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है कोई 'आधार' मतदाता सूची को जोड़ने का

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 पिछले चार माह से बेटे को  कह रही थी तुम अठारह के हो चुके हो अपना नाम मतदाता सूची में जुड़वा लो लेकिन वह टाल रहा था। हाल ही जब नए मतदाताओं  को जोड़ने का संदेश फ़ोन पर आया तो मैंने उसे फिर याद दिलाया वह तपाक से बोला -"मां आधार है न अब क्या " जरूरत है वोटर आईडी की उसी से हो जाएगा मतदान।" मैं उसका चेहरा देखती रह गई कि ये दोनों अलग-अलग पहचान हैं कि एक से तुम्हारी नागरिकता, तुम्हारी उम्र, तुम्हारा अधिकार प्रमाणित होता है जो संवैधानिक इकाई प्रदान करती है  तो दूसरी ओर आधार सरकारी योजनाओं का अधिकाधिक लाभ आमजन तक कैसे पहुंचे उसके लिए दी गई पहचान है। बेशक यह उस दोहराव से बचाव करती है कि कोई एकाधिक बार इन योजनाओं का लाभ न ले ले लेकिन चुनाव में इसका इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट के उस टिप्पणी का भी उल्लंघन है जिसमें आधार को निजता का हनन मानते हुए अनिवार्य नहीं किया जाना था । उसका स्वाभाविक सवाल था कि फिर यहां इसकी ज़रुरत क्या है और जो ज़रुरत है तो फिर इसी से पूरा मतदान क्यों नहीं ? बहरहाल बीते सोमवार को लोकसभा और मंगलवार को राज्यसभा में चुनाव कानून संशोधन विधेयक 2021 भारी शोरगुल और विरोध के बीच

डॉक्टर कोटनिस के देश में अस्पताल से डरते मरीज

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   पवित्र पेशे से जुड़े ये अनुभव महज दो शहरों और दो अस्पतालों के नहीं हैं बल्कि भारत के हर शहर में हर किसी के हो सकते हैं।अस्पताल  मॉडर्न मेडिकल साइंस के  केंद्र हैं लेकिन यहां जाने  से पहले मनुष्य डरने लगा है उसका विश्वास डगमगाने लगा  है। ऐसा उस देश में हैं जहाँ के एक डॉक्टर द्वारकानाथ शांताराम कोटनिस ने दूसरे देश में सेवाएं देते हुए अपनी जान कुरबान कर दी थी। आखिर क्या है जो इस पेशे को यूं भरोसा खो देने की कगार पर ले आया ? अपनी बात रखने से पहले यह डिस्क्लेमर ज़रूरी है कि कई चिकित्सक ऐसे हैं जो इस पेशे की आबरू भी बचाए हुए हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ये अच्छे डॉक्टर भी बाजार के दबाव में कसमसा रहे हैं लेकिन कोई चारा न देखक कुव्यवस्था के चक्रव्यूह में घिर गए हों  करीब महीना हुआ होगा घर की बालकनी से चमकता हुआ बड़ा -सा साइन बोर्ड  दिखाई दिया निविक हॉस्पिटल। तसल्ली हुई कि चलो एक अस्पताल घर के पास ही हो गया। यह शुक्रवार सुबह की बात है बेटे का कॉल आया कि उसका एक्सिडेंट हो गया है एक अंधे मोड़ पर कार ने उसे टक्कर मारकर गिरा दिया। कारवाले ने उसी कॉल पर  दबाव बनाया कि आपके बेटे कि गलती है आप मेरे नुकसान

दो जासूस करें महसूस कि दुनिया बड़ी खराब है

 लाख छुपाओ छुप न सकेगा राज हो कितना गहरा ... दिल की बात बता देता है असली नकली चेहरा.. हिंदी फिल्म असली नकली के लिए हसरत जयपुरी साहब का लिखा  यह गीत जासूसी कांड पर मौजूं है। चेहरे आप सत्ता पक्ष के देख लीजिये,फक्क पड़े हैं  और शेष आबादी का चेहरा तो अब फ़ोन ही हो गया है उसे भांपने के लिए फोन हैकिंग करा लीजिये। क्रोनोलॉजी समझिये । पहले एक्टिविस्टों, पत्रकारों के कंप्यूटर की हैकिंग,उन पर देशद्रोह के मुकदमें और अब पैगसस का प्रोजेक्ट जासूसी। किसको रुचि हो सकती है इस जासूसी में ?किसे अपने खिलाफ उठी हर आवाज नागवार है?किसने अपना काम करते हुए पत्रकारों को जेल में डाला है। केरल के सिद्दीक कप्पन ,हरियाणा के मनदीप पूनिया और मणिपुर के पत्रकार की सामान्य ख़बरों पर किसे मिर्च लग रही थी  ? क्रोनोलॉजी तो जनता को समझनी है कि इन सबसे देश को दुनिया में कौन बदनाम कर रहा है। हर बात में विदेशी साजिश का हवाला अब न्यू नॉर्मल है। क्या परेशानी है जो इस जासूसी की परतें मानसून सत्र से पहले खुलीं? दूध और पानी का फर्क हो ही जाएगा।कोई क्यों डरता है यहां बात करने से?  असहमति की आवाज दबाना भी अब न्यू नॉर्मल बनता जा रहा है।म

जो मंटो आज होते इस कोविड 'काल' में क्या लिखते

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 बेहतरीन कहानीकार सआदत हसन 'मंटो ' आज जो ज़िंदा होते 110 साल के होते।आज उनका जन्मदिन है।  बंटवारे पर लिखे उनके अफ़साने इंसानी हृदय को चीर कर रख देते हैं ,मनुष्य को ऐसा आईना दिखाते हैं कि फिर वह आंख नीची करने पर मजबूर हो जाता है। उनकी कहानियां टोबाटेक सिंह ,खोल दो, ठंडा गोश्त,काली शलवार  आम इंसान के जजबात को झिंझोड़  कर रख देती है तो सियासत और दुनिया पर राज करते रहने का सपना देखने वालों का खूनी पंजा भी दिखाती हैं। सवाल ये उठता है कि आज जब अस्पताल बेबस और सियासत अपने राज को कायम रखने के लिए सारी हदें पर कर रही हो तब मंटो क्या लिखते। क्या लिखते वे जब इंसान को एक कुत्ते की तरह सड़क पर फैला दूध चाटते देखते ?  बीमार को एक-एक सांस के लिए यूं  गिड़गिड़ाते हुए देखते? पार्थिव देव को अंतिम संसार के लिए कतार में देखते ? एक गरीब की ज़िन्दगी जो लॉकडाउन ने महामारी से पहले ही घोंट दी है इस समय बीसवीं सदी का यह लेखक इक्कीसवीं सदी में क्या लिखता ?  शायद वह लिखता कि व्यवस्था आज खुद की नाकामी को छिपाने के लिए लोगों को घर के भीतर कैद कर चुकी है ,उसके पास अस्पताल नहीं है इसलिए उसने तालाबंदी का सस्ता रास्ता

यह पेंडेमिक नहीं इन्फोडेमिक है

 यह पेंडेमिक नहीं इन्फोडेमिक है। यह  ज़्यादा नुकसान कर रहा है। महामारी को सूचनामारी क्यों बनाया जा रहा है ? हम संकट से विध्वंस की ओर कूच कर गए हैं। ऐसा कोविड -19 की वजह से हो रहा है। क्या सचमुच इस विध्वंस का सारा दोष इस वायरस पर ही मढ़ दिया जाना चाहिए ? अगर जो यह कोढ़ है तो सूचना तंत्र की बाढ़ और अव्यवस्था ने इसमें खाज का काम नहीं  किया है? खौफ ऐसा है कि कोविड जान ले इससे पहले हम फंदों पर झूल रहे हैं ,पटरियों पर लेट रहे हैं ,छत से कूद रहे हैं। अपनों को ख़त्म भी कर रहे हैं। बीते रविवार को राजस्थान के कोटा जिले में दादा-दादी इसलिए ट्रैन के नीचे आ गए क्योंकि उन्हें डर था कि उनका पोता भी कोरोना संक्रमित न हो जाए। उनकी रिपोर्ट कोरोना पॉजेटिव आई थी। दोनों ने अपने पोते को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। इस वायरस का व्यवहार देखा जाए तो तथ्य यही है कि यह बच्चों को कम प्रभावित करता है और जो बच्चे संक्रमित हो भी जाएं तो यह उनके लिए जानलेवा नहीं है। कोरोना के  डर और व्यवस्था से  उपजी निराशा ने लोगों को कोरोना से पहले ही अपनी जान लेने पर मजबूर कर दिया है। सोचकर ही रूह कांपती है कि महामारी से पहले ह

ये जो सिस्टम है

 सात साल पहले भारत वर्ष की पवित्र संसद की देहरी पर जब उस लोकप्रिय शख्स ने शीश नवाया था तो लगा था ,देश को उसका नेता मिल  गया है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक समान और संवेदनशील निगाह रखेगा। अतीत के कुछ संदेह थे भी तो भोले-भाले मतदाताओं ने ताक पर रख दिए और आस भरी नज़र से  नेता की ओर देखने लगे। फिर देश ने देखा मॉब लिंचिंग यानी भीड़ जब घेरकर किसी को मार दे तो व्यवस्था का मौन ,नागरिकता कानून के खिलाफ जब महिलाएं शाहीन बाग़ में विरोध प्रकट करें तो व्यवस्था ने संवेदना की बजाय उन्हें खदेड़ने में दिलचस्पी ,यहां तक की व्यवस्था ने राजधानी के एक हिस्से को दंगे की भेंट चढ़ जाने का मंज़र भी आँख मूंद कर  देखा। किसानों ने सिस्टम से खेती कानून पर फिर विचार करने की गुहार लगाई वह तब भी मौन साध गया।     कोरोना महामारी के पहले दौर के बाद जब सिस्टम अपनी पीठ  रहा था, देश ने वह भी देखा।  यह समय से पहले आया पार्टी का जयघोष था।   'भारत ने न केवल प्रधानमंत्री  के नेतृत्व में कोविड को हरा दिया है बल्कि अपने सभी नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाने के प्रति विश्वास से भी भर दिया है। पार्टी कोविड के खिलाफ जंग के मामले में भारत क

मौत का एक दिन मुअय्यन है नींद क्यों रात भर नहीं आती

मौत  का एक दिन मुअय्यन  है  नींद क्यों रात भर नहीं आती   चचा ग़ालिब इस शेर को भले ही दो सदी पहले लिख गए हों लेकिन आज यह हर हिन्दुस्तानी का हाल हो गया है। डर का साया उसके दिल ओ दिमाग पर खुद गया है।इस हाल में उसे कोई उम्मीद तसल्ली के दो शब्द कहीं नज़र नहीं आते। हमने अपने ध्येय वाक्य 'प्राणी मात्र पर दया' से भी मुँह मोड़ लिया है और आज प्राणवायु के लिए ठोकरे खा रहे हैं। इस बुरे वक्त में प्राण निकल भी  रहे हैं तो भी तसल्ली कहाँ है। दो गज  जमीन का भी संकट है और बैकुंठ जाने के लिए लकड़ी भी रास्ता रोक रही है। श्मशान घाट और  कब्रिस्तान दोनों एक ही कहानी कह  रहे हैं। ऐसे में इंसान के कोमल मन पर रुई के फाहे रखे कौन ? हम सब जानते हैं कौन ,उम्मीद भी बहुत रखी लेकिन अब सिर्फ और सिर्फ हमें करना होगा। किसी से उम्मीद न रखते हुए हमारी प्राचीन विरासत और संस्कारों के हवाले से।  हमें बिना किसी अपेक्षा के बस मदद के हाथ बढ़ाने होंगे। मानव सभ्यता पर ऐसा संकट अभूतपूर्व है। आज़ाद भारत के लिए तो और भी नया क्योंकि  इंसान-इंसान के बीच दूरी को ही जीवन रक्षक कहना पड़ रहा है । इस अजीब समय में हम सब नए नहीं हैं, पिछला

हे कलेक्टर! ये अपमान और एहसान क्यों

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 हम सब अनजाने ही एक महामारी की चपेट में धकेल दिए गए हैं। ऐसी महामारी जिसके बारे  में किसी को भी सही-सही कुछ नहीं पता। सारे विशेषज्ञ इस कोरोना महामारी के लिए ज़िम्मेदार वायरस पर टकटकी लगाए बैठे हैं लेकिन हर रोज़ लगता है जैसे शिकार उनके हाथ आया है फिर अचानक किसी चंचल पंछी की तरह हाथ से छूट भागता है। विशेषज्ञ हाथ मलते रह जाते हैं और हाथ आए पंख या फिर पंछी की ऊष्मा के आधार पर अपनी समझ का गणित बैठाते रहते हैं। ठीक है माना कि इसके अलावा कोई और रास्ता भी नहीं लेकिन आधी-अधूरी जानकारी और शोध के आधार पर यह सख्ती का माद्दा अपनाने का हुनर भला कहां से आता है। शहरों की तालाबंदी ,वैक्सीन को लेकर जोर जबरदस्ती क्यों ? लॉकडाउन ज़िन्दगियों के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं। यह धीमा ज़हर है जो उन्हें मौत के करीब ले जा रहा है और जो मरेंगे उन्हें यह यकीन बिलकुल भी नहीं है कि कोरोना उन्हें मारेगा ही मारेगा। ये तम्बाकू चबाते और नशा पीती  ये बेरोज़गार आबादी जब बीमार होगी  तो उनके लिए अस्पताल होंगे आपके पास ? खबर राजस्थान के धौलपुर से है।  यहाँ के कलेक्टर ने आदेश दिया है कि जब तक यहां के लोग टीका नहीं लगवा लेते तब तक

जीन्स तो फिर भी सिल जाएगी फटा दिमाग नहीं

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 तीरथ भाई ने जब फटी जीन्स पर  बयान दिया था तब  कई लोगों ने लिखा और कहा कि दिमाग फटा हुआ नहीं होना चाहिए। मुझे लगा था कि कोई बात नहीं , ये मेरी दादी जैसे हैं जिन्हें गलती से  भी  बच्चों का कोई कपड़ा फटा या फिर कपड़े में लटकता धागा दिख जाए तो खुद कैंची लेकर आ जाती और कैंची-सी ही घायल करने वाली वो लताड़ लगातीं कि बच्चा  फिर  कभी  फटे कपड़े पहन उनके सामने नहीं आता। लेकिन वे लताड़ लड़का -लड़की देखकर नहीं लगाती सबको सामान रूप से पड़ती थी । तीरथ जी रावत फिर यहीं नहीं रुके। वे बोल गए तुमको अच्छा चावल ज़्यादा चाहिए था तो काहे को जल गए ज़्यादा बच्चे पैदा क्यों नहीं किये। इस बयानबाज़ी में बेचारे अमेरिका को भी कोस गए। बता गए कि अमेरिका ने भारत को दो सौ साल गुलाम रखा। वाह नए -नए बयानजीवी। गुलाम बनाया अमेरिका ने और आज़ादी फिर हम ब्रिटेन से मांगते रहे।   ये देश के  सबसे बड़े दल ने जो पहले के मुख्यमंत्री को खो किया क्या वह इसलिए कि उनका IQ थोड़ा ज्यादा था। खैर मज़ाक छोड़िये पहले बयान पढ़िए जो उन्होंने कल अंतर्राष्ट्रीय वन्य दिवस पर नैनीताल में दिया था।  यह भाषण पहले फेसबुक पर लाइव किया जा  रहा था जिसे बाद में हटा लिया

भारतीय सांसद के घर से ब्रिटिश राजघराने तक बहुओं के बोलने पर है पाबंदी

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  भारत हो या इंग्लैंड ,राजघराना हो या सांसद का घर, बहुओं की आवाज़ इन्हें कभी रास नहीं आती। सबका DNA सामंती रवैये को ही डिकोड करता है।  भारत से ब्रिटेन तक सब एक हैं। यहाँ सांसद की बहू है वहां राजघराने की । एक को उस राजसी माहौल में खदकुशी कर लेने का मन कर रहा था तो एक ने खुद की नस ही काट ली है। ज़िंदा दोनों हैं लेकिन दोनों बिना किसी अपराध के गुनहगार साबित की जा रही हैं। हाँ एक गुनाह दोनों ने किया है। बोलने का गुनाह। एक को आज तक टीवी चैनल वालों ने मुर्गे की लड़ाई दिखाने की  तर्ज़ पर जेठ के सामने कर दिया तो दूसरी ने दिल की बात ओपरा विनफ्रे के शो पर कह डाली । कह दिया कि शाही खानदान को डर था कि प्रिंस हैरी के बच्चे की चमड़ी का रंग कहीं अलग न हो । एक का नाम  अंकिता है और दूसरी का मेगन मर्केल। दोनों की कहानी अलग-अलग है लेकिन पृष्ठभूमि बिलकुल एक है ससुराल और ये ससुराल बहू की ऊंची आवाज़ ज़रा भी बर्दाश्त नहीं कर पाता।  ससुराल जिस जगह का नाम है क्या वह डिज़ाइन ही इस तरह से होती है? हिंदुस्तान से इंग्लिस्तान तक  बच्चे के रंग और लिंग को लेकर जद्दोजहद होती है और जो ऐसा ना हुआ तो लड़की ने लड़के को काबू कर लिया

दिशाहीन सरकारें ही 'दिशा' के मिलने पर होती हैं बदहवास

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  जब मैं अपने टीन्स में थी तो आरक्षण विरोधी आंदोलन में मेरी आस्था बढ़ती गई और फिर बाबरी मस्जिद ढहाने के  कृत्य में भी मेरी पूरी रुचि और समर्थन था। फिर निर्भया के समयकाल में अन्ना हज़ारे से भी हमदर्दी रही। तब कोई ब्लॉग या ट्विटर अकाउंट होता तो मेरे पोस्ट इनके ही हक़ में होते। देश पिछले कुछ महीनों से किसान आंदोलन का साक्षी है। कई लोग सीधे या अप्रत्यक्ष तौर पर अपनी हमदर्दी और नाराजगी ज़ाहिर कर रहे हैं। नए समय के नए माध्यम हैं अपनी बात कहने के । एक गूगल डॉक्यूमेंट बनता है ,कुछ समूह उसे सम्पादित करने का अधिकार भी समूह के सदस्य को देते हैं। आंदोलन को गति देने के लिए के लिए अपनी अभिव्यक्ति इसके जरिए हो सकती है। फ्री स्पीच का अधिकार हमारे संविधान ने दिया है बशर्ते कि वह किसी भी तरह की हिंसा को प्रोत्साहित नहीं करता हो।  आज यही  फ्री स्पीच देशद्रोह के अपराध में लपेट दी गई है और देशद्रोह के ऐसे आरोप अभूतपूर्व संख्या में बढे हैं। कहीं से भी उठाके जेल में डाल दो । ताज़ा आरोप दिशा रवि का है जिसे बैंगलोर से पुलिस ने उठा लिया। दिल्ली हाईकोर्ट में पेश किया लेकिन उसेअपने किसी वकील की  सुविधा भी नहीं दी गई।

कोरोना नोट्स 2020

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डायरी में लिखे कोरोना नोट्स आज ब्लॉग की  सैर पर निकल आए हैं।  रद्दी का ढेर उस अख़बारनवीस ने कबाड़ी के सामने  रख दिया। फिर बोला जो मर्ज़ी हो दे दे ...  मोल-तौल  रहने दे। हम दोनों की रोज़ी बची रहे बस। ****** रुक्मणि ने अपना टीवी, ठीक कराने के लिए एक दुकान पर दिया था। लॉकडॉउन के बाद जब वह दुकान पर पहुंची तो उसे कहा गया कौनसा टीवी था, मुझे तो याद नहीं।रुक्मणि के पास न रसीद थी न टीवी की तस्वीर । ****** डॉक्टर जो मोटी फीस लेकर उनके कूल्हे की हड्डी जोड़ चुके थे,फेफड़ों में पानी भरते ही बोले हमारा अस्पताल तो ग्रीन ज़ोन में है, आप इनके लिए कोई दूसरा अस्पताल देख लीजिए। ****** क्या नाम बताया आपने -बिल्किस बेगम। आप उस एरिया के अस्पताल में फोन कर लीजिए शायद वहां कोई बेड खाली हो, यहां तो सब फुल है। ********* मैंने मास्क लगा रखा था। पेशेंट लॉबी में स्ट्रेचर पर था।डॉक्टर कंपलीट ppe किट में थे।मेरे सामने पड़ते ही लगभग चिल्ला उठे। दूर रहिए ...दूर रहिए ...कहते हुए पूरे-पूरे सवालों के आधे-आधे जवाब देने लगे। ********** अस्पताल जाते हुए रास्ते में पुलिस वाले ने रोका। डंडा दिखाकर मुझे पीछे खदेड़ा। मैंने कहा

रोमियो जूलियट और अंधेरा

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रोमियो जूलियट और अंधेरा इस चेक उपन्यास  को पढ़ने की एक जो बड़ी वजह थी, प्रख्यात हिंदी कथाकार  निर्मल वर्मा का अनुवादक होना । निर्मल वर्मा का चेक भाषा से हिंदी में हुआ यह अनुवाद इस कदर सरल, सहज और प्रवाह में  है कि आप भूले रहते हैं कि यह हिंदी का नहीं है। बीच-बीच  में कहीं जब  वे चेक भाषा के शब्द जस के तस लिखते हुए अर्थ बताते हैं , केवल तब ही आभास होता है  लेकिन फिर यह रोचकता को और बढ़ा देता है। ऐसा इसलिए भी कि निर्मल जी प्राग में दस साल रहे और चेक भाषा सीखी।  चेक लेखक यान ओत्चेनाशेक   के  कथानक को दूसरे विश्व्युद्ध के अँधेरे  का उजला लेखन कहा जा सकता है। 1924 में जन्में यान उस समय युवावस्था में दाख़िल हो रहे थे जब समूचा यूरोप महायुद्ध की विभीषिका से टकरा रहा था। नाज़ियों का कहर चैस्लोवाकिया पर भी उतर आया था और उस वक्त कथा का  नायक पॉल उम्र के  सबसे नर्म और ख़ूबसूरत हिस्से में दाख़िल हो रहा था ।  विज्ञान में गहरी  रूचि रखने वाला छात्र पॉल युवा चेकोस्लोवाक लड़का तो दूसरी ओर नर्तकी बनने  का  ख़्वाब संजोए  यहूदी लड़की एस्थर।  ये दो छोर ही तो थे ज