करते हैं या कोई स्त्री पुरुष को पसंद करती हैं, वैसे यह प्रवृत्ति भी जन्मजात है। टॉम-सब बकवास है। इनका तो इलाज होना चाहिए, न कि इन्हें अधिकार दिए जाने चाहिए। इन्हें बढ़ावा क्यों दे रहे हैं? डिक-नहीं, यह कोई छूत की बीमारी नहीं है, जो दूसरों में फैल जाएगी। इसके लिए एक जीन जिम्मेदार है। टॉम-ऐसे गन्दे काम के लिए भी जीन जिम्मेदार हैं। डिक-हां है, तुम उसे सिर्फ सेक्स तक ही देखते ह

आय लाइक करिना - वसीम अकरम

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आज कुछ पुराने पन्नों से। करीब पौने तीन साल पहले [6th oct 2006] वसीम अकरम जयपुर आए थे। राजस्थान पत्रिका की सिटी मैग 141 के लिए उनसे मुलाकात करनी थी। होटल रामबाग पैलेस में वे बहुत कूल और कांफिडेंट नजर आ रहे थे । साथ ही भारत की तरक्की से प्रभावित भी। पेश है वही प्रकाशित इंटरव्यू जस का तस। दुनिया के सबसे तेज लेफ्ट आर्म फास्ट बॉलर, गुड कमेंटेटर बट सिवियरली डायबिटिक वसीम अकरम शुक्रवार को जयपुर में थे। खेल के मैदान में जितने आक्रामक, जाती जिंदगी में उतने ही हंसमुख और मिलनसार। हर सवाल के लिए तैयार, कहीं नो कमेन्ट नहीं। क्रिकेट, पॉलिटिक्स, इंडिया, बॉलीवुड, बीमारी सबके बारे में वर्षा भम्भाणी मिर्जा की वसीम अकरम से एक्सक्लूसिव बातचीत- कहते हैं, जिसने लाहौर नहीं देखा, वो पैदा ही नहीं हुआ। जयपुर के बारे में क्या कहेंगे ? > हां, मैं लाहौर का हूं, लेकिन जयपुर बहुत खूबसूरत है। पूरी दुनिया में रिच हेरिटेज-कल्चर के लिए जाना जाता है। जब मैचेस के लिए आते थे, तब टाइम नहीं होता था। अब देखना चाहूंगा। आपके सामने (बातचीत रामबाग पैलेस की लॉबी में हो रही थी) एसएमएस स्टेडियम है, जहां चैंपियं

न्यू यॉर्क के बहाने...

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स्लमडॉग मिलिनेअर के बाद, कल संडे को थिएटर का रुख किया। फिल्मों के मामले में खांटी भारतीय हूं, न्यू यॉर्क तक चली गई।[लगा था की फिल्म एवेंइ होगी] अंधेरे में चमकती रुपहली स्क्रीन स्पंदित करती है और न्यू यॉर्क ने तो दिल और दिमाग दोनों को। कबीर नाम से गहरा फेसिनेशन रहा है। चक दे इंडिया का पात्र कबीर खान भी पसंद रहा. संत कबीर के प्रति गहरी आसक्ति है और अब कबीर खान यानी न्यू यॉर्क के डायरेक्टर। क्या खास है जो न्यूयार्क पर लिखने के लिए बाध्य करता है। कैटरीना, जॉन या नील नितिन मुकेश या फिर हमारे जयपुर के इरफान खान? लेकिन वह घटना जो अमरीकी इतिहास में नासूर की तरह दर्ज हो गई। 9/11 का हादसा कई दिलों में नश्तर चुभो गया। पहले मरने वालों के परिजनों के दिलों में और फिर एक खास मजहब के सीनों में। दर्द में कराहते अमरीका में उन दिनों एफबीआई ने 1200 लोगों को हिरासत में लेकर तफ्तीश की थी जिनका बस नाम ही काफी था। इन कथित कैदियों के दिलों में चुभे नश्तर से फूटता लावा ही न्यू यॉर्क है। प्रख्यात स्तंभकार आदरणीय जयप्रकाश चौकसे जी सही फरमाते हैं कि पाकिस्तानी फिल्म खुदा के लिए´ देखने के बाद न्यू यॉर्क क्लासि

अब कोई अवतार नहीं होनेवाला

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विख्यात पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा के व्याख्यान की समापन किस्त हम पढे़-लिखे देश भी हो रहे हैं। साक्षर देश भी हो रहे हैं। जिम्मेदार निर्वाचन कानून बनाने से मतदाता जिम्मेदार नहीं होगा। और चुनाव आयोग के बूते की भी नहीं है कि वह अपराधियों की पूरी पहचान कर ले। कई बार बडे़ अपराधी भी बडे़ सफेदपोश बन जाते हैं। बडे़ अच्छे रिकॉर्ड्स ले आते हैं। थाने से पंचनामा ही फड़वा देते हैं। तो कई सारा छल-छद्म इसमें होता है। लेकिन मैं शाहिद मिर्जा यदि जयपुर का निवासी हूं तो मैं जानता हूं कि मेरे सांसद महोदय कैसे हैं? किस माजने के हैं? कितने पढे़-लिखे हैं? कितने सक्रिय रहेंगे? जनता से उनको कितना लगाव है? है या नहीं? लेकिन मैं तो पलायनकारी हूं। ना मैं काम करने जाता हूं। मुझे कोई मतलब ही नहीं है कि देश में किस अदा से काम चल रहा है। खासतौर पर शिक्षित मध्यवर्ग है। इसके बारे में पवन वर्मा ने बहुत सुंदर किताब लिखी है, ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास। उन्होंने कहा कहा कि भारत की आजादी लाने वाले यही लोग हैं। लेकिन ये ही अब चोट्टे हो गए हैं। ये ही सबसे अधिक भ्रष्ट हो गए हैं। ये शाम को कहते हैं कि देश में बहुत भ्रष्टाचार है ओर सुब

जोधाराम ही जोजेफ क्यों बनते हैं?

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ख्यात पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा के व्याख्यान का दूसरा हिस्सा कोई जमील खां, जोजेफ क्यों नहीं बनते? जोधाराम ही जोजेफ क्यों बनते हैं? दंगे से वो भी परेशान हैं। बेरोजगार वो भी हैं। अदक्ष तो वो भी हैं। जैसे जोधाराम हैं वैसे जमील खां हैं। तो इस पर विचार करना चाहिए। मैं हिन्दू नेताओं से कहता हूं। खासतौर पर विश्व हिन्दू परिषद के सभी लोगों से मिलने-जुलने का मौका मिल जाता है। जाति प्रणाली का जिक्र इसलिए किया कि वो अपना उम्मीदवार बनाते हैं। तब यह ध्यान रखते हैं कि अच्छा वो गांव है, यादवों का है। किसी यादव को टिकट दे दो। कोई यादव गाजियाबाद से क्यों नहीं? यादव है तो क्या दिक्कत है। उसे वहां से चुनाव लड़ने दो। मतलब आदमी को भी जाति का टूल बना लिया है और यह बहुत विभाजन करेगा। वोट बैंक पॉलिटिक्स भी इसीलिए हो रही है। तथाकथित तुष्टीकरण की पॉलिटिक्स भी इसी कारण हो रही है। जयपुर विश्वविद्यालय से आई थीं प्रोफेसर। मैंने उनसे कहा कि तुष्टीकरण से मुसलमान का रत्तीभर भी फायदा नहीं होगा। मुसलमान को दो बीघा जमीन नहीं मिली। उनको उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण नहीं मिला। जॉब का वादा नहीं मिला। जीवन जीने की सुरक्षा और द

यह भारत की सदी है

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बेहतरीन पत्रकार मग्नातीसी [magnatic ]शख्सियत शाहिद मिर्जा के व्याख्यान का पहला हिस्सा. शायद आप भी इसे अविकल पढ़ जाएँ... " Power corrupts and absolute Power corrupts absolutely। " तो जैसे राज्य एक अनिवार्य बुराई है। वैसे ही लोकतंत्र में भी बहुत सारी बुराइयां अन्तर्निहित हैं। वो एक पर एक फ्री वाला मामला है। आपको वो झेलना होगा। आपने लोकतंत्र को चुना है।लोकतंत्र के बारे में बहुत सटीक शेर allama iqbal ने कहा था की जम्हूरियत वह तर्जे-हुकूमत है कि जिसमे बन्दों को गिना करते हैं तौला nahin । कोई लठैत, कोई हत्यारा, कोई कातिल, कोई आंतककारी। और ये लोग जब जेलों में पहुंचने लग गए तो उन्होंने जेलों को भी जन्नत में तब्दील कर दिया। बेऊर जेल के बारे में बताते हैं कि वह तो बहुत ही सुसज्ज हो गई है। जब आदरणीय चार्ल्स शोभराज जी तिहाड़ जेल में अपना समय काट रहे थे, तो उनके लिए बहुत अच्छे प्रबंध वहां कर दिए गए थे। ये सब बिना राजनीतिक संरक्षण के नहीं हो सकता। ऐसा तो नहीं है कि कोई अकेले में अपराध किया जा रहा हो। कोई अपराधी है, तो कोई उसका आका है और राजनीति में अनिवार्य रूप से आका होत

वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम

आज मेरे अराध्य शाहिद मिर्जा का लेख आपकी नजर। यह 2006 में राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। यह अफसोसनाक है कि राष्ट्रगीत वंदे मातरम् को लेकर मुल्क में फित्ने और फसाद फैलाने वाले सक्रिय हो गए हैं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने तय किया कि 7 सितम्बर वंदे मातरम् का शताब्दी वर्ष है। इस मौके पर देशभर के स्कूलों में वंदे मातरम् का सार्वजनिक गान किया जाए। इस फैसले का विरोध दिल्ली की जामा म ç स्जद के इमाम ( वे स्वयं को शाही कहते हैं ) अहमद बुखारी ने कर दिया। बुखारी के मन में राजनीतिक सपना है। वे मुसलमानों के नेता बनना चाहते हैं। बुखारी को देश के मुसलमानों से कोई समर्थन नहीं मिला। देश के मुसलमान वंदे मातरम् गाते हैं। उसी तरह जैसे कि ` जन - गण - मनं गाते हैं। ` जन - गण - मनं कवीन्द्र रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेज शासक की स्तुति में लिखा था। बहरहाल जब ` जण - गण - मनं को आजाद भारत में राष्ट्रगान का दर्जा दे दिया गया तो देश के मुसलमान ने भी इसे कुबूल कर लिया।

मैं सोना को जानती हूं

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आज बात एक प्यारी सी लड़की की। नाम है सोना। वाकई सोने जैसी ही दमकती है वह। लेकिन भीतर एक तूफान है। अठारह की उम्र में पहाड़ सा तूफान। बमुश्किल आठवीं पास होगी निम्नवर्गीय परिवार की यह लड़की। पिता नहीं है मां के साथ चारों भाई-बहन रहते हैं। सभी छोटे-मोटे काम करते हैं। गुजारे के लिए। सोना से भी मां की यही अपेक्षा है। वह उसे कैटरिंग के काम के लिए भेजती है। कोई बिचौलिया आता है लड़कियों को साथ ले जाता है। वे समारोहों में खाने की मेज पर खड़ी हो जाती हैं। मेजबान की शान बढ़ती है कि हमने भोजन परोसने के लिए लड़कियों को रखा है। कभी पूरी शाम तो-कभी रात के एक बजे तक वे सब यूं ही हंसती-मुस्कराती खड़ी रहती हैं। इस काम के जयपुर में डेढ़ सौ और जयपुर से बाहर यानी कोटा, सीकर, अलवर तक जाने के ढाई सौ रुपए मिलते हैं। ब्याह समारोह का मौसम नहीं होता तो सोना और ये लड़कियां किसी फिल्म या शूटिंग में ले जाई जाती हैं। कभी फूल बरसाती हैं तो कभी नाचती हैं बतौर एक्स्ट्रा। सोना को शादी कैटरिंग से यहां फिर भी थोड़ा ठीक लगता है। एक बार शादी में किसी लड़के ने उससे पूछ लिया था एक रात का कितना लोगी...? उसका जी किया कि उस आदमी के मुंह पर ए

नो मोर फूल

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पिछले सप्ताह जयपुर में एक युवती की कथित प्रेमी ने हत्या कर दी। नाम छिपाने में कोई तुक नहीं क्योंकि हमारी पुलिस अपराधी से पहले पीडिता की सात पुश्तों का पता ठिकाना खोज लाती है। उनतीस साल की सुमन के केस में भी यही हुआ। पुलिस ने कहा, वह लड़के की प्रेमिका थी। शराब पीती थी। दावत होटल में कमरा घंटों से बुक था। लड़के ने लड़की के सारे नाज-नखरे उठाए। यहां तक कि स्कूटर भी खरीदकर दिया। और जब लड़का सुमन के ऐशोआराम का खर्च न उठा सका तो लड़की ने मिलना-जुलना बंद कर दिया। लड़के को बुरा लग गया और उसने लड़की का गला दबाकर कत्ल कर दिया। ताकत जीती अबला हारी। अफसोस, पुलिस की बयां की गई इस कहानी माफ कीजिए, तफ्तीश को अखबार जस का तस छाप देतें हैं . तहकीकात में आरोपी मनोज चावला के लिए हमदर्दी साफ नजर आती है। पुलिस ने तो कथित तहकीकात का ढिंढोरा सब जगह पीट दिया। सुमन कहां मौत की नींद तोड़कर सच्चाई बताने आने वाली है। लड़की का परिवार वह तो बिटिया के होटल में मिलने से ही अधमरा हो जाता है। उस पर लड़का, शराब यह तो किसी कलंक से कम नहीं। ये दोनों वयस्क थे। मिलना-जुलना आपसी सहमति के आधार पर कहीं भी हो सकता है। पार्क में, रेस्त्रा

ए टु `जेड `

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सच कहूं तो ब्रिटिशde जेड गुडी पर लिखने का कोई इरादा नहीं था। आक्रामक अंदाज, बेतरतीब रहन-सहन, आधे-अधूरे कपड़ों ने उन्हें सेलिब्रिटी जरूर बना दिया था लेकिन सम्मान कहीं गायब था। सत्ताईस की जिंदगी और इतनी .सनसनी डेंटल नर्स का पेशा प्रेम , दो बच्चे , चर्चित सेलेब्रिटी ,फिर प्रेम कैंसर शादी और फिर एक महीने बाद सब कुछ ख़त्म लेकिन एक साल में जेड की जिंदगी में जो कुछ भी हुआ उन्होंने जिस तरह उसे लिया वह जेड के बेहद साहसी और समझदार महिला होने की ओर इशारा करता है। पिछले साल भारतीय रिएलिटी शो बिग बॉस में काम करते हुए जेड को पता चला कि उन्हें sarvical कैंसर है और वे ज्यादा दिनों तक नहीं जी पाएंगी। फितरतन इनसान हर काम को तरीके से ही करना चाहता है लेकिन जिंदगी की रफ्तार उसे भटका देती है। अन्यथा क्यों मरने से एक माह पहले जेड गुडी अपने प्रेमी से शादी करती। उस समाज में जहां बिना शादी के संबंध और फिर बच्चे पैदा कर दिए जाते हैं। जेड ने न केवल शादी की बल्कि उसके विडियो राइट्स भी बेचे ताकि उसके बाद बच्चों को कोई तकलीफ नहीं हो। यहां तक कि जेड ने अपनी मृत्यु को दिखाने के अधिकार भी बेच दिए। कैंसर की पीड़ा में गु