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जुलाई, 2015 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

महाभारत में कौन है चाचा कलाम को प्रिय

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 मेरी पीढ़ी ने महात्मा गांधी को नहीं देखा, शास्त्री को नहीं देखा केवल सुना था कि उनके एक आह्वान पर देश उस दिशा में चल देता था। जिन्हें देखा वे थे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम। उनकी बात मानने का मन करता था। उनसे वादे करने का जी चाहता था। उनके साथ शपथ लेने को दिल करता था। इस साल जब जनवरी माह में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में पधारे तो वहां का जर्रा-जर्रा कलाम-कलाम पुकार रहा था। सारे रास्ते वहीँ जा रहे थे जहाँ वे बोलने वाले थे।  हजारों बच्चों ने उनके साथ शपथ ली कि वे जिसे भी वोट देंगे उससे पहले उसके काम की गणना करेंगे। उन्होंने वहां मौजूद सबसे दोहराने के लिए कहा कि यदि दिल में सुंदर चरित्र बसता है तो घर में सौहार्द्र होता है और जो घर में साौहाद्र्र होता है तो देश व्यवस्थित होता है और जब देश व्यवस्थित होता है तो दुनिया में शांति स्थापित होती है।   लेकिन हमने ये क्या किया देश के सबसे कर्मठ व्यक्ति के देह त्यागते ही स्कूलों में छुट्टी घोषित कर दी। सोमवार रात ही बच्चों के स्कू ल से मोबाइल पर मैसेज आ गया कि पूर्व राष्ट्रपति के दुखद निधन पर स्कूल में अगले दिन अवकाश रहेगा और परीक्षा उसके अगले दिन होगी

मंटो से विजयेंद्र तक हम

मंटो ने  बंटवारे का जो दर्द कहानी टोबाटेक सिंह में लिखा वह खुशवंत सिंह के उपन्यास ट्रेन  टू पाकिस्तान से अलग था। ये दर्द इन दोनों ने जिया था।  आज के लेखक वी. विजयेंद्र प्रसाद हैं  और वे बजरंगी भाईजान रचते हैं। यह आज के समय की ज़रूरत है। हमारे बच्चे भारत के साथ जिस एक और मुल्क का नाम लेते हुए बड़े होते हैं वह है पाकिस्तान। अखबार की सुर्खियां पढ़ते हुए, टीवी पर बहस देखते हुए उन्हें समझ में आ जाता है कि यह दुश्मन मुल्क केवल हमारे देश का अमन-चैन बर्बाद करने के लिए बना है। यह एक ऐसा देश है जिसकी ओर हमारी तमाम मिसाइलों का रुख होना चाहिए। हमारे जन्नत से खूबसूरत कश्मीर में इन्होंने ही तबाही मचा रखी है और सरहद पर ये आए दिन गोलीबारी करते रहते हैं। बच्चे ये भी जानते हैं कि क्रिकेट के मैदान में हमें पाकिस्तान को हराकर जितनी खुशी मिलती है उतनी इंग्लैंड को परास्त कर नहीं मिलती। उन्होंने हिंदुस्तान के एथलीट मिल्खा सिंह की ओलंपिक्स में हार के लिए बंटवारे को जिम्मेदार ठहराने वाली फिल्म भाग मिल्खा भाग देखी और पसंद की है। उनके जेहन में पाकिस्तान के लिए नफरत है। उतनी नहीं जितनी बंटवारे के आसपास जन्मी

क्यों कोई स्त्री नहीं बनती FTII की अध्यक्ष

  गजेंद्र चौहान विवाद को छोड़कर किसी महिला को एफटीआईआई का अध्यक्ष बना देना चाहिए जो आज तक नहीं बनी। कई हैं जो इस पद के काबिल हैं। युधिष्ठिर ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनके नाम पर यूं महाभारत छिड़ेगी। कौरव-पांडव यूं बंट जाएंगे। जाहिर है जो उनके पक्ष में होगा वो उन्हें पांडव लगेगा और उनका विरोधी कौरव। उनके लिहाज से कौरवों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। दरअसल, फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट््यूट जो पुणे में है उनके सभी पूर्व अध्यक्षों का प्रोफाइल बेहद गंभीर और शानदार रहा है। आरके लक्ष्मण (1970-1980) श्याम बेनेगल 1981-83) मृणाल सेन (1984-86) अडूर गोपालकृष्णन 1987-89) महेश भट्ट (1995-97) गिरीश कर्नाड (1999-2001) और यूआर अनंतमूर्ति (2008 -2011  )  जैसे दिग्गजों  के आगे गजेंद्र चौहान का कद छोटा मालूम होता है। एक समय विनोद खन्ना भी अध्यक्ष रहे। बेशक टीवी धारावाहिक रामायण में वे पांडवों के सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर की भूमिका में थे लेकिन मुंबई फिल्म उद्योग को यह नाकाफी लग रहा है। वे रहे होंगे युधिष्ठिर की भूमिका में लोकप्रिय लेकिन इंस्टीट्यूट को चलाने के लिए यह काफी नहीं है। ऐसा कहते हुए इंडस्ट

दुष्कर्मी को ही पति बना देने वाले वैवाहिक दुष्कर्म को कैसे मानेंगे अपराध

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जब हम दुष्कर्मी को ही पति बना देने का मानस रखते हैं तो हम शादी के बाद वैवाहिक दुष्कर्म को कैसे अपराध ठहरा सकते हैं।   रसिक मोहन को साची पसंद थी। वो उसका खूब पीछा करता। छेडऩे की हद तक। फोन, मैसेजेस रसिक मोहन ने कोई जरिया नहीं छोड़ा था साची को परेशान करने का। साची कई बार उसे लताड़ चुकी थी, झिड़क चुकी थी लेकिन रसिक मोहन हरकतों से बाज नहीं आया। चूंकि साची की जरा भी रुचि रसिक मोहन में नहीं थी, उसने सारी बात अपनी मां को बताई। साची की मां कुछ सोचती इससे पहले एक प्रतिष्ठित जरिए से साची के लिए रिश्ता आया। यह रसिक मोहन की तरफ से था। मां-बेटी दोनों हैरान-परेशान थे लेकिन पिता की राय थी कि परिवार अपनी बिरादरी का है, आर्थिक हैसियत भी अच्छी है, हमें इसे मंजूर कर लेना चाहिए। मां चाहकर भी ये नहीं कह पाई कि यह लड़का साची को काफी समय से परेशान कर रहा है और यह साची को नापसंद है। शादी हो गई और रसिक मोहन ने बड़े गर्व से साची को बताया कि उसे बहुत अच्छा लगा जब साची ने उसके प्रणय निवेदन को ठुकरा दिया था। साची ने समझ लिया था कि यह रसिक मोहन का लड़कियों की शुचिता परखने का उपक्रम था। हालंांंकि अब साची उस बा

छोड़ गईं छुट्टियां

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 छुट्टियां साथ छोड़ गई हैं बच्चे फिर स्कूल जा रहे हैं। वो बेफिक्री, वो मस्ती घर में छूट गई है। उनकी चीजों का जो पसारा घर के कमरों में फैला रहता था वह अब अलमारी में दुबका दिया जाएगा। वे फिर एक कसी हुई जिंदगी के पीछे कर दिए जाएंगे। जुलाई की पहली तारीख को घर लौटे बच्चों से जब भी पूछा कि क्या मैम ने आपसे आपकी छुट्टियों के बारे में बात की, बच्चों का जवाब ना होता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बच्चे जो अपने नाना-नानी के यहां या किसी दूसरे शहर या किसी पहाड़ पर गए हैं, उनसे उनके अनुभव साझा किए जाएं। उनसे पूछा जाए कि उन्होंने क्या महसूस किया। पूरी कक्षा के लिए ये यात्रा संस्मरण किसी बड़ी किताब को सुनाने वाले होंगे। बच्चे बोलने-सुनने की कला में प्रवीण होंगे। किसी बच्चे ने अगर किसी नए खेल या कला को सीखा है वह भी मैम को मालूम होगा। किसी कार्यक्रम या आयोजन में मैम उनकी प्रतिभा को शामिल कर सकती हैं। पहले दिन स्कूल से घर लौटे बच्चों से अगर किसी भी कक्षा में ऐसी सृजनशील बातचीत हुई है तो मान लीजिएगा कि वह स्कूल केवल प्रतिस्पर्धा के लिए घोड़े तैयार नहीं कर रहा है बल्कि उसका मकसद बच्चों के संपूर्ण विकास से ह