आलाकमान की आला चूक


 पूरे सप्ताह राजस्थान सुर्ख़ियों में रहा। गहलोत को 'घेलोट' कहनेवाला मीडिया देर रात तक जाग-जाग कर बग़ावत की कहानियां सुनाता रहा ,ब्योरे देता रहा। एक नेता जिसकी ख्याति रही हो कि वह पार्टी का वफ़ादार सिपाही है तो उसके पार्टी लाइन तोड़ने से जुड़ी ख़बरों में भला किसकी दिलचस्पी नहीं  होगी। उन्हें लग रहा था कि कांग्रेस पार्टी के वफ़ादार अशोक गहलोत की बेवफ़ाई के किस्से यहीं से मिलेंगे। अशोक गहलोत के तो नहीं लेकिन उनके विधायकों के एकजुट होने के दृश्य उन्हें खूब मिले, जिन्हें बगावत की तरह पेश करने में किसी ने कोई गलती नहीं की। अब जब इस बगावत की नैतिक ज़िम्मेदारी अपने सर लेते हुए अशोक गहलोत ने माफी मांग ली है तब मीडिया की नई कोशिश राजस्थान का मुख्यमंत्री बदलवाने में लग गई है। एक ठीकठाक काम करते प्रदेश को यूं अस्थिर करने के लिए कौन उत्तरदाई है ? किसने इसके  शांत पड़े धोरों में बवंडर की हवा फूंकी ? किसे लगा कि  गिनती के जिन दो प्रदेशों में सरकार बची हुई है उनमें से ही अध्यक्ष भी आना चाहिए। अगर जो आना भी चाहिये तो यह भांपा क्यों नहीं जा सका कि नए नाम पर वहां किस क़दर विद्रोह हो सकता है? कांग्रेस आलाकमान क्या यहां चूक गया है ? आलकमान की नहीं चली यह तो कहा जा रहा है लेकिन आलाकमान की खुद की  चूकों पर कोई है जो बात करेगा ?


फ़िलहाल पूरे मामले में अशोक गहलोत ने माफ़ी मांग नैतिक ज़िम्मेदारी अपने सर ले ली है और ख़ुद को कांग्रेस अध्यक्ष की रेस से भी बाहर बता दिया है। पहली नज़र में तो यही लगता है कि आलाकमान को पशेमां होने से भी बचा लिया है। उनके क़रीबी और मुख्यमंत्री पद के दावेदार महेश जोशी कहते सुने गए कि अशोक गहलोट पर ये दो रातें बहुत भारी बीती हैं और वे कहते रहे कि मैडम को कितना बुरा लगा होगा। बेशक ज़िम्मेदारी उनकी भी है क्योंकि उन्हें ही यह एक लाइन का आदेश पारित कराना था। वे नहीं भूले होंगे कि साल 1998 में जब वे प्रदेश अध्यक्ष थे तब परसराम मदेरणा सीएम बनने वाले थे लेकिन इस एक आदेश ने ही उन्हें राजस्थान का मुख्यमंत्री बना दिया था। मदेरणा तब चुप्पी साधे बैठ गए थे। क्या अब आलाकमान की उतनी ताक़त नहीं रही। गहलोत तो तब विधायक भी नहीं थे। 


अब की बार उन्हें निर्देश मिला था कि आपको कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ना है। सब जानते हैं कि अशोक गहलोत राहुल गांधी को ही इस पद पर देखना चाहते थे यानी ख़ुद नहीं बनना चाहते थे। शायद यह कांटों का ताज था  जो एक राज्य की सत्ता के एवज में उन्हें दिया जा रहा था। गहलोत को यह आशा रही होगी कि जीतने के बाद राजस्थान की सत्ता उनके ही किसी विश्वासपात्र को सौंप दी जाएगी लेकिन इस विश्वास के तो परख्च्चे उड़ गए और इसके अंश मीडिया,जनता और विधायक की आंखों में किरकिरी बनकर समाते चले गए। अशोक गहलोत समर्थक विधायकों ने बग़ावत कर दी क्योंकि उन्हें ऐसे संकेत मिले  कि दिल्ली से अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे की जो टीम आई है वह हमारा मत जानने नहीं बल्कि सचिन पायलट का नाम हम पर थोपने आई है। गहलोत समर्थक इन नेताओं की बैठक  में शामिल ना होकर संसदीय मामलों के मंत्री शांति धारीवाल के घर जुट गए। इसे कांग्रेस आलाकमान के नेतृत्व को चुनौती बताया गया और नतीजतन गहलोत को माफ़ी मांगनी पड़ी । कुछ का यह भी मानना है  कि गहलोत भले ही आलाकमान के नुमाइंदों के साथ सीएलपी मीटिंग के लिए विधायकों का इंतज़ार कर रहे थे लेकिन उनकी विधायकों को शह थी। गहलोत के लिहाज़ से देखा जाए तो यह भी लगता है कि पार्टी अपने नेता से कुछ ज़्यादा की मांग कर रही थी। कांग्रेस अध्यक्ष जीतने से पहले सीएम पद छोड़ने की मांग गहलोत को जंची नहीं थी। आख़िर चुनाव हैं हार भी हो सकती  है। तब क्या पार्टी अपने नेता को यूं ही दांव पर लगाने के लिये तैयार थी। यह पार्टी की अदूदर्शिता ही कही जाएगी कि उन्होंने अशोक गहलोत को जिन पर गुजरात चुनाव  की भी ज़िम्मेदारी है, विश्वास में ना लेकर ऐसी  कसौटी पर कसना चाहा। अभी पंजाब के फैसलों का नुक़सान झेले पार्टी को ज़्यादा वक़्त नहीं हुआ है। यहां अगर सचिन पायलट को सीएम बनाना था तो वहां नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन ठने हुए थे। फिर अचानक एक नाम चरण सिंह चन्नी का आता है और वे मुख्यमंत्री बना दिए जाते हैं। पार्टी बुरी तरह चुनाव हारती है और कैप्टन भाजपा में चले जाते हैं। इस हाल में तो राजस्थान के विधायकों ने ठीक ही किया। अगले साल चुनाव में विधायकों को ही जाना है और बहुमत सचिन के साथ नहीं, इस विद्रोह ने यह भी दिखा दिया। यह सच है कि सचिन ने पार्टी को जिताने में राजस्थान में मेहनत की थी लेकिन जुलाई 2020 की बगावत के  बाद हालात बदल गए हैं। विधायकों को बड़ों में बंद रहना पड़ा। ईडी सीबीआई यहां भी सक्रिय हो गई। फिलहाल सवाल यही है की इस सबके बाद अब क्या अशोक गहलोत की सीएम कुर्सी भी खतरे में आ गई है ? अध्यक्ष पद की दौड़ से तो उन्होंने खुद को बाहर कर ही लिया है ?


कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल की माने तो एक-दो दिन में सीएम का फ़ैसला हो सकता है। ऐसा कर के शायद पार्टी अपनी ताक़त जताने की कोशिश कर सकती है लेकिन यह आत्मघाती कदम होगा। फिर भी अशोक गहलोत हटाए जाएंगे इसकी आशंका नहीं के बराबर है। अब तक जयपुर में जो दोनों गुट सतह पर शांत दिखाई दे  रहे  थे अब एक दूसरे को गद्दार और दलाल कह रहे  हैं। कांग्रेस विधायक धर्मेंद्र चौहान ने पायलट गुट के वेद प्रकाश सौलंकी पर एक साल पहले जिला परिषद के चुनावों में भाजपा से सांठगांठ करने का आरोप लगाते हुए गद्दार कहा तो जवाब में सौलंकी ने उन्हें दलाल कह दिया है। बताते हैं कि यह रिपोर्ट प्रदेश प्रभारी अजय माकन को दी गई  थी लेकिन कुछ नहीं हुआ। शायद आलाकमान कोई एक्शन नहीं लेना चाहता था। अबकी बार भी अजय माकन ही आलाकमान का  संदेशा  लाए थे जिसमें पायलट को सीम बनाने का संकेत मिलते ही ग़दर मच गया। बहुत  साफ़ नज़र आता है कि राजस्थान में पार्टी दो गुटों की खाई के साथ चल रही थी जिसे पाटने के कोई प्रयास आला नेताओं ने नहीं किये। अब जो गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष की रेस में लाकर पायलट को गद्दी सौंपनी चाही तो यह भी बूमरैंग कर गया। गहलोत ने भले ही ज़िम्मेदारी का बोझ अपने सर ले लिया हो लेकिन पार्टी में ऐसे प्रभारियों का अभाव है जो सहमति और सद्भाव का माहौल बनाते। कम अज़ कम राजस्थान में तो ऐसा नहीं ही हुआ। यहां भाजपा मौके की तलाश में है। उसके नेता का कहना है कि अगर जो विधायकों के इस्तीफ़े विधानसभा अध्यक्ष के पास होते तो परिस्थति अलग होती। वे कहते हैं कई नेता आ रहे हैं सचिन का भी स्वागत है। उधर अशोक गहलोत  के बाद सचिन पायलट भी सोनिया गांधी से मिल लिए और मिलजुलकर 2023 में सरकार बनाने की बात कर रहे हैं। राजस्थान छोड़ना नहीं चाहते हैं। क्या होता जो सोनिया गांधी दोनों को साथ बैठाकर बातचीत कर लेतीं। खैर साधारण दिमाग यहीं सियासी दिमाग से मेल नहीं खाता। 


राजस्थान के सियासी ड्रामे का अंत अभी नहीं हुआ है लेकिन यहां के पात्र के कांग्रेस अध्यक्ष पद से एग्जिट लेते ही मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ,आनंद शर्मा का नाम सामने आया फिर वे भी दौड़ से हट गए।नया नाम वरिष्ठ नेता मल्लिकार्जुन खड़गे का सामने आया है। दिविजय सिंह एक बिजुका की तरह थे शायद। खड़गे बुज़ुर्ग और कांग्रेस की पसंद कहे जा सकते हैं। शशि थरूर रेस में बने हुए  हैं। इन  सबके बीच गहलोत एक गंभीर चयन हो सकते थे। दिग्विजय सिंह के बारे में कहा जा सकता है कि वे अपनी विरोधी पार्टी को उन्हीं की शैली में जवाब  दे सकते थे। कांग्रेस में हलचल है। निष्क्रिय होने से यह कहीं बेहतर हैं। भारत जोड़ो यात्रा जारी है और अब कर्नाटक में प्रवेश कर गई है। यहां लोगों में उत्साह है लेकिन चुनौतियां और बढ़ेंगी।  इस सबके बीच लोगों को जोड़ने का यह प्रयास सबसे आला है। सड़क पर  गले लगते ,आल्हादित होते ,भावुक होते सहज लोगों  को यूं  नेता के साथ देखना नया तो नहीं लेकिन अरसा हुआ इन दृश्यों को देखे। 


टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

वंदे मातरम्-यानी मां, तुझे सलाम

एप्पल का वह हिस्सा जो कटा हुआ है

सौ रुपये में nude pose