दल दुविधा में हैं देश का दिल नहीं


       इन दिनों दो मुद्द्दे ऐसे हैं जिन पर राजनीतिक दल खुलकर सामने नहीं आ पा रहे हैं। न कहते बनता है न ज़ब्त करते। पहला है sc /st अत्याचार निरोधक अधिनियम और दूसरा  LGBTQ से जुड़ी धारा 377 का ग़ैरक़ानूनी हो जाना। ऐसा क्यों है कि इन दोनों ही मुद्द्दों पर जब अवाम सड़कों पर हैं तो राजनीतिक दल घरों में  कैद। जनता बोल रही है लेकिन इनके मुँह में दही जमा है। गर जो वोटों का डर  स्टैंड लेने से  रोक रहा है तो फिर यह कूनीति तो हो सकती  है, राजनीति नहीं। मार्च में दलित सड़कों पर थे और हाल ही ख़ुद को उनसे बेहतर मानने वाले।  दोनों के बीच जो रार   ठनी है वह किसी भी देशभक्त को निराश कर सकती है और यह दुविधा किसकी फैलाई हुई है यह समझना भी कोई मुश्किल नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने की जल्दबाज़ी  में पूरी संसद (और इसे नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता क्योंकि वहां हमारे ही चुने हुए प्रतिनिधि हैं ) थी। कोर्ट ने कहा था कि सरकारी कर्मचारी की गिरफ़्तारी बिना सक्षम अथॉरिटी  की जांच के नहीं हो सकेगी , तुरंत मुकदमा भी दर्ज़ नहीं किया जा सकेगा। इससे संदेश यह गया कि सरकार इस कानून को अब कमज़ोर करने का मन बना चुकी है।  नया संदेश देने के लिए सरकार ने तुरंत इस फैसले को पलटा और अपना मत ज़ाहिर किया। इस मत से दूसरा पक्ष नाराज़ हो गया और सड़कों पर उतरा। अब इसे कौन समर्थन दे रहा है कौन नहीं, यह बात दलों की समझ में अब तक नहीं आयी है। यानी वे ख़ुद ही कंफ्यूज हैं और वही उन्होंने अवाम के साथ भी किया है। 

बात LGBTQ के अधिकारों की। फ़ैसले  के बारे में जस्टिस इंदू मल्होत्रा की टिप्पणी किस क़दर  संजीदा मालूम होती है जब वे कहती हैं कि इतिहास को इनसे और इनके परिवार से माफ़ी मांगनी चाहिए क्योंकि जो कलंक और निष्कासन इन्होंने सदियों  से  भुगता है उसकी कोई भरपाई नहीं है।  आज के इंडियन एक्सप्रेस  में प्रकाशित यह कार्टून देखिये जिसमें LGBTQ बिरादरी का सदस्य सुप्रीम कोर्ट की ओर देख कह रहा है    वह निवास है लेकिन आज यहाँ  मुझे  घर -जैसा  लग रहा  है।





       वाकई बड़े गहरे और व्यापक अर्थ हैं 377 को हटाने के। इस धारा की विदाई  इंसान के बुनियादी हक़ को तो बहाल  कर ही  रही है  साथ ही उसकी आज़ादी और सबकी बराबरी भी सुनिश्चित कर रही है । प्रेम और निजता को सर्वोच्च माना है सर्वोच्च न्यायलय ने। यह मनुष्य का बुनियादी हक़ है कि वह कैसे  ज़ाहिर हो अपने निजी पलों में। कोई क़ानून महज़ इसलिए उसे सलाखों के पीछे कैसे डाल सकता है? और जो बात हमारी सभ्यता और संस्कृति की करें तो उसने कभी भी यौन रुझान के कारण किसी को दंड का भागीदार नहीं माना था। दरअसल हम खुद अपनी असलियत से परे इस विक्टोरियन कानून को 128 साल से गले लगाए हुए थे । आपको जानकर हैरानी होगी कि ख़ुद अंग्रेज़ी हुकूमत को अपने देश के कानून से भारत में इसे उदार बनाना  पड़ा था। 
जहाँ तक बात वर्तमान सरकार की है, वह यहाँ भी दुविधा में ही दिखाई देती है। उनके कई बयान हैं जो धारा 377 का समर्थन करते हैं  लेकिन समय की आहट को  समझते हुए उन्हें यह कहना पड़ा कि जो सुप्रीम कोर्ट कहेगा, हमें मान्य होगा।  उम्मीद है कि यहाँ पलटने की कोई मंशा सरकार की नहीं है। 
            दरअसल  दोनों ही मसलों पर अब समाज को ही संवेदनशील होना होगा। दमन की शिकार जातियां भी यही अपेक्षा करती हैं और LGBTQ (Q यानी क्वीर का ताल्लुक अजीब,अनूठे, विचित्र रिश्तों से हैं ) समुदाय भी।  प्रेम और सद्भावना  से ही दोनों को देखे जाने की ज़रुरत है। तमाम जातियों को भी और जातिगत रिश्तों को भी। आक्रामक हो जाने से हम समाज का अहित ही करेंगे और सच कहूं तो आक्रामक हो जाने जैसी कोई आशंका भी नहीं है। दल दुविधा में हो सकते हैं ,देश का दिल नहीं।  
the rainbow nation                                   photo credit  -ndtv 




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