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रिया चक्रवर्ती केस:अशर्फी की लूट, कोयले पर छापा

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अशर्फी की लूट,कोयले  पर छापा यानी ज़रूरी तफ़्तीश  पीछे छूट गई और आप मुँह छिपाने के नए-नए  रास्ते ढूँढने लगे। रिया चक्रवर्ती के साथ यही हो रहा है। एक 28 साल की लड़की की गिरफ़्तारी  इसलिए नहीं हुई है कि उसने 59 ग्राम ड्रग्स को अपने साथी सुशांत के लिए ख़रीदा बल्कि इसलिए कि वह एक लड़की है। वो लड़की जो अपने साथी के साथ बिना शादी के रह रही थी ,उस सड़ी -गली  मानसिकता को हवा दे रही थी जिसके मुताबिक ये मुंबई की लड़कियां ऊंचे ख्वाब देखती  हैं और सीधे-सादे अमीर लड़के को पटा लेती हैं ,फिर परिवार से दूर कर देती हैं और अपने खुद के परिवा र का घर भरती हैं। इसी मानसिकता के साथ तो देखता है एक मध्यम और निम्नवर्गीय परिवार अपनी  बहू को भी और फिर ये तो बहू भी नहीं थी। पंद्रह  करोड़ और हत्या की थ्योरी जब नहीं चली तो NCB  नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो  को 59 ग्राम नशे का सहारा मिला जो रेव पार्टी में अमीरों के बच्चों के पास यूं ही  मिल जाता है  और अगले दिन ही वे ज़मानत पर छूटकर घर आ जाते हैं। रिया को भी जमानत मिल सकती थी नहीं मिली ।  हाँ मुझे रिया की गिरफ्तारी से तकलीफ है,एतराज़ है  क्योंकि जांच की दिशा बदल दी गई ।

फेसबुक से जवाब मांगने का वक़्त

सरकारें नफ़रत भरी दंगाई भाषा को पसंद करती हैं और फेसबुक ऐसी सरकारों को। भले ही वह दूसरों को अपने कम्युनिटी स्टैंडर्ड्स का हवाला देकर ब्लॉक कर देता है लेकिन खुद के लिए वह अपने ही बनाए  नियम-कायदे  तोड़ देता है। अमेरिकी अखबार वॉल स्ट्रीट जर्नल ने फेसबुक के बारे में साफ़ लिखा है कि इसकी भारत समेत  दक्षिण एशिया की पब्लिक पॉलिसी हेड आंखी दास    ने फेसबुक का धंदा मंदा न हो उसके लिए फेसबुक नीति से समझौते किये और हेट स्पीचेस को बढ़ावा दिया। फेसबुक अधिकारी ने तेलंगाना के भाजपा नेता टी राजा सिंह की  नफ़रत भरी पोस्ट को नहीं हटाते हुए कहा था कि इससे भारत में हमारे बिसनेस पर असर पड़ सकता है। ये अधिकारी लाख नकारने की कोशिश करे लेकिन भारतीय पत्रकार अब लगातार इस नेक्सस की बखिया उधेड़ रहे हैं ट्वीटर पर डॉ रश्मि दास को आंखी दास की बहन बताया गया है जो जेएनयू में अभाविप की अध्यक्ष रही हैं। विस्तार से जानना हो आप वहां साकेत गोखले का ट्वीट देख सकते हैं।  लेकिन क्या वाकई हमें फेसबुक के इस व्यवहार को समझने के लिए वॉल स्ट्रीट जर्नल की जरूरत है? हम नहीं जानते कि पिछले कुछ साल में हमारी अपनी पोस्ट पर ही लोगों ने कित

वो जो अयोध्या नहीं जा रहे होते

वो जो अयोध्या नहीं जा रहे होते हम अपना वजूद खो चुके होते हमारी लड़कियां उनके चूल्हे जला रही  होतीं  उनके ढेर-ढेर बच्चे होते फिर वे बच्चे घेरकर मारे जा रहे होते घर-घर में जानवर कटते  गौमाता का क्या हाल होता पूछो मत और प्राचीन संस्कृति का तो समूल नाश हो गया होता वो जो अयोध्या नहीं जा रहे होते गुरुकुल मदरसा-मदरसा चीख़ रहे होते पड़ोस का पला हुआ दुशमन छुट्टा शेर हो जाता जिसे  नहीं पाल सके वो देश में घुस आता। बीमारी बला बनके फूटती पंक्चर पकाने वाले महलों में आ जाते और दाढ़ी वाले हुकूमत कर रहे होते वो जो अयोध्या नहीं जा रहे होते हमारा तो रुतबा ही ख़त्म हो गया होता हम अपने ही देश में देशद्रोही करार  दिए जाते     मेहनतक़श सड़कों पर होते सर पे गठरी, बगल में बच्चे फटी बिवाइयां ,थकी ज़िंदगियां लगातार सरक रही होतीं  वो जो अयोध्या जा रहे हैं अच्छा कर रहे हैं लुटे गौरव को कायम कर रहे हैं अस्पताल-अस्पताल क्या चिल्लाते हो महामारी आई है चली जाएगी इंसान को नहीं अहंकार को ज़िंदा रहना चाहिए हमारे देश में हमारा अहंकार हम वादे की ठसक में हैं तुम हटो अलग। कबीर कह गए हैं भला हुआ मो

सावन चोर नेता

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एक पखवाड़े से लग रहा है जैसे राजस्थान को किसी ने जकड़ रखा है। यूं सावन का महीना है, बूंदें भी मेहरबान हैं  लेकिन लगता है हमारे हिस्से सूखा आ रहा है। हमारे  झूले की रस्सी कोई काट रहा है। बणी--ठणी निराश है । घूमर का आनंद कोई और ले रहा है और लहरिया के रंग भी कोई  फ़ीके करते जा रहा है। मोर के नाच में भी रोड़े अटका रहा है। कोरोना के बीच नेताओं ने कोढ़ में खाज का काम कर दिया है। ये सब किसकी ग़लती  से हो रहा है, कौन कर रहा है लेकिन प्रदेश असर में है।  उसे लग रहा है कि उसके मत  को किसी तोड़ा -मरोड़ा है । जो कह रहे हैं हम तो तमाशबीन है ,उनकी आँखों में शरारत  है।  इनका घूमर जो होटलों , कचहरियों और क़ानून निर्माण की देहरियों के बीच जारी है उसमें लय-ताल की कमी है। इनके झूलों की पींगें डरावनी हैं। कभी-कभी जो लहरिया किन्ही ख़ास मौकों पर अपने शीष पर सजाते हैं ,वह किसी को मोह नहीं पा रहा है। इस धरा  के जीवट रंगों  को कोई कोई गहरी ऊब में तब्दील कर चुका  है। जनमानस का लाखों का सावन किन्ही की बोलियों से तबाह होने की कगार पर है। किसकी कितनी बोली लगी जनता जानना तो  चाहती है लेकिन पता नहीं चलेगा यह भी जानती है। महा

तुम पानी

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तुम पानी  अपने आकार  की  कोई पहल नहीं  अपनी गहराई की कोई थाह नहीं   सरहद का कोई इल्म नहीं   दौड़ की कोई राह नहीं   भेद में कोई निष्ठा नहीं बस वर्षा में ही तेरी आस्था रही।   image:varsha बरस जाता है  बह जाता है  अलौकिक रफ़्तार में  उलझी जड़ों तक के रेशों में  जो घोल ले ठोस से ठोस अहंकार को  फिर भी आतुर और पी लेने को।  और मैं  अचंभित तुम्हें यूं  बहते-चलते देखते हुए शायद तुम इस पानी को कभी  मेरी आँखों में देख सकते हो  और हाँ यह सब मैंने  पानी पर ही लिखा है  मिटा देने के लिए।  यही तो पानी भी चाहता है। 

कोरोना काल में कलाकार तकलीफ़ में हैं चाहिए नरेगा जैसी योजना 

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 "ऐसे भी मामले हैं जब कलाकार पैसों की कमी से ख़ुदकुशी कर लेते हैं। इस महामारी में  नरेगा जैसी योजना उनके लिए भी संबल हो सकती हैं "-टी एम कृष्णा   कर्नाटक संगीत  शैली के बेहद प्रयोगधर्मी गायक कलाकार  टी एम कृष्णा  का यह कहना सही  इसलिए भी मालूम होता है क्योंकि इस संवेदनशील कौम  के पास केवल अपनी कला होती है जिसे वे जुनून की हद तक जीते हैं। तथ्य यह भी है कि इसे अभिव्यक्त करने के लिए हमेशा उन्हें एक प्लेटफॉर्म की ज़रूरत होती है। सामान्य भाषा में हम जिसे काम मिलना कहते हैं। अमिताभ बच्चन काम मिलते रहने के अच्छे हालात पर अक्सर शुक्रिया जताते  नज़र आते हैं तो  कभी कभार इसी काम को पाने के लिए नीना गुप्ता जैसी अच्छी कलाकार को भी इल्तजा करनी पड़ती है। काम का मिलना हर हाल में ज़रूरी है और अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि यह अवसर कोई दूसरा ही मुहैया  करता है। इस व्यवस्था की चाबी अक्सर पूंजीपति के हाथ ही होती है।आत्मनिर्भर होकर भी आत्मनिर्भर नहीं होते हैं आप  । यही हिसाब मूर्तिकार , शिल्पकार, चित्रकार और   भारत की  तमाम पारम्परिक कलाकारों पर भी लागू होता है। भारत तो  कलाओं का ही देश है । चप्पे-चप्पे

गुलाबो सिताबो -अचार तो है लेकिन चटखारे नहीं

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  फत्तो 95, माफ़ कीजियेगा गुलाबो सिताबो का ये नाम ज़्यादा मुफ़ीद होता। क्लाइमेक्स में केक पर लिखे यही शब्द होठों पर मुस्कान ला देते हैं। कहना मुश्किल है कि इस कठिन कोरोना काल में इतने बड़े सितारों की इस फ़िल्म को छोटी-छोटी स्क्रीन पर डिजिटल रिलीज़ करना डायरेक्टर और कलाकारों को कैसा लगा होगा। बतौर दर्शक हम अपनी बात करें तो सिनेमा हॉल में देखने के बाद छोटे पर्दे पर फ़िल्म दोबारा देखने में तो आनंद आता है लेकिन गुलाबो  सिताबो   को देखने के बाद थिएटर में दोबारा जाएंगे  या  नहीं तो इसका जवाब ना ही होगा। अमिताभ बच्चन ने शूजित सरकार की गुलाबो   सि ताबो में झंडे गाड़ दिए हैं। मिर्ज़ा के  इस लालची क़िरदार में वे इस क़दर लालची पाए गए हैं कि कोई भी मिसाल कम होगी। जनाब अपनी ही हवेली का क़ीमती सामान कौड़ियों के दाम में बेचते जाते हैं।  फ़ातिमा महल लखनऊ की बड़ी-सी हवेली का नाम है जिसमें कई किराएदार मामूली से किराए के एवज़ में रहते हैं। हवेली मिर्ज़ा की ही तरह जर्ज़र होते हुए भी दमख़म से खड़ी है। यदा-कदा उसकी भी दीवारें ढहती रहती हैं ज्यों मिर्ज़ा भी गिरने से पहले अक्सर संभल जाते   हैं। बांके  (आयुष्मान खुराना

कोई नेता है देश में

लोग महामारी में  सांस वेंटीलेटर में  लोकतंत्र बाड़ों में  अर्थतंत्र गर्त में  समाज दर्द में  चीन सरहद में   नेपाल नक़्शे में .. कोई नेता है देश में ??

फ़त्तो के मिर्ज़ा में न ग़ुलाब हैं न सितारे

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  फत्तो 95, माफ़ कीजियेगा गुलाबो सिताबो का ये नाम ज़्यादा मुफ़ीद होता। क्लाइमेक्स में केक पर लिखे यही शब्द होठों पर मुस्कान ला देते हैं। कहना मुश्किल है कि इस कठिन कोरोना काल में इतने बड़े सितारों की इस फ़िल्म को छोटी-छोटी स्क्रीन पर डिजिटल रिलीज़ करना डायरेक्टर और कलाकारों को कैसा लगा होगा। बतौर दर्शक हम अपनी बात करें तो सिनेमा हॉल में देखने के बाद छोटे पर्दे पर फ़िल्म दोबारा देखने में तो आनंद आता है लेकिन गुलाबो  सिताबो   को देखने के बाद थिएटर में दोबारा जाएंगे  या  नहीं तो इसका जवाब ना ही होगा। अमिताभ बच्चन ने शूजित सरकार की गुलाबो   सि ताबो में झंडे गाड़ दिए हैं। मिर्ज़ा के  इस लालची क़िरदार में वे इस क़दर लालची पाए गए हैं कि कोई भी मिसाल कम होगी। जनाब अपनी ही हवेली का क़ीमती सामान कौड़ियों के दाम में बेचते जाते हैं।  फ़ातिमा महल लखनऊ की बड़ी-सी हवेली का नाम है जिसमें कई किराएदार मामूली से किराए के एवज़ में रहते हैं। हवेली मिर्ज़ा की ही तरह जर्ज़र होते हुए भी दमख़म से खड़ी है। यदा-कदा उसकी भी दीवारें ढहती रहती हैं ज्यों मिर्ज़ा भी गिरने से पहले अक्सर संभल जाते   हैं। बांके (आयुष्मान खुराना) आ

तीन शहर तीन मरीज़ और कोरोना

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कोविड-19 वायरस से जूझते हुए भारत को लगभग चार महीने बीत चुके हैं। हममें से कई जो अब तक न्यूज़ सुनकर ही परेशान और दुखी हो रहे थे अब उन्हें भी अपने परिचितों यां परिजनों के लिए कोरोना से टकराना पड़ रहा है। वे सब हालात से  परेशान और दुखी हैं।  आज आपसे  साझा हैं तीन शहरों के  तीन परिजनों से जुड़े  अपने  अनुभव। शहर अहमदाबाद मरीज़ अपनी बहूरानी को ऑफिस ड्रॉप करते  और लौट आते यानी उनकी जीवनचर्या केवल घर तक सीमित नहीं थी। बिलकुल स्वस्थ। उम्र अट्ठावन-साठ के आसपास। एक दिन खांसी और बुख़ार के लक्षण सामने आए ,फिर सांस लेने में तकलीफ़ हुई। सब मान के चल रहे थे कि यह  कोरोना का ही संक्रमण है लेकिन रिपोर्ट नेगेटिव। फिर एक दिन सब ख़त्म। अस्पताल से देह भी ऐसी सील मिली जैसे खोली गई तो कोरोना देकर ही रुख़सत होगी।  शहर जयपुर  मरीज़ को हार्ट, शुगर की तकलीफ़ पहले ही थी। तबियत बिगड़ने पर अजमेर के अस्पताल ने जयपुर रैफ़र कर दिया। जयपुर के निजी अस्पताल ने मरीज़ को बाहर से  ही  सरकारी अस्पताल SMS  सवाई मानसिंह चिकित्सालय  रै फ़र  कर दिया जहाँ पहुँचते ही उनकी मृत्यु हो गई। कहा गया बॉडी तो कोरोना टेस्ट के बाद ही मिलेगी। नमूना ल

थप्पड़ में प्यार, हक़ ढूँढ़नेवालो

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प्यार से समझाती है थप्पड़ उन लोगों को जिन्हें इसमें  खामखां का प्यार और हक़ नज़र आता है।  थप्पड़ रिलीज़ हुए एक सप्ताह बीत चुका है और फ़िल्म  अपने चाहनवालों और क्रिटिक्स से  थपकियाँ और सिसकियाँ  भी पा चुकी है।  मुझे जो क़िरदार क़रीब लगा वह दीया मिर्ज़ा का है। वह ऐसी स्त्री है जो अपने प्रेम को खो चुकी है लेकिन  ख़ुश है अपनी बिटिया और अपने काम के साथ।  क्योंकि उसने जो पाया है वह इतना भरपूर है कि कोई तमन्ना अब  बाक़ी नहीं रही। वह कहती भी है उसके साथ सबकुछ एफर्टलेस था। लेकिन आम भारतीय स्त्रियां जानती हैं कि उनकी पूरी गृहस्थी  उन्हीं के एफर्ट्स पर टिकी हुई है जिसमें थप्पड़ ,जबरदस्ती, उनका कॅरिअर छोड़ना सब सामान्य  है। अमृता एक ख़ुशहाल ज़िन्दगी जी रही है। होममेकर है। परिवार के लिए पूरी तरह समर्पित। एक पार्टी में उसके पति विक्रम का झगड़ा अपने सीनियर्स से होता है और अमृता इस झगड़े को रोकना चाहती है। इसी तना-तनी में वह अमृता को थप्पड़ मार देता है। उस समय लगता है जैसे वही उसके लिए सबसे सॉफ्ट टारगेट थी अपना ग़ुस्सा जताने के लिए। अमृता सकते में थी जो बाद में सदमे में बदल जाता है । पति को सॉरी बोलना भी ज़रूरी

इस लोकतन्त्र को संसद की ज़रुरत नहीं है

इस लोकतन्त्र को संसद की ज़रुरत नहीं है जो होती तो दिल्ली की क्रूर हिंसा के बाद इसके दरवाज़े यूं बंद न होते। कोई कैसे इस ख़ूनी खेल के बाद यूं चुप्पी ओढ़ सकता है ?  होली के बाद बात करने का दुस्साहस कर सकता है ? क्या जनप्रतिनिधियों को एक बार भी यह ख़याल नहीं आया होगा कि हम इस कठिन समय में तकलीफ़ से गुज़र रही दिल्ली के जख्मों पर मरहम रख सकें। एक ऐसा भाव दुखी अवाम के सामने आए जो बता सके कि हमें उनकी चिंता है, परवाह है। यह लापरवाही आख़िर क्यों की जा रही है? यह उदासीन रवैया क्यों कि  आपके आंसू होली के बाद पोछेंगे। उनकी आँखों के सामने उनके अपनों को गोली लगी है ,ज़िंदा जलाया गया है। संसद इतने ज़रूरी समय में गैरहाज़िर कैसे हो सकती है ? संसद की देहरी पर माथा लगाने वाले ऐसा कैसे कर सकते हैं। यह ईंट-गारे से बनी इमारत भर नहीं बल्कि हमारे पूर्वजों की उस आस्था की बुलंद इमारत है जो हर हाल में तंत्र को लोकसहमति से चलाना चाहते थे। आज जो दल चुनकर आया है क्या उसे अपने ही सांसदों पर भरोसा नहीं या वह विपक्ष की आवाज़ दबाना चाहता है जो यूं भी अब बहुत कम संख्या में और दबी हुई है।  अब तक 47 निर्दोष दिल्ली की हिंसा में मार

मेरा घाव तेरे घाव से गहरा है

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painting : yvette swan धरती बाँट दी  बाँट दिए इंसान  और फिर  इंसानियत पर लगे  घाव भी बाँट लिए  वाह  घाव बाँट लिए  ग़म बाँट लिए  शायद बचा था आँख का पानी  काश   बचा  होता  ख़ून के दाग़ धोए जाते  ज़ख्म भरे जाते  गले मिल आते  अफ़सोस   इस बार तो  घाव  इम्तेहान में बैठे थे  अव्वल आना था उन्हें  जिसके ज़्यादा गहरे थे  सीना उतना ही तना हुआ था  बखान में ज़ुबां भी  सरपट दौड़ी जाती थी  कैंप  लग गया था  इसे बनाने का बड़ा तजुर्बा है भाई  अपनों को बेघर हम पुश्तों से करते आ रहे थे  मातम   अभ्यस्त था  ग़रीबी से पस्त था  रसद और छत  दोनों के इंतज़ार में था   मिट्टी और आग   में झोंक देने का चलन नया नहीं है  नया है उसे भुनाने  का चलन  उस पर इतराने का चलन  कभी मिट्टी देना  अग्नि देना  सद्भावियों की पहचान थी  सत्ता  सियासत  इन मौतों का  मातम नहीं मनाती  ये तमगे हैं जो गद्दारों को  गोली मरने के बाद उसे  हासिल हुए हैं। 

नहीं परोसा खाने की थाली में भरोसा

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वाक़ई सियासी दखल ने खाने की  थाली में विश्वास नहीं परोसने दिया है। कहा गया है कि प्राचीन हड़प्पन थाली से मांसाहर हटा दिया जाए  फ़र्ज़ कीजिये कि आप किसी प्राचीन देश में किसी प्राचीन शहर को समझने की जुगत में हों  यानी  वहां की संस्कृति, खाना, पहनावा और हो ये कि आपके साथ कुछ फ़र्ज़ीवाड़ा हो जाए। घबराइए नहीं बस इतना कि जो भोजन इतिहास आपसे साझा किया गया है, उसमें कुछ घपला कर दिया जाए। तब आपको कैसा  लगेगा ? क्या आप ठगा सा महसूस करेंगे ? मेरी अपेक्षा तो  होगी कि जो खाना उस काल खंड में, उस सभ्यता में प्रचलित था वही परोसा जाए । यह और बात है की जिस अनाज या शोरबे  को मैं ना खा पाऊं वह मैं ना चुनूं। बहरहाल यह सब हो रहा है उस हड़प्पन संस्कृति के साथ जिसे पुरातत्व के विद्वान पांच हज़ार साल प्राचीन बताते हैं। वह एक विकसित सभ्यता थी और तमाम अनाजों दालों के साथ मांसाहार भी उस सभ्यता के खान-पान में शामिल था। दिल्ली  नेशनल म्यूजियम भी इस सभ्यता के हवाले से उस दौर के खाने को हमारी प्लेट तक पहुंचाना चाहता था। आइडिया   ही कितना दिलचस्प है कि जो थाली हड़प्पन दौर में परोसी जाती थी,उसका स्वाद आज के दौर में भी लिया ज

क्या हैं शाहीन बाग़ की औरतें मदर इंडिया ?

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शाहीन बाग़ न संयोग है न प्रयोग। ये प्रतिक्रियाएं हैं जो CAA और NRC के ख़िलाफ़ निकलकर घर से बाहर आ गई हैं। ये उनकी अपनी मिट्टी से मोहब्बत है जो उन्हें घर की देहरी लांघने  पर  मजबूर कर रही है। उन्हें डर है कि कोई उन्हें अपने वतन से दूर न कर दे इसलिए वे दम साध कर पैर जमा कर बैठीं हैं। कौन हैं ये ,क्या उम्र है इनकी,क्या लिबास हैं यह सवाल इस जज़्बे के आगे बहुत ही गैरमामूली हो जाते हैं।  आप इनसे परेशान होते हैं लेकिन इनकी आशंकाओं के निवारण के लिए क़रीब नहीं जाते। दअसल ये मदर इंडियाएं हैं जो अपने बच्चों को लेकर शाहीन बाग़ आ रही हैं। माएं बच्चों को टहलाने और बहलाने के लिए बाग़ में लाती हैं लेकिन यहाँ मंज़र कुछ और है। एक चार महीने के बच्चे की ठंड से मौत हो गई लेकिन माँ पीछे नहीं हटी फिर लौट आई। वाकई ये मदर इंडिया है। मेरे पिता ने बचपन में हम भाई-बहनों को महबूब ख़ान की  फ़िल्म मदर इंडिया किसी धर्म ग्रंथ की तरह  दिखाई। वो मदर इंडिया जो एक लाचार इंसान की पत्नी ,एक धन्ना सेठ सूखी लाला की नज़रों की शिकार और खेती में लगातार नुक़सान सहने के बावजूद  अपना साहस नहीं खोती, स्वाभिमान नहीं तजती। वह अपने बच्चों के स

deepika's chaapaak from cleavage to jnu

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क़द-काठी में तो दीपिका पादुकोण पसंद थी ही लेकिन अब उनके भीतरी सौंदर्य ने भी मोह लिया है। यूं अपने अवसाद का ज़िक्र करके और क्लीवेज की तस्वीर छापने के दौरान टाइम्स ऑफ़ इंडिया से लोहा लेकर वे ख़ुद को अलग तो बहुत पहले ही साबित कर चुकी हैं। ठीक है कि उनकी फिल्म छपाक 10 जनवरी को थिएटर्स में आ रही है लेकिन JNU आकर अपना स्टैंड रखना उनकी हिम्मत और समझ की दाद मांगता है। उनकी फ़िल्म पद्मावत का ज़िक्र भी लाज़मी होगा क्योंकि उस समय भी गुंडा तत्वों ने तोड़ -फोड़ और आगज़नी की थी। तब भी इस बिरादरी की कोई मुखर आवाज़ सामने नहीं आई थी। जोधा अक़बर, पद्मावत ,पानीपत जैसी कई फ़िल्मों को यूं रोका जाता है जैसे  क़ानून नहीं गुंडों का राज हो। इस दौर में जब कई बिलों में जा घुसे हैं दीपिका का यूं प्रकट होना उनके अलग होने की पहचान ज़ाहिर करता है।  कहा  जा  सकता है  कि उनकी छपाक को जो एक एसिड अटैक  सर्वाइवर  लड़की की जिजीविषा की कहानी है, उसके प्रचार में यह मंच मददगार साबित हो सकता है। ऐसा है तब भी कोई दिक़्क़त नहीं होनी चाहिए। फिल्म तो अजय काजोल की भी उसी दिन आ रही है। छपाक मेघना गुलज़ार की  है और गुलज़ार साहब की भी है। ज़ुल्म के

और रा ज करेगी ख़ल्क़ ए ख़ुदा

शायर या कवि की क़द्र कीजिये , उन्हें प्रेम कीजिये। फ़ैज़ अहमद  'फ़ैज़' बड़े शायर हैं इसलिए नहीं कि उनका लिखा मक़बूल हुआ बल्कि इसलिए कि उन्होंने जो लिखा वह इंसानियत का गीत बन गया। ऐसा कोई चाहकर भी नहीं कर सकता जो कर सकता होता तो आज तंगदिल हुक्मरानों के गीत हरेक की ज़ुबां पर होते। ये शायर अपने वतन से बाहर नहीं फैंके  जाते या वतन के भीतर उनका दूसरा घर हर वक़्त जेल नहीं होता।   मनोहर श्याम जोशी का धारावाहिक हमलोग देखकर जो पीढ़ी बड़ी हुई यह उस शीर्षक गीत को कैसे भूल सकती  है। ये फ़ैज़ की ही नज़्म है।  आइये हाथ उठाएं हम भी हम जिन्हें रस्मे-दुआ याद नहीं  हम जिन्हें सोज़ ए मोहब्बत के सिवा  कोई  बुत  कोई  ख़ुदा  याद नहीं  एक शायर जो सिर्फ़ मोहब्बत का पैग़ाम देता है वह किसी व्यवस्था में यूं अपमानित किया जाए यह किसी भी संस्थान के लिए फ़ख़्र की बात कैसे हो सकती है। फ़ैज़ साहब के इस शेर को देखिये थे कितने अच्छे लोग कि जिनको अपने ग़म से फुर्सत थी  सब पूछे थे अहवाल जो कोई दर्द का मारा गुज़रे था   तीन  शेर उस बेहतरीन ग़ज़ल से जो उन्होंने मांटगोमरी जेल में लिखी  कब याद में तेरा साथ नहीं ,कब हाथ में तेरा हा