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सिनेमाई कला उम्मीद का गीत है, शोक गीत नहीं

द कश्मीर फ़ाइल्स फ़िल्म के बारे में देश पहले भी बात कर चुका है लेकिन अब दुनिया बात कर रही है। वह बात कर रही है उसके 'वल्गर प्रोपेगेंडा' यानी अश्लील किस्म के प्रचार पर और उसके बहाने सिनेमा की कला पर। यह फिल्म भारत में इसी साल मार्च में  रिलीज़ हुई थी और दर्शकों को आव्हान विशेष के साथ दिखाई भी गई थी ,कुछ राज्यों में करमुक्त भी हुई। उन दिनों हजारों दर्शक जब फ़िल्म देखकर सिनेमाघरों से निकल रहे होते तब  उनके चेहरे पर एक समुदाय विशेष के ख़िलाफ़ गुस्सा होता और जुबां पर गालियां भी। जर्मनी में नाज़ियों द्वारा हुए नर संहार पर कई फ़िल्में बनीं लेकिन जिन फिल्मो को पूरी दुनिया में देखा और सराहा गया उनमें एक है स्टीवन स्पीलबर्ग की 'द शिंडलर्स लिस्ट' । फ़िल्में  उस नाज़ी व्यापारी की कहानी है, जो अपने बर्तनों के कारखाने में काम करने वाले यहूदियों को कैसे नाज़ी कहर से सुरक्षित और ज़िंदा रखने की बेहिसाब कोशिश करता है। वह भी तब जब वह खुद नाज़ी पार्टी का   सदस्य है। शुद्ध मुनाफ़े की जुगत में हुआ एक क़ारोबार कैसे चुपचाप, जान बचाने के मानवीय काम में लग जाता है जबकि  हुकूमत इन सबके ख़ात्मे का फरमान सुना

थारे जैसी न रहना, इश्क जरूर करना

इस लेख से पहले ऐसा कोई डिसक्लेमर नहीं है जो कहे कि लिव इन रिश्ता पाप है और युवाओ को इससे बचना चाहिए । बस इतना ज़रूर कि  ज्यों ही आपका लिव-इन पार्टनर ऊंची आवाज़ में बात करे और उसका हाथ आपके खिलाफ उठ जाए उसका साथ छोड़ दो। ना केवल छोड़ो बल्कि कानूनी कार्रवाई भी करो। लिव इन रिश्तों से जुड़ा भारतीय कानून बहुत स्पष्ट और स्त्री के हक़ में है। हो सकता है कि आगे बढ़ते हुए  पीछे के सारे पुल आपने ढहा दिए हों तब भी नया रास्ता खोजिये और जो नहीं मिलता है तो बनाइये। माता -पिता से सबसे बड़ी अरज कि वे बच्चों को माफ़ करना सीखें। उन्हें  सबक सिखाने की मंशा ना पालें। बेटा हो या बेटी उम्र के इस दौर में उनका साथ ना छोड़ें। हो यह रहा है कि बच्चे जिस दुनिया में बड़े हो रहे हैं वह इंटरनेट की दुनिया है। संसार उनके सामने एक गांव की तरह है और दुनिया की संस्कृति भी। तभी तो 'एमिली इन पेरिस' जैसी वेब सीरीज भारत के युवाओं में भी लोकप्रिय है।  'एमिली इन पेरिस' में अमेरिका के  शहर से एक लड़की फ्रांस की राजधानी पेरिस पहुंचती है जो साथ ही  साथ दुनिया में  फैशन और कला की राजधानी भी है। वह एक मार्केटिंग कंपनी में है और

सर ढंकना औरत की सोच को नियंत्रित करने की साज़िश

कर्नाटक के शिक्षण संस्थानों में हिजाब को प्रतिबंधित किए जाने के बाद दो जजों की पीठ के दो अलग-अलग फैसले आए हैं ठीक वैसे ही जैसे पिछले साल इसी वक्त पूरा देश बहस करते हुए दो धड़ों में बंट गया था ,अपनी राय दे रहा था और तर्क रख रहा था। अभी एक पखवाड़े पहले ही सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने महिला को गर्भपात का अधिकार दिया है। महिला का वैवाहिक स्टेटस जो भी हो वह 24 सप्ताह के गर्भ को समाप्त कर सकती है। यह उसके शरीर पर उसके कानूनी हक के  उद्घोष की तरह  है। क्या हिजाब के मामले को भी इस नजरिए से देखा जा सकता है कि यह उसकी देह है, वह चाहे तो हिजाब पहने, चाहे तो नहीं। कोई मजहब, कोई कानून उस पर थोपा नहीं जाए कि उसे इसे पहनना ही है। ईरान की स्त्रियां यही तो कह रही हैं। जान कुर्बान कर रही हैं कि आप इसे हम पर थोप नहीं सकते। हमारे देश में जो यह सवाल चला वह एक शैक्षणिक संस्था से चला था। संस्थान में एक ड्रेसकोड है जिसका पालन होना ही चाहिए लेकिन हमने जानते हैं  कि भारत विविधता और विविध विचारधाराओं का देश है।  हम जिस स्कूल में पढ़ा करते थे वहां की स्कूल यूनिफॉर्म घुटनों तक की ट्यूनिक थी लेकिन लड़कियां शल

गुजरात :भाजपा का छेल्लो शो !

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   खेला होबे सियासत की दुनिया का लोकप्रिय मुहावरा हो गया है। किसे पता था कि पश्चिम बंगाल से चला यह शब्द खेल में 'सियासत होबे' का पाठ पढ़ा जाएगा। इस नई सियासत से दीदी के प्रदेश में यह नजरिया बन गया है कि चूंकि दादा ने पार्टी का साथ नहीं दिया इसकी वजह से उन्हें अध्यक्ष पद से चलता कर दिया गया है। दादा रबर स्टांप नहीं हो सकते थे लिहाजा उनकी पारी यहीं खत्म कर दी गई है। अगर जो दादा पार्टी का हाथ थाम लेते तो कथा कुछ और होती।  बहरहाल, खेला गुजरात में भी बहुत रोचक हो गया है। विधानसभा चुनाव होने को हैं और 27 सालों से राज कर रही भारतीय जनता पार्टी का बुखार इस बात से ही नापा जा सकता है कि कभी प्रधानमंत्री तो कभी गृह मंत्री वहां डेरा डाले रहते हैं। घोषणाओं पर घोषणाएं जारी हैं और पार्टी एक नहीं कई गौरव यात्राओं की शरण में चली गई है क्योंकि जनता अब नेताओं को हवा में नहीं सड़क पर देखना चाहती है। पता नहीं क्यों प्रधानमंत्री को राजकोट रैली में कांग्रेस के बारे में गुजराती भाषा में यह कहना पड़ा कि "इस बार कांग्रेस कुछ कह नहीं रही है, शांत बैठी है, चुपचाप घर-घर जाकर अभियान चला रही है। इस बात स

तेरा सुतवां जिस्म है तेरा

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ऐसे दुनियावी परिदृश्य में जहां ईरान में महिलाएं को हिजाब से मुक्ति पाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ रही हैं और अमेरिका महिलाओं को गर्भपात का अधिकार देने में पीछे हट गया है तब भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने गर्भपात के फैसले पर स्त्री को हक देकर उसके सशक्तिकरण की दिशा में सहज ही बड़ा कदम बढ़ा दिया है। यह और बात है कि कुछ लोगों ने जो ना स्त्री के शरीर से वाकिफ हैं और ना उसकी भावनाओं से, न्यायालय की व्याख्या को मनमौजी व्याख्या कह डाला है। यह समझना ज़रूरी है कि भारतीय संविधान मानव अधिकारों को  सर्वोपरि मानता है, बिना किसी लिंगभेद के और यह उस महान संस्कृति का भी प्रतिनिधित्व करता है जहां  संतान की पहचान उसकी जन्मदात्री से होती है। कौशल्या पुत्र, देवकीनंदन, कुंती पुत्र या कॉन्तेय की परंपरा के देश में स्त्री की देह पर स्त्री के अधिकार को रेखांकित  करनेवाला महत्वपूर्ण फैसला पिछले हफ़्ते सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। इसके तहत हर स्त्री को यह अधिकार होगा कि वह अपनी मर्जी से 24 हफ्ते के गर्भ पर फैसला ले सकती है फिर चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित। आज जब ईरान की महिलाएं सर से हिजाब उतारने के लिए अपनी

यह महान दृश्य है चल रहा मनुष्य

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सियासी मौसम बदला-बदला सा है। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राज्यपाल खुलकर कह रहे हैं कि मैं 2024 में इन्हें फिर नहीं देखना चाहता। पार्टी के एक केंद्रीय मंत्री और वरिष्ठ नेता भारत को बेहद अमीर देश तो मानते हैं लेकिन उसकी जनता को बहुत गरीब। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाहक ने देश भर में बढ़ती बेरोजगारी और आय में बढ़ती असमानता पर न  केवल चिंता जताई है बल्कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने तो नई जनसंख्या नीति बनाने की बात तक कर दी है वर्ना अब तक तो "उधर आबादी बढ़ती जा रही है, इधर बढ़ानी है" कि उत्तेजना ही सम्प्रेषित होती थी। शायद विश्लेषकों की बात समझ आ गई है कि आबादी बढ़ने का सीधा ताल्लुक जहालत से है न कि मज़हब से। यह बहुत ही सकारात्मक है कि देश में ऐसी आवाज़ें अर्से बाद अब फिर सुनाई देने लगी हैं। नफ़रती कीचड़ से सने बोल कहीं बह गए हैं, विसर्जित हो गए हैं। और भी बहुत कुछ बहा है, मसलन किसी को कमतर साबित करने की आईटी सेल की मुहीम। फिर भी घृणा के बीज जो देश में बोए जा चुके हैं, वे चुनावी सियासत वाले राज्यों में खाद-पानी पाने लगते हैं और काटों  की तरह लहलहाने लगते हैं। गुजरात ताज़ा मिसाल है।

आलाकमान की आला चूक

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 पूरे सप्ताह राजस्थान सुर्ख़ियों में रहा। गहलोत को 'घेलोट' कहनेवाला मीडिया देर रात तक जाग-जाग कर बग़ावत की कहानियां सुनाता रहा ,ब्योरे देता रहा। एक नेता जिसकी ख्याति रही हो कि वह पार्टी का वफ़ादार सिपाही है तो उसके पार्टी लाइन तोड़ने से जुड़ी ख़बरों में भला किसकी दिलचस्पी नहीं  होगी। उन्हें लग रहा था कि कांग्रेस पार्टी के वफ़ादार अशोक गहलोत की बेवफ़ाई के किस्से यहीं से मिलेंगे। अशोक गहलोत के तो नहीं लेकिन उनके विधायकों के एकजुट होने के दृश्य उन्हें खूब मिले, जिन्हें बगावत की तरह पेश करने में किसी ने कोई गलती नहीं की। अब जब इस बगावत की नैतिक ज़िम्मेदारी अपने सर लेते हुए अशोक गहलोत ने माफी मांग ली है तब मीडिया की नई कोशिश राजस्थान का मुख्यमंत्री बदलवाने में लग गई है। एक ठीकठाक काम करते प्रदेश को यूं अस्थिर करने के लिए कौन उत्तरदाई है ? किसने इसके  शांत पड़े धोरों में बवंडर की हवा फूंकी ? किसे लगा कि  गिनती के जिन दो प्रदेशों में सरकार बची हुई है उनमें से ही अध्यक्ष भी आना चाहिए। अगर जो आना भी चाहिये तो यह भांपा क्यों नहीं जा सका कि नए नाम पर वहां किस क़दर विद्रोह हो सकता है? कांग्रेस आलाकम

दोनों ही पक्षों ने मर्यादा को तोड़ा है

बहुत हैरानी और दुःख की बात है कि नेताओं की अदूरदर्शिता किसी भी राज्य के सामान्य दिनों को अचानक ही उथल-पुथल से भर देती है। क्या वाकई ये नेता कहलाए जाने लायक भी हैं? एक राज्य राजस्थान जिसकी सरकार जब से वजूद में आई है यानी 2018 से खुद को बचाने में ही लगी हुई है। सरकार को खुद याद नहीं होगा कि उसने कितने दिन राज-काज संभाला है और कितने दिन रिसॉर्ट पॉलिटिक्स की है। जनता के काम बनें, इससे पहले ही सरकार के बने रहने पर ही तलवार लटकने लगती है। यह भी उस वक्त हो रहा है जब सरकार के पास ठीक-ठाक बहुमत है या फिर उसके नेता ने वह जुटा लिया है। होता यह भी है कि उसकी  अपनी पार्टी के  नेता जो उपमुख्यमंत्री भी थे, रूठ जाते हैं क्योंकि उन्हें मुख्यमंत्री बनना था। उन पर आरोप लगता है कि वे उस पार्टी से बातचीत कर रहे थे जिसके ख़िलाफ़ सड़कों पर लड़कर उन्होंने सत्ता हासिल की थी।  मान-मनुहार के बाद वे लौट आते हैं। उनसे उनके दोनों पद उपमुख्यमंत्री और  पीसीसी अध्यक्ष का छिन जाते हैं। वे पार्टी में बने रहते हैं। फिर ऐसा क्यों होता है कि उसी नेता की वजह से पार्टी में दूसरी बार बगावत होती है। अबकी बार विधायकों को लगने लगता

क्या होगा फिर मुद्दे पर वोट और फिर वोट की चोट

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वक्त की नब्ज़ पर हाथ रखा  जाए तो देश में एक राज्य दिल्ली है जिसकी सरकार के प्रतिनिधि कह रहे हैं कि उन्हें सरकार तोड़ने के लिए खरीदा जा रहा है ,एक बिहार है जहां के मुख्यमंत्री को याद आ गया है कि उन्होंने सात साल से गलत टेका ले रखा  था , एक महाराष्ट्र है जहां की सरकार टूटकर केंद्र में सरकार वाली पार्टी की गोद में जाकर बैठ गई है ,एक गुजरात है जहां की  सरकार ने बलात्कार और हत्या के दोषसिद्ध आरोपियों को जेल से निकाल खुला छोड़ दिया है , एक राजस्थान है जहां गांधीवादी विचारधारावाली सरकार तो है लेकिन उसे भी नहीं सूझ रहा है कि दलित का सम्मान कैसे सुनिश्चित किया जाए और एक नन्हा सा राज्य  तेलंगाना है जहां से एक बयानवीर ने फिर उबालें खाती राजनीति में भाटा डाल दिया है।  इन हालात को पढ़ने वालों और झेलनेवालों  को बांटने  का बचाखुचा काम मीडिया और सोशल मीडिया कर देता है  नेताओं का काम फिर बिलकुल आसान हो जाता है।  तकलीफ की तह में जाने की बजाय नतीजे पर पहुंचने की जल्दबाज़ी हर कहीं देखी जा रही है। मुद्दा कोई हो दो गुट बन ही जाते हैं। इन नेताओं की नूरा कुश्ती की पोल जनता के सामने खोल सके ऐसा फ़िलहाल कोई नहीं। पहल

दो तस्वीरें एक संघर्ष

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  इस लेख को लिखने का विचार शुक्रवार को अख़बार में पहले पन्ने पर प्रकाशित दो तस्वीरें हैं।  एक में देश की प्रथम नागरिक चुन लीं गईं द्रौपदी मुर्मू अपनी बिटिया इतिश्री  के हाथ से मिठाई खा रही हैं और दूसरी में सोनिया गांधी अपनी बेटी प्रियंका गांधी के साथ गाड़ी में बैठकर प्रत्यर्पण निदेशालय यानी ईडी के दफ्तर से लौट रही हैं। राजनीतिक धरातल पर दो बेहद विपरीत हालात के बावजूद ये दोनों स्त्रियां संघर्ष की बुलंद दस्तानों का प्रतिनिधित्व करती हैं। उन्नीस साल की उम्र में इटली की एक लड़की का भारतीय लड़के से प्रेम कर बैठना और फिर खुद को पूरी तरह से लड़के के देश और परिवार के संस्कारों में ढाल लेना।  उसके बाद पहले लड़के की मां का गोलियों से छलनी हुआ शरीर देखना और  फिर कुछ ही सालों में उस लड़के को भी अलविदा कह देना जिसके आतंकी हमले में शरीर के हिस्से भी नहीं मिले थे।  ये  सोनिया गांधी हैं।  द्रौपदी मुर्मू भी संघर्ष का ही दूसरा नाम हैं। उनके बेहद अपने केवल चार साल के अंतराल में उनसे बिछड़ गए। पचीस साल के बेटे लक्ष्मण का शरीर उन्हें उसके कमरे में मिला और दूसरा बेटा 28 साल की उम्र में एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो ग

सांसद को रोकने से ज़्यादा असंसदीय क्या होगा

 असंसदीय शब्दों की सूची बाहर आई है साथ में  क्या कुछ और भी बाहर आया है ? आया है  सत्ता पर काबिज़ लोगों का डर। कुछ इस तरह  जैसे चोर की दाढ़ी में तिनका। शब्दों पर आपने रोक लगा दी लेकिन भाव और मुख मुद्राओं का क्या ? उन  पर कैसे प्रतिबन्ध लगेगा। मान लीजिये आपने बहुत ही संसदीय शब्द बहुत ही अभद्र भाव से कहे हों तब ? और तो और आपने किसी नेता को मूर्ख बोलने के लिए अल्प बुद्धि शब्द का प्रयोग कर लिया तब ? तानाशाह को आपने तन कर खड़ा शाह बोल दिया तब। ज़ाहिर है कुछ शब्दों पर प्रतिबन्ध लगा कर आप अभिव्यक्ति को नियंत्रित नहीं कर सकते। एक फिल्म में देव आनंद अपने साथियों को आगाह करने के लिए कह देते थे जॉनी पुलिस का आदमी है। शब्दों की फेहरिस्त पढ़ते हुए लगता है जैसे बात कहने के अंदाज़ और बहस से ही जैसे किसी को इंकार हो। अकबर के दरबार में बीरबल अपनी बात को पुख्ता तरीके से रखने के लिए अपनी बुद्धि के साथ नए-नए प्रयोग करते थे, कुछ वैसे ही तरीके सांसदों को भी अपनाने होंगे। आखिर उन्हें जनता ने चुन कर भेजा है और वह जनता की ही भाषा बोलते हैं। इन शब्दों के आलावा जीता हुआ सांसद लोक मुहावरे भी जानता है। यह मुद्दा इतना रोच

सरकार का आग से खेलने वाला पथ अग्निपथ

बुलेट ट्रैन के सपनों को जीते-जीते हम बुलडोज़र और अब अग्निवीर की  बुलेट ट्रेनिंग के पहले ही निशाने पर आ गए हैं। सरकार इसे नौकरी कह रही है लेकिन युवा को ऐसा नहीं लग रहा ।वह सड़क पर है आंदोलित है उद्वेलित है।  सरकार उस युवा को सेना में चार साल के लिए नौकरी देने की बात कर रही है  जो चार साल से कड़ी मेहनत सेना में भर्ती के लिए कर रहा था । कुछ तो इस अवधि में आयु सीमा भी पार कर चुके। तीनों सेनाओं के लिए छियालीस  हज़ार युवाओं  की भर्ती होगी जिनकी उम्र अठारह से इक्कीस साल होगी। पहले साल तीस हज़ार ,  दूसरे साल 33  तीसरे साल  36हजार पांच सो और चौथे साल 40 हज़ार रुपए दिए जाएंगे कुल लगभग ग्यारह  लाख सेवा के अंत में  इन सैनिकों  को मिलेंगे । कोई पेंशन नहीं कोई स्वास्थ्य सुविधा नहीं। अब भर्ती रैलियां भी नहीं होगी। तर्क ये कि बूढी सेना अब  जवान होगी लेकिन  वे जज़्बात जो मृत्यु से यारी के होते हैं प्रतिबद्धता के होते है, देश पर मर मिटने के होते हैं वे कहां से आएंगे? चार साल की तो डिग्री होती है और उसके बाद फिर इंटर्नशिप भी। चार साल बाद भी ये युवा तो  युवा ही रहेंगे। वे फिर बेरोज़गार की कतार में शामिल नहीं हो ज

जनता के खिलाफ द्रोह से डरो सरकारो

 कानून 124 A पर सरकार पुनर्विचार करे इससे पहले एक मजबूत विचार सुप्रीम कोर्ट ने रख दिया है।  अब इस कानून के तहत नए मामले दर्ज़ होना स्थगित रहेगा ,जो जेल में हैं वे ज़मानत के लिए अपील कर सकते हैं। वाकई एक बड़ा दिशा निर्देश उन पत्रकारों , कॉमेडियंस ,मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और नेताओं के लिए जो सत्ताधारी दल के निशाने पर केवल इसलिए होते क्योंकि वे अपनी राय रख रहे होते  हैं। वे  तोते की तरह नहीं बोलते जो अपने आकाओं की खुशामद में अपना विवेक अपना ज़मीर ताक पर रखकर चलता है। 1860का यह कानून अंग्रेज़ी हुकूमत की देन था एक अंग्रेज इतिहासकार जिसे हम थॉमस मैकाले के नाम से जानते हैं। जिसकी शिक्षा प्रणाली को हम कोसते नहीं थकते उसी कानून को हम आज़ादी के अमृत महोत्सव तक खींच कर ले आए हैं सिर्फ इसलिए कि असहमत की आवाज़ दबा सकें, उसके खिलाफ गैर जमानती वारंट ला सकें ,जेल में सड़ा सकें। महात्मा गांधी ,बाल गंगाधर तिलक ,भगतसिंह, सुखदेव ,जवाहर लाल नेहरू जैसे कई देशभक्त इस राजद्रोह कानून के तहत जेल में डाले  जा चुके हैं।  अब जब कानून मंत्री किरण रिजिजू लक्ष्मण रेखा याद दिला रहे हैं तो सरकार की मंशा पर भी संदेह झलकता दिखाई

खबर और मनोहर कहानियां का फर्क मिटा दिया इस दौर ने

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जेएनयू में अब वेज v/ s नॉनवेज हो गया। रामनवमी पर मांसाहार नहीं परोसना तय किया गया। दूसरा पक्ष भिड़ गया कि दिखाओ कहां कोई लिखित आदेश है। अब ऐसे तमाम मसलो के कहां कोई आदेश-वादेश होते हैं। रामनवमी थी। आराध्य  का दिन था ,इससे बड़ा क्या कोई मौका होता विवाद पैदा करने के लिए। वे लड़ लिए। नए नवेलों की राजनीति चमक गई, उनके बुजुर्ग नेताओं ने भी देख लिया और अख़बार टीवी की कृपा दृष्टि भी हो गई। ये  ऐसे ही चटपटे मसालों की तलाश में रहते हैं लेकिन उन्हें नहीं पता कि ये चटपटे मसाले पुराने हो गए हैं। जाले पड़ गए हैं इनमें,बांस रहे हैं बांसी सामग्रियों के साथ। घिन आती है ऐसे मुद्दों पर और ऐसी सियासत पर। मत खाओ एक दिन। शोर नहीं मचाओगे तो वे भी क्या  कर लेंगे। तुम शोर मचाते जाते हो, वे मामले ढूंढ के लाते जाते है। सब मौजूद है हमारे देश में । वेज -नॉनवेज,पर्दा बेपर्दगी , मूर्त-अमूर्त। सब एक साथ। अब आप इन्हीं पर भिड़ रहे हो ,लड़ रहे हो ,अड़ रहे हो। क्या बेरोज़गारी ख़त्म हो गई ?महंगाई मर गई ?बलात्कारी बेहोश हो गए ? पत्रकार बेखौफ लिख रहे ? गैर ज़रूरी मुद्दों पर आप लड़ रहे हो। आप कायदे के मुद्दे उठाओगे तो वे भी रास्ते पर आ