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मुझे तो डॉ साहब भीष्म जैसे लगते हैं और सोनिया गाँधी ?

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the accidental prime minister credit you tube  मुझे तो डॉ साहब भीष्म जैसे लगते हैं यह एक नई फिल्म का संवाद है जिसे लेकर कांग्रेस परेशान और भाजपा खुश है। मेरा सवाल केवल इतना है कि एक निर्देशक को कैसा लगता होगा जब उसकी फिल्म दर्शकों की बजाय राजनीतिक की शरण में चली जाए।  बड़ा ही दिलचस्प समय है।  एक फीचर फिल्म के ट्रेलर को एक राजनीतिक दल ने अपने ऑफिशिअल ट्विटर हैंडल पर शेयर किया है कि कैसे एक  राजनीतिक परिवार ने  दस साल तक प्रधानमंत्री की कुर्सी को बंधक बनाए रखा ताकि उसके  उत्तराधिकारी की ताजपोशी हो सके ।  दल ने अपने बयान  के साथ फिल्म का ट्रेलर लिंक भी साझा  किया है। ये राज-प्रतिनिधि थे पूर्व प्रधामंत्री  डॉ मनमोहन सिंह और उत्तराधिकारी राहुल गाँधी। फिल्म का नाम है द  एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर,निर्देशक विजय आर गुट्टे हैं। हम सब जानते हैं मनमोहन  सिंह की भूमिका में अनुपम खेर हैं और फिल्म में अच्छी खासी भूमिका सोनिया गाँधी की भी है जिसे जर्मन कलाकार सुज़ैन बर्नर्ट  ने निभाया है।   राजनीति पर पहले भी कई फ़िल्में बन चुकी हैं लेकिन जिस फिल्म का नाम तुरंत  ध्यान आता है वह है आंधी

जनरल आपसे ऐसी उम्मीद नहीं थी

वाकई हैरानी और दुःख है सेना प्रमुख जनरल बिपिन रावत के बयान पर कि फिलहाल वे भारतीय सेना में महिलाओं को लड़ाई में आगे रखने के स्थिति में नहीं है। वे कहते हैं महिलाएं कहेंगी वे हमें देख रहें हैं और फिर हमें उनके लिए आवरण का इंतज़ाम करना पड़ेगा। माफी चाहेंगे जनरल लेकिन आप उन झाँकने वालों का इंतज़ाम कीजिये , महिलाओं के एतराज़ का नहीं। हो सकता है कुछ व्यावहारिक  परेशानियों हो लड़ाई में लेकिन आप वे शख़्स नहीं होने चाहिए जो ये सब बातें बताएं,आपको यह बताना चाहिए की महिलाएं कैसे  इन चुनौतियों से मुकाबला करें । आपको नए और साहसी तरीकों पर बात करनी चाहिए। आप कैसे पुराने और बने -बनाए ढर्रों पर चलने की बात कर सकते हैं। कौन साठ  साल पहले यह यकीन कर सकता था कि बॉक्सर मैरी कोम ना केवल मर्दों की दुनिया में प्रचलित खेल को अपनाएंगी बल्कि वर्ल्ड चैंपियन भी होंगी। तीन बच्चों की माँ ने साबित किया है कि वह परिवार और प्रोफेशन दोनों मोर्चे बखूबी संभाल सकती हैं। बछिन्द्री पाल का  एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचना भी वैसा ही साहस है। कल्पना चावला का अंतरिक्ष में रहना भी उन लोगों को मुँह तोड़ जवाब है जो स्त्री को केवल बंधी-बंधा

my life is not your porn

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दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में महिलाओं का सबसे बड़ा प्रदर्शन photo getty image   अगर कोई सवाल करे कि तेज़ रफ़्तार तकनीक ने  क्या तकलीफ पहुंचाई है तो क्या जवाब होंगे आपके ? सोच को थोड़ा और तकलीफ़ देते हुए स्त्री के सन्दर्भ में पूछा जाए तब ? वैसे यह इतना भयावह है कि आम कल्पना में  जवाब बनकर आ भी नहीं सकता। इस तकनीक के फरेब और जालसाजी ने स्त्री की निजी दुनिया का हरण  कर लिया है। वह चैजिंग रूम ,सार्वजनिक शौचालयों में  जाने से बचने लगी है। स्विमिंग पूल्स और होटलों के कमरे उसे और भी असुरक्षित लगते हैं। कहां, किधर, किस जासूसी कैमरा ने उसे फोकस कर रखा हो,मालूम नहीं लेकिन इस मालूमात के वजह से कि ऐसा हो रहा है ,वह हमेशा डरी हुई रहती है।  एक लड़की के जीवन को इन जासूसी कैमरा  के डर   ने ऑक्टोपस की भुजाओं सा जकड़ रखा है। ये कैमरा पेन ,जूतों की नोंक, सिगरेट के पैकेट ,पानी की बोतल ,आईने ,चश्मे, टॉयलेट पेपर किसी भी जगह हो सकते हैं। इस तेज तर्रार तकनीक के युग में अपराधी को बस इतना ही करना है  कि वह तस्वीर उतारे और इंटरनेट की दुनिया में उसे प्रसारित कर दे या फिर किसी गिरोह को बेच दे जो इस टुकड़े का

डर से आगे प्रेम है

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दुनिया में केवल दो ही तरह के भाव हैं पहला डर और दूसरा प्रेम। डर आपको दर्दनाक, नफ़रत , विषैले और जीवन को तबाह करनेवाले मोड़ पर छोड़कर आ सकता है जबकि प्रेम ख़ुशी, ख़ूबसूरती और नए क्षितिज की और ले जाने वाली उड़ान का रास्ता दिखाता है। कुछ नहीं यह नन्हीं  तितली यूं ही दरवाज़े पर आ बैठी मुझे अनायास प्रेम और ख़ुशी देने के लिए। ऐसा अक्सर होता है जब मैं अपने ही ख़यालो में गुम होकर उदास या दुखी होती हूँ ऐसे मंज़र मुझे भयमुक्त कर देते हैं। बेशक ये मुझ पर असर करते हैं लेकिन बालकनी में इठलाता कबुतरों का जोड़ा शाम को निश्चित समय पर क़रीब से गुजरने वाले तोतों का झुंड और मुंडेर पर पैनी निगाह लिए बैठा शिकरा। सच कहूँ तो ये मेरा इंतज़ार हैं। कोई कह सकता है कि वक़्त त से पहले बुढ़ाना इसी को कहते हैं लेकिन मुझे लगता है कि जीवन से निग़ाह मिल रही है फिर मेरी। फिर प्रेम हो रहा है। डर छूट रहा है। यही सब तो हुआ था जब तुम मिले थे। सच डर से आगे प्रेम है।

ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के नाम पर ....

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twitter ceo jack dorsey with women journalists and activists    brahmanical patriarchy शब्द चर्चा में है। क्यों और क्या सन्दर्भ हैं इसके और कैसे किसी भी किस्म की पितृसत्ता समाज को कमज़ोर करती है। सबरीमाला के मंदिर में महिलाओं के प्रवेश का विरोध और तीन तलाक का समर्थन क्या महिला महिला में फर्क की बयानी  करते है  ?  ट्वीटर सीईओ से क्या वाकई गलती हो गई ?  ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के नाम पर समाज की चिंता है या मकसद राजनीतिक रिश्ता जोड़ना है क्योंकि उन्होंने तो  तख्ती हाथ में ली है हमारे नेता तो रोज़ ही जातिवादी बयान दे रहे हैं।  स्मैश ब्राह्मणीकल पेट्रिआर्की यानी  ब्राह्मणवादी पितृसत्ता को तोड़ दो।  इस प्लेकार्ड  को ट्वीटर सीईओ जैक डोर्सी  ने क्या थामा भारत में आलोचना का तूफान आ  गया और जवाब देने से बचने के लिए उन्हें विपश्यना शिविर जाना पड़ा। ब्राह्मणवादी पितृसत्ता के बारे में हम भारतवासी आपस में बात कर लेते लेकिन ट्वीटर सीईओ जो खुद एक अमरीकी हैं, को इसमें कूदने की शायद ज़रुरत नहीं थी। वे खुद भले हे परिदृश्य से गायब  गए हों लेकिन भारतीय कूद-कूद कर इस परिदृश्य में दाखिल हो रहे हैं।

घूंघट की आड़ में प्रत्याशी

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यहाँ जो घूंघट की आड़ में नज़र आ रही हैं वे भारतीय जनता पार्टी की प्रत्याशी पूनम कँवर हैं जिन्होंने कल बुधवार को राजस्थान के बीकानेर की कोलायत सीट से पर्चा दाख़िल किया। मुझे निजी तौर पर लगता है कि उनके मतदाताओं को दस बार सोचना चाहिए क्योंकि जो विधायक आँख में आँख डालकर  बात नहीं कर पाएगा वह जनता के हित कैसे साध पाएगा ? प्रत्याशी जब प्रेस वार्ता को सम्बोधित कर रहीं थींतब भी केवल वही घूंघट में  थीं। अच्छी बात यह थी कि उनके साथ स्त्रियों  का हुजूम था। पूनम कोलायत से सात बार विधायक रह चुके कद्दावर भाजपा नेता देवी  सिंह भाटी की पुत्रवधु  हैं। उम्मीद की जानी चाहिए की यह परिवार एक क़दम और आगे बढ़ाते हुए इस परदा प्रथा को भी ख़त्म करेगा। एक सवाल मुझसे भी  पूछा जा सकता है  कि क्या किसी बुर्कानशीं के लिए भी आप यही राय दोहराएंगी ? बेशक पर्देदारी  की ज़रुरत ही क्या है।आँख पर किसी भी  किस्म का  परदा क्योंकर होना चाहिए।  लोकतंत्र  का आधार ही संवाद है और परदा , घूंघट संवाद में बाधा। परदा  नहीं जब कोई ख़ुदा से बन्दों से परदा  करना क्या ...... तस्वीर भास्कर से साभार है 

मैं अपना यह हक़ छोड़ती हूँ।

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जब सर्वोच्च न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने की इजाज़त दे दी है तो ये कौन ताकतें हैं जो ख़ुद को संविधान से ऊपर मानने लगी हैं। तकलीफ़  तो कुछ लोगों को तब भी हुई  होगी  जब    सती प्र था के ख़िलाफ़ क़ानून बना होगा। कुछ देर के लिए मंदिर में स्त्री के प्रवेश को निषेध मानने वालों को सही भी मान लिया जाए तो क्या ये भी मान लिया जाए कि पूजा स्थल भी स्त्री को देह रूप में ही देखते हैं। देह भी वह जो दस से पचास के बीच होती है। पवित्र स्थल के  संचालकों को इनसे  डर लगता है। चलिए आप एक देह हैं आपको भय लग  सकता है लेकिन भगवान अयप्पा को भी आपने उसी श्रेणी में रख दिया? वे ईश्वर हैं। देह उम्र के भेद से परे लेकिन भक्तों ने उन्हें अपने भय से मिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। सृष्टि के चक्र को चलाने वाले मासिक चक्र से भय। आख़िर क्यों डरना चाहिए रजस्वला स्त्री से किसी को भी? वे डरते हैं ,उन्हें दूर रखते हैं ,ये भी मान लेते हैं कि इश्वर को भी वे मंज़ूर नहीं होंगी लेकिन जीवन के धरातल पर इसी उम्र की स्त्री देह ही सर्वाधिक शोषण की भी शिकार है। यौन शोषण की भी। यहां दूरी,परहेज़,अस्पृश्यता सब विलीन हो जाती

सबसे ज़्यादा अनरिपोर्टेड समय

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पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा साहब को याद करते हुए विनोद विट्ठल जी सा आपने जो कविता पुस्तक मुझे भेजी है उसके लिए आपका दिल की गहराइयों से आभार। आभार इसलिए भी कि आपने हमारे समय की बीमार नब्ज़ पर हाथ रख दिया है और उसके बाद इन हाथों ने जो लिखा है वह किसी वैद्य का कलात्मक ब्यौरा ही है। चाहो तो वक़्त रहते इलाज कर लो। कविता से पहले आपने सही लिखा है बाबाओं का बाज़ार है ,धार्मिक उन्माद है, मॉब लिंचिंग है, खाप  पंचायतें हैं, फ्री डाटा है ,व्हाट्सऍप -फेसबुक है ,टीवी के रियलिटी शो हैं ,खबरिया चैनल हैं,खूब सारा प्रकाशन- प्रसारण है लेकिन सबसे ज़्यादा  ज़्यादा अनरिपोर्टेड समय है। एक कवि की वाजिब चिंता कि कागज़ों में दुनिया भर की चिंता की जा रही है लेकिन लुप्त होते जा रहे इंसान की कोई बात नहीं कर रहा। वाकई ये कविताएं इस  अनरिपोर्टेड  समय की चिट्ठियां हैं जिसे हमें संभालना ही चाहिए।  कविता लेटर बॉक्स में विनोद विट्ठल लिखते हैं दर्ज़ करो इसे कि अलीबाबा को बचा लेंगे जेकमा और माइक्रोसॉफ्ट को बिल गेट्स  राम को अमित शाह और बाबर को असदुद्दीन ओवैसी  किलों को राजपूत  और खेतों को जाट  टीम कुक बचा लेने एप्पल

संकल्प और गौरव के झंडाबरदारों में से एक को चुनेगा राजस्थान

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सचिन पायलट कोटा संभाग में जनता के बीच  जयपुर में मुख्यमंत्री राजे पुनर्जीवित द्रव्यवती नदी जनता को सौपतीं हुईं  -सत्ताधारी भाजपा गौरव यात्रा निकाली  तो कांग्रेस संकल्प रैली के साथ मैदान में -वसुंधरा राजे सिंधिया के सामने हैं अशोक गेहलोत और सचिन पायलट -अमित शाह एक पखवाड़े में पांच बार तो राहुल गाँधी तीन बारआ चुके हैं राजस्थान -यहाँ एक बार कांग्रेस और एक बार भाजपा  के जीतने का है चलन -कांग्रेस को एंटी इंकम्बेंसी से है जबरदस्त उम्मीद भाजपा संगठन भरोसे -भाजपा के विज्ञापनों से लदे है अख़बार के  तो कांग्रेस मांग रही जनता से पैसा  -ग्रामीण इलाकों में राफेल या मंदिर कोई मुद्दा नहीं ,शहरों में हो रही इन पर बात  -रोडवेज कर्मचारियों की लंबी हड़ताल से सरकार के खिलाफ है गुस्सा  -आप, बहुजन, समाजवादी और कम्युनिस्ट मिलकर भी बड़ी ताकत नहीं  राजस्थान की 200 विधानसभा सीटों पर चुनाव के लिए तारीख की  घोषणा हो चुकी है। यहां 7 दिसंबर को चुनाव हैं। तारीख़ के साथ जो  ज़ाहिर हो रहा  है वह है बड़े राजनीतिक दलों का जनता को ना समझ पाना । वे अब भी चुनाव लड़ने के पारम्परिक और जातीय गणित में

एक जवां सुबह के आंगन में

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रोज़ सुबह मेरे आसपास एक तेज़ आवाज़ गूंजा करती है .. सफाई करा लो ओ ~ sss ... काँपता शरीर हाथ में फावड़ा ,बगल में पॉलिथीन  की एक थैली। बिला नागा यह आवाज़ कुछ बरसों से सुनाई दे रही है। फावड़ा जो उल्टा पकड़ने पर लाठी का भी काम करता है। सोचती रह जाती हूँ कौन सफाई कराता होगा इनसे ? कोई तो होगा जिनके यहाँ काम करने के लिए रोज़ आती हैं ? बूढ़ा शरीर जो कभी तबीयत बिगड़ गई तो ?  इस कर्मठता को देख हैरान रह जाती हूँ और अपने निकम्मेपन पर शर्मिंदा भी। सुबह में जीवटता घोलती यह आवाज़ कोयल के मधुर गान से कम नहीं मालूम होती । कितने सीधे -सरल और मेहनती भारतीय जीवन का दर्शन यूं ही चलते -फिरते दे जाते हैं लेकिन हम और हमारे हुक्मरान इनकी तकलीफ़ों से बेख़बर झूठ -मूठ के बड़े-बड़े मुद्दों पर अड़े रहते हैं। तुमको सलाम है माँ..  

गली गुलैयां तो नहीं मिली उलझे स्त्री की भूल भुलैया में

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गली गुलैयाँ में मनोज बाजपेई  सोमवार की शाम एक बच्चे और बड़े की जटिल दुनिया में झाँकने का मन था सो मैं बेटे के साथ जयपुर के थिएटर के बाहर खड़ी थी। वेबसाइट पर समय तो दे रखा था लेकिन टिकट बुक न हो सकी।  पहुंचे तो पता लगा गली गुलैयां तो नहीं है, 'स्त्री चलेगी'? उन्होंने पूछा। उनका कहना था कि " गली गुलैयाँ तो चली नहीं ,परफॉर्म ही नहीं कर सकी ,कल संडे के शो में ही पांच लोग आए थे। हम तो स्त्री ही चला रहे  हैं बढ़िया चल रही है।" पहले टिकट खिड़की पर  फिर  आईनॉक्स मैनेजर ने भी यही बात दोहराई। मन कुछ खास तत्पर नहीं था स्त्री के लिए लेकिन सोचा राजकुमार राव की न्यूटन अच्छी लगी थी, स्त्री भी ठीक ही होगी। किशोर बेटे की भी यही राय थी।  फिर तो स्त्री की भूल भुलैया में ऐसे उलझे कि समझ ही नहीं पाए कि डायरेक्टर तंत्र -मंत्र, भूत -प्रेत की इज़्ज़त बढ़ा रहे हैं या स्त्री की। कहीं गहरे झाँकने पर यह भी लगा निर्देशक शान तो स्त्री की ही बढ़ाना चाहते थे लेकिन  'चुड़ैलगिरि' कुछ ज़्यादा हावी हो गई। हमारे समाज में जहाँ अब भी तंत्र-मन्त्र मनुष्य के अवचेतन में डेरा जमाए हुए हैं, वहां से स्त्री के

दल दुविधा में हैं देश का दिल नहीं

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       इन दिनों दो मुद्द्दे ऐसे हैं जिन पर राजनीतिक दल खुलकर सामने नहीं आ पा रहे हैं। न कहते बनता है न ज़ब्त करते। पहला है sc /st अत्याचार निरोधक अधिनियम और दूसरा  LGBTQ से जुड़ी धारा 377 का ग़ैरक़ानूनी हो जाना। ऐसा क्यों है कि इन दोनों ही मुद्द्दों पर जब अवाम सड़कों पर हैं तो राजनीतिक दल घरों में  कैद। जनता बोल रही है लेकिन इनके मुँह में दही जमा है। गर जो वोटों का डर  स्टैंड लेने से  रोक रहा है तो फिर यह कूनीति तो हो सकती  है, राजनीति नहीं। मार्च में दलित सड़कों पर थे और हाल ही ख़ुद को उनसे बेहतर मानने वाले।  दोनों के बीच जो रार   ठनी है वह किसी भी देशभक्त को निराश कर सकती है और यह दुविधा किसकी फैलाई हुई है यह समझना भी कोई मुश्किल नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने की जल्दबाज़ी  में पूरी संसद (और इसे नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता क्योंकि वहां हमारे ही चुने हुए प्रतिनिधि हैं ) थी। कोर्ट ने कहा था कि सरकारी कर्मचारी की गिरफ़्तारी बिना सक्षम अथॉरिटी  की जांच के नहीं हो सकेगी , तुरंत मुकदमा भी दर्ज़ नहीं किया जा सकेगा। इससे संदेश यह गया कि सरकार इस कानून को अब कमज़ोर करने का मन बना चुकी है। 

कर बिस्मिल्लाह खोल दी मैंने चालीस गांठें

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सारा शगुफ़्ता 1954 -1984  अमृता प्रीतम 1919 -2005  सारा शगुफ़्ता अमृता प्रीतम को पढ़ते हुए कौन होगा जो घूँट चांदनी के ज़ायके से बच सकेगा। ऐसे लेखक का होना ही सादगी का होना है ,सच का होना है। हाल ही जब उनकी लिखी एक थी सारा पढ़ी तो सर ख़ुद ब ख़ुद सजदे में हो आया। एक थी सारा दो स्त्रियों से मुकम्मल होती है ।  पाकिस्तान की अज़ीम मगर बैचैन शायरा सारा शगुफ़्ता और हिन्दुस्तान की अदीब अमृता प्रीतम जिन्होंने अपनी आत्मकथा को रसीदी टिकट का नाम देकर  विनम्रता की नई परिभाषा ही गढ़ दी थी । सारा अमृता दोनों ही इस फ़ानी दुनिया  में नहीं है लेकिन दोनों की दोस्ती समझ का वह सेतु  बनाती है कि सरहद की परिकल्पना ही बेमायने लगने लगती है।  तमाम फ़ासलों के बावजूद,अदब क़ायदे की दुनिया के ये दो बड़े दस्तख़त  इस सूबे में स्त्री के हालात पर जो ख़त लिखते हैं, वह दस्तावेज़ हो जाते हैं दर्द और दवा की असरदार जुगलबंदी का । सारा की शायरी और ज़िन्दगी की दर्दभरी दास्तां 'एक थी सारा' में उन्हीं के ख़तों और नज़्मों के ज़रिये बयां हुई है जो सारा ने अमृता को लिखे हैं। अमृता लिखती हैं -एक वक़्त था जब पंजाब में सांदलबार के इला

वे क़द्दावर नेता और मैं शिशु पत्रकार

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रार  नई ठानूंगा atal bihari vajpayee:1924-2018 वे  कद्दावर नेता और मैं शिशु पत्रकार। अटलजी से मई 1996 में गांधीनगर गुजरात में हुई मुलाक़ात का यही सार है। तब मैं दैनिक भास्कर इंदौर में रिपोर्टर थी। अख़बार ने अपने चुनिंदा रिपोर्टर्स को 1996 के लोकसभा चुनाव कवरेज  के लिए देश के कौने-कौने में भेजा था। मुझे गुजरात की ज़िम्मेदारी दी  गई । चूंकि मेरा ननिहाल गुजरात  में था और छुट्टियों का बड़ा हिस्सा बिलिमोरा ,गणदेवी में बीतने से गुजराती भाषा पढ़नी और कुछ हद तक बोलनी भी आ गई थी।  संयोग ऐसा बना कि इस यात्रा में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री सुरेशभाई मेहता ,केशु भाई पटेल , बाग़ी नेता शंकर सिंह वाघेला, गुजरात प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष  सब से  मुलाकात होती चली गई। सुरेशभाई मेहता तो बिलिमोरा ही आए हुए थे। अटलजी से मुलाक़ात तो जैसे एक रिपोर्टर का ख़्वाब पूरा होने  जैसी थी और वहीं  देश के वर्तमान प्रधानमंत्री से भी मिलना हुआ था। बहरहाल वह गांधीनगर का सर्किट हाउस था जहाँ अटल बिहारी वाजपेई साहब से मिलना था। सुबह का वक़्त   था। धड़कने हाथ से ज़ाहिर हो रही थीं। क़लम और क़ाग़ज़ जुड़ नहीं रहे थे। सर्किट हाउस साफ़ -सु

बेहतरीन है मुल्क

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वाकई बेहतरीन है मुल्क। उतनी ही जितना अपना मुल्क। कुछ महीनों से लग रहा था जैसे मुल्क में कुछ अच्छा नहीं हो रहा है। जैसे कोई बुरी नज़र ,कोई बुरा साया ,कोई नर पिशाच धीरे-धीरे किसी ज़िंदगी को लीलता है , मुल्क पर भी कोई ऐसा ही संकट मालूम होता। कौन मानता है इस दौर  में बुरी नज़र या काले साए  को ,मैं भी नहीं लेकिन जब इलाज नामालूम  हो तो मर्ज़ को ऐसे ही नाम दे दिए जाते हैं। बेचैनी यूं ही हावी होती रही  कि ऐसा क्या  फ़र्ज़ अदा हो कि मर्ज़  क़ाबू  किया जा सके। जब मुल्क देखी तो  लगा जैसे बेहतर सोचने वाले सृजनशील लोग भी हैं जो अपने सृजन से  दिलों पर जमीं गर्द मिटा रहे  हैं। खुद पर शर्म भी आई कि ऐसे कही जाती है बात। चुप पड़े रहना तो लकवा मार जाना  है।      अनुभव सिन्हा ने इस फिल्म के ज़रिये गहरा अनुभव सिद्ध किया है हालाँकि उनकी तुम बिन, रा-वन ,दस नहीं देखीं हैं। मुल्क दरअसल एक आवाज़ है जो देशभक्ति को परिभाषित करने की  राह में देशगान करती हुई लगती है और आज के कटीले हालात की जड़ों पर प्रहार भी करती है । मसलन एक मुसलमान अफसर को लगता है कि मुसलमान आतंकवादी को एनकाउंटर में ख़त्म करके ही कौम को सबक दिया जा सकता