संदेश

मार्च, 2020 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

थप्पड़ में प्यार, हक़ ढूँढ़नेवालो

चित्र
प्यार से समझाती है थप्पड़ उन लोगों को जिन्हें इसमें  खामखां का प्यार और हक़ नज़र आता है।  थप्पड़ रिलीज़ हुए एक सप्ताह बीत चुका है और फ़िल्म  अपने चाहनवालों और क्रिटिक्स से  थपकियाँ और सिसकियाँ  भी पा चुकी है।  मुझे जो क़िरदार क़रीब लगा वह दीया मिर्ज़ा का है। वह ऐसी स्त्री है जो अपने प्रेम को खो चुकी है लेकिन  ख़ुश है अपनी बिटिया और अपने काम के साथ।  क्योंकि उसने जो पाया है वह इतना भरपूर है कि कोई तमन्ना अब  बाक़ी नहीं रही। वह कहती भी है उसके साथ सबकुछ एफर्टलेस था। लेकिन आम भारतीय स्त्रियां जानती हैं कि उनकी पूरी गृहस्थी  उन्हीं के एफर्ट्स पर टिकी हुई है जिसमें थप्पड़ ,जबरदस्ती, उनका कॅरिअर छोड़ना सब सामान्य  है। अमृता एक ख़ुशहाल ज़िन्दगी जी रही है। होममेकर है। परिवार के लिए पूरी तरह समर्पित। एक पार्टी में उसके पति विक्रम का झगड़ा अपने सीनियर्स से होता है और अमृता इस झगड़े को रोकना चाहती है। इसी तना-तनी में वह अमृता को थप्पड़ मार देता है। उस समय लगता है जैसे वही उसके लिए सबसे सॉफ्ट टारगेट थी अपना ग़ुस्सा जताने के लिए। अमृता सकते में थी जो बाद में सदमे में बदल जाता है । पति को सॉरी बोलना भी ज़रूरी

इस लोकतन्त्र को संसद की ज़रुरत नहीं है

इस लोकतन्त्र को संसद की ज़रुरत नहीं है जो होती तो दिल्ली की क्रूर हिंसा के बाद इसके दरवाज़े यूं बंद न होते। कोई कैसे इस ख़ूनी खेल के बाद यूं चुप्पी ओढ़ सकता है ?  होली के बाद बात करने का दुस्साहस कर सकता है ? क्या जनप्रतिनिधियों को एक बार भी यह ख़याल नहीं आया होगा कि हम इस कठिन समय में तकलीफ़ से गुज़र रही दिल्ली के जख्मों पर मरहम रख सकें। एक ऐसा भाव दुखी अवाम के सामने आए जो बता सके कि हमें उनकी चिंता है, परवाह है। यह लापरवाही आख़िर क्यों की जा रही है? यह उदासीन रवैया क्यों कि  आपके आंसू होली के बाद पोछेंगे। उनकी आँखों के सामने उनके अपनों को गोली लगी है ,ज़िंदा जलाया गया है। संसद इतने ज़रूरी समय में गैरहाज़िर कैसे हो सकती है ? संसद की देहरी पर माथा लगाने वाले ऐसा कैसे कर सकते हैं। यह ईंट-गारे से बनी इमारत भर नहीं बल्कि हमारे पूर्वजों की उस आस्था की बुलंद इमारत है जो हर हाल में तंत्र को लोकसहमति से चलाना चाहते थे। आज जो दल चुनकर आया है क्या उसे अपने ही सांसदों पर भरोसा नहीं या वह विपक्ष की आवाज़ दबाना चाहता है जो यूं भी अब बहुत कम संख्या में और दबी हुई है।  अब तक 47 निर्दोष दिल्ली की हिंसा में मार

मेरा घाव तेरे घाव से गहरा है

चित्र
painting : yvette swan धरती बाँट दी  बाँट दिए इंसान  और फिर  इंसानियत पर लगे  घाव भी बाँट लिए  वाह  घाव बाँट लिए  ग़म बाँट लिए  शायद बचा था आँख का पानी  काश   बचा  होता  ख़ून के दाग़ धोए जाते  ज़ख्म भरे जाते  गले मिल आते  अफ़सोस   इस बार तो  घाव  इम्तेहान में बैठे थे  अव्वल आना था उन्हें  जिसके ज़्यादा गहरे थे  सीना उतना ही तना हुआ था  बखान में ज़ुबां भी  सरपट दौड़ी जाती थी  कैंप  लग गया था  इसे बनाने का बड़ा तजुर्बा है भाई  अपनों को बेघर हम पुश्तों से करते आ रहे थे  मातम   अभ्यस्त था  ग़रीबी से पस्त था  रसद और छत  दोनों के इंतज़ार में था   मिट्टी और आग   में झोंक देने का चलन नया नहीं है  नया है उसे भुनाने  का चलन  उस पर इतराने का चलन  कभी मिट्टी देना  अग्नि देना  सद्भावियों की पहचान थी  सत्ता  सियासत  इन मौतों का  मातम नहीं मनाती  ये तमगे हैं जो गद्दारों को  गोली मरने के बाद उसे  हासिल हुए हैं।