इस सरज़मीं से मोहब्बत है
सरसब्ज इलाके मालवा में मुनष्य की औसत आयु का एक चौथाई हिस्सा गुजारने के बाद जब जोधपुर की सरजमीं को छुआ तो लगा जल ही जाएंगे। जून के महीने में धरा आग उगल रही थी। काली बिंधी हुई मिट्टी की जगह बिखरी पीली रेत थी, मानो मौसम का दूसरा नाम ही गुबार हो। समझ आ गया था कि एक बहुत ही प्रतिकूल वातावरण में जीवन का अनुकूल हिस्सा आ गया है। सूखता हलक और घूमता सर बीमार न था, लेकिन इस वातावरण से रूबरू होने की इजाजत मांग रहा था। इतने सूखेपन के बावजूद वहां कोई एक नहीं था जो शिकायत करता। परिधान और पगडिय़ों के चटख रंग ऐसे खिलते जैसे फूल। मुस्कुराते लब ये कहते नजर आते ऊंची धोती और अंगरखी, सीधो सादौ भैस। रैवण ने भगवान हमेसां दीजै मरुधर देस ।। सूर्यनगरी के इस ताप को सब जैसे कुदरत का प्रसाद समझ गृहण किए हुए थे। ऐसा नहीं कि रोटी-पानी की जुगाड़ में यहां इल्म की हसरत पीछे छूट गई हो। यह यहां के कण-कण में मौजूद है। ज्ञानी और सीधे-साधे ग्वाले के बीच का यह संवाद यहां के बाशिंदे के अनुभव की पूरी गाथा कह देगा। ज्ञानी कहते हैं- सूरज रो तप भलो, नदी रो तो जल भलो भाई रो बल भलो, गाय रो तो दूध भलो। यानी सूरज