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मई, 2010 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कल बदनाम लेखक मंटो का जन्मदिन था

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कल उर्दू के बेहतरीन अफसानानिगार सआदत अली हसन मंटो की ९८वीं सालगिरह थी.उनके अंदाज़े बयां को सजदा करते हुए एक अफ़साना और एक हकीकत  उन हमज़ुबां दोस्तों के नाम जो कुछ अच्छा पढ़ने की उम्मीद में इस ब्लॉग पर आते हैं .  यूं तो मंटो के बारे में कहने को इतना कुछ है कि मंटो पढ़ाई-लिखाई में कुछ ख़ास नहीं थे कि मंटो कॉलेज में उर्दू में ही फ़ेल हो गए थे कि शायर फैज़ अहमद फैज़ मंटो से केवल एक साल बड़े थे कि उन्हें भी चेखोव कि तरह टीबी था कि वे बेहद निडर थे कि उनकी कई कहानियों पर अश्लीलता के मुक़दमे चले कि बटवारे के बाद वे  पकिस्तान चले गए कि उन्होंने दंगों की त्रासदी को भीतर तक उतारा कि वे मित्रों को लिखा करते कि यार मुझे वापस बुला लो कि उन्होंने ख़ुदकुशी की नाकाम कोशिश  की और ये भी कि वे बहुत कम [४३] उम्र जी पाए गोया कि  चिंतन और जीवन का कोई रिश्ता हो . उफ़... उनके बारे में पढ़ते-लिखते दिल दहल जाता है और उनकी कहानियाँ तो बस इंसान को चीर के ही रख देती हैं. बेशक मंटो का फिर पैदा होना मुश्किल है. हमारा नसीब कि उनका लिखा अभी मिटा नहीं है. एक अर्थ में मंटो सव्यसाची थे हास्य व्यंग्य पर उनका बराबर का अधिकार था.

झुमरी तलैया से चीत्कार

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बरसों तक झारखण्ड के इस क़स्बे के साथ मीठी फर्माइशों का नाम जुड़ा रहा है. आकाशवाणी के विविध भारती चैनल  पर कई मधुर गीत केवल यहीं के बाशिंदों के आग्रह पर बजते रहे हैं. आज एक बार फिर यह नाम सुर्ख़ियों में है लेकिन इस बार सुर-ताल के लिए नहीं बल्कि एक लड़की की चीत्कार के लिए. बाईस साल की निरुपमा पत्रकार थी और प्रियभान्शु रंजन नाम के हमपेशा लड़के को हमसफ़र बनाना चाहती थी. लड़की ब्राह्मण और लड़का कायस्थ. दोनों दिल्ली में थे . छोटे शहरों से झोला उठाकर चलनेवाले लड़के-लड़कों में माता-पिता तमाम ख्वाब भर देते हैं लेकिन उसका अहम् हिस्सा अपने कब्ज़े में रखना चाहते हैं . खूब पढो, अच्छा जॉब चुनों, ज्यादा कमाओ लेकिन जीवनसाथी? वह मत चुनों. बेटी को खुला आसमान देनेवाले पढ़े-लिखे अभिभावक भी यहाँ पहुंचकर उनके पंख कतरना चाहते हैं. निरुपमा के साथ भी यही हुआ. पुलिस ने माँ को गिरफ्तार करते हुए आरोप लगाया की उसने ख़ुदकुशी नहीं की उसकी गला दबाकर हत्या की गयी है वह दस हफ्ते के गर्भ से थी. दरअसल, हर मध्यमवर्गीय भारतीय परिवार के भीतर एक खांप जिंदा है.हम उस खांप से बहार आना नहीं चाहते. शादी के ज़रिये हम यह साबित करते हैं की ह

एक ख़त, मई दिवस १९८१ का

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यह ख़त एक लड़की का है. मुम्बई डेटलाइन से. मुझे तब मिला होता तो मेरे लिए सिर्फ नीले कागज़ का पुर्जा भर होता . कोई ताल्लुक इस ख़त से नहीं है लेकिन इस ख़त की खुशबू मुझे बहुत अपील करती है. मुझे अच्छा लगता है कि कोई कितनी शिद्दत से जिया है उन पलों को. उन सरोकारों को. पहले वह ख़त और फिर पानेवाले कि तात्कालिक प्रतिक्रिया जो उसी ख़त के हाशिये पर लिख दी गयी है. प्रिय ......... आपका पत्र २९ को मिला, टेलीग्राम कल और फ़ोन भी कल ही . इन सारी शुभकामनाओं के लिए धन्यवाद. कल शाम को तो मैं सारा सामान उठा कर दरवाज़े से बहार निकलने को ही थी कि आपका फ़ोन आया . धन्यवाद. जन्मदिन ठीक ही रहा. दिन भर दफ्तर , शाम खार में एक छोटे बच्चे कि जन्दीन पार्टी में आज मजदूर दिवस के उपलक्ष्य में सबको छुट्टी थी लेकिन हमारे दफ्तर में तो सबने बराबर मजदूरी की है . गर्मी आज अचानक ही बढ़ गयी है और काम करना भी मुश्किल हो रहा था. खैर इस वक्त तो मैं अपने कमरे में हूँ . मेरी रूम मेट्स पढ़-पढ़ कर परेशान हो रही हैं और मुझे देखकर उन्हें बड़ी कोफ़्त हो रही है. आपकी शुभकामनाएँ उन तक पहुंचा दी हैं और अब उनका धन्यवाद आप तक पहुंचा रही हूँ.