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मार्च, 2016 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

इस सरज़मीं से मोहब्बत है

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सरसब्ज इलाके मालवा में मुनष्य की औसत आयु का एक चौथाई हिस्सा गुजारने के बाद जब जोधपुर की सरजमीं को छुआ तो लगा जल ही जाएंगे। जून के महीने में धरा आग उगल रही थी। काली बिंधी हुई मिट्टी की जगह बिखरी पीली रेत थी, मानो मौसम का दूसरा नाम ही गुबार हो। समझ आ गया था कि एक बहुत ही प्रतिकूल वातावरण में जीवन का अनुकूल हिस्सा आ गया है। सूखता हलक और घूमता सर बीमार न था, लेकिन इस वातावरण से रूबरू होने की इजाजत मांग रहा था। इतने सूखेपन के बावजूद वहां कोई एक नहीं था जो शिकायत करता। परिधान और पगडिय़ों के चटख रंग ऐसे खिलते जैसे फूल। मुस्कुराते लब ये कहते नजर आते             ऊंची धोती और अंगरखी, सीधो सादौ भैस।         रैवण ने भगवान हमेसां दीजै मरुधर देस ।। सूर्यनगरी के इस ताप को सब जैसे कुदरत का प्रसाद समझ गृहण किए हुए थे। ऐसा नहीं कि रोटी-पानी की जुगाड़ में यहां इल्म की हसरत पीछे छूट गई हो। यह यहां के कण-कण में मौजूद है। ज्ञानी और सीधे-साधे ग्वाले के बीच का यह संवाद यहां के बाशिंदे के अनुभव की पूरी गाथा कह देगा। ज्ञानी कहते हैं- सूरज रो तप भलो, नदी रो तो जल भलो भाई रो बल भलो, गाय रो तो दूध भलो। यानी सूरज

ये दोज़ख़नामा नहीं जन्नत के रास्ते हैं

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कल्पना कीजिए उन्नीसवीं सदी अगर बीसवीं सदी को आकर गले लगाए तो? दो सदियों के एक समय में हुए मिलन के जो हम गवाह बने तो? अंकों के हिसाब से यह अवसर सोलह साल पहले आया था जब दो सदियां 31 दिसंबर 1999 को रात बारह बजे एक लम्हे के लिए एक हुई थी लेकिन यहां बांग्ला लेखक रविशंकर बल ने तो पूरी दो सदियों को एक किताब की शक्ल में कैद कर लिया है। दो सदियों की दो नामचीन हस्तियों की मुलाकात का दस्तावेज है बल का उपन्यास दोज़खनामा। उन्नीसवीं सदी के महान शायर मिर्जा असदउल्ला बेग खां गालिब(1797-1869) और बीसवीं सदी के अफसानानिगार सआदत हसन मंटो (1912-1955 )की कब्र में हुई मुलाकात से जो अपने-अपने समय का खाका पेश होता है वही दो ज़ ख़नामा है। गालिब अपने किस्से कहते हैं कि कैसे मैं आगरा से शाहजहानाबाद यानी दिल्ली में दाखिल हुआ जो खुद अपने अंत का मातम मनाने के करीब होती जा रही थी। बहादुरशााह जफर तख्त संभाल चुके थे और अंग्रेज आवाम का खून चूसने पर आमादा थे। 1857 की विफल क्रांति ने गालिब को तोड़ दिया था और उनके इश्क की अकाल मौत ने उन्हें तन्हाई के साथ-साथ कर्ज के भी महासागर में धकेल दिया था। सरकार जो पेंशन उनके वालिद (जो

पधारो म्हारे देश से जाने क्या दिख जाए

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इन दिनों एक जुमला हरेक की जुबां पर है। कुछ अलग हो, एकदम डिफरेंट, जरा हटके। सभी का जोर नएपन पर है, नया हो नवोन्मेष के साथ। कैसा नयापन? पधारो म्हारे देश से जाने क्या दिख जाए जैसा? बरसों से पावणों को हमारे राजस्थान में बुलाने के लिए इसी का उपयोग होता था। पंक्ति क्या दरअसल यह तो राजस्थान के समृद्ध संस्कारों को समाहित करता समूचा खंड काव्य है जिसके साथ मांड गायिकी की पूरी परंपरा चली आती थी। जब पहली बार सुना तो लगा था, इससे बेहतर कुछ नहींं हो सकता । खैर, अब नया जमाना है, नई सोच है मेहमानों को बुलाने के लिए नई पंक्ति आई है जाने कब क्या दिख जाए। यूं भी हम सब चौंकने के मूड में रहते हैं, किसी अचानक, अनायास की प्रतीक्षा में ।    ...और जब सैर-सपाटे पर हों तो और भी ज्यादा। कभी रेगिस्तान में दूर तक रेत  के धोरे हों, कभी यकायक ओले गिर जाएं, कभी पतझड़ की तरह पत्ते झडऩे लगे और कभी बूंदे ही बरसने लगे। यही तो मौसम का मिजाज है इन दिनों हमारे यहां। इस  कैंपेन के जनक  एड गुरु पीयूष पाण्डे  हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान उन्होंने बताया कि मेहमान आ नहीं रहे थे  इसलिए बदलना पड़ा।  खैर यह बहस का म

आंदोलन की आड़ में अस्मत

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मुरथल के हालात बताते हैं कि आधी दुनिया के लिए शेष आधी दुनिया अब भी उपभोग की वस्तु है। जिसे जब भी मौका मिलेगा वह उसे दबोच लेगा। यह भयावह है कि आंदोलन का एक हथियार यह भी था। अव्यवस्था और अविश्वास का आलम देखिए कि पीडि़त को ना तो पुलिस पर भरोसा है और ना व्यवस्था पर। कोई सामने नहीं आ रहा। एक पीडि़ता सामने आई है जिन्होंने अपने देवर को भी दुष्कर्म के गुनाह में शामिल किया है। पुलिस को लगता है कि ये पारिवारिक मामला हो सकता है। किसके खिलाफ लिखाएं रिपोर्ट? कौन सुनवाई करेगा, कहां-कहां अपने जख्मों को दिखाएंगी वे? आठ मार्च महिला दिवस  से  जुड़े सप्ताह में एेसी कहानियां कौन लिखना चाहता है लेकिन समय तो जैसे वहीं रुका हुआ है। वह सभ्य होना ही नहीं चाहता। बर्बरता उसकी रग-रग में समाई है।   टंकी में जा छिपी लड़कियां ये वाकई दहलाने वाला है कि दिल्ली से 50 किमी दूर सोनीपत जिले में मुरथल एक सैर-सपाटे की जगह है जहां अकसर परिवार और जोड़े घूमने के लिए जाया करते हैं। बाईस और २३ फरवरी के दरम्यान जाट आंदोलन के दौरान तीन ट्रक चालकों ने कहा है कि उन्होंने देखा है कि आंदोलनकारी महिलाओं को गाडि़यों से खींच