संदेश

अगस्त, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

फरेब

चित्र
बड़े बवंडर थाम लेती हैं ये पलकें याद का तिनका तूफ़ान ला देता है   पथरीले रास्तों में संभल जाती है वो  नन्हा- सा  एक    फूल घायल कर देता है    सेहरा की धूप नहीं जला पाती उसे बादल का एक टुकड़ा सुखा देता है   कभी तो आओ  मेरे  सुकून ए जां क्यों  सब गैर ज़रूरी    दिखाई  देता है    आज हर तरफ परचम और रोशनी है लोगों को इसमें भी फरेब दिखाई देता है

उम्र उधेड़ के, साँसें तोड़ के

चित्र
आज गुलज़ार साहब की 76 वीं सालगिरह है उन्हीं की एक नज़्म जो मेरे  सवाल का जवाब भी है.   रोज़गार के सौदों में जब भाव-ताव करता हूँ गानों की कीमत मांगता हूँ - सब नज्में आँख चुराती हैं और करवट लेकर शेर मेरे मूंह ढांप लिया करते हैं  सब वो शर्मिंदा होते हैं मुझसे मैं उनसे लजाता हूँ बिकनेवाली चीज़ नहीं पर सोना भी तुलता है तोले-माशों में और हीरे भी 'कैरट' से तोले जाते हैं . मैं तो उन लम्हों की कीमत मांग रहा था जो मैं अपनी उम्र उधेड़ के, साँसें तोड़ के देता हूँ नज्में क्यों नाराज़ होती हैं ? ps:गुलज़ार साहब की  किताब छैंया- छैंया के बेक कवर से