ये जो सिस्टम है

 सात साल पहले भारत वर्ष की पवित्र संसद की देहरी पर जब उस लोकप्रिय शख्स ने शीश नवाया था तो लगा था ,देश को उसका नेता मिल  गया है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक समान और संवेदनशील निगाह रखेगा। अतीत के कुछ संदेह थे भी तो भोले-भाले मतदाताओं ने ताक पर रख दिए और आस भरी नज़र से






















 नेता की ओर देखने लगे। फिर देश ने देखा मॉब लिंचिंग यानी भीड़ जब घेरकर किसी को मार दे तो व्यवस्था का मौन ,नागरिकता कानून के खिलाफ जब महिलाएं शाहीन बाग़ में विरोध प्रकट करें तो व्यवस्था ने संवेदना की बजाय उन्हें खदेड़ने में दिलचस्पी ,यहां तक की व्यवस्था ने राजधानी के एक हिस्से को दंगे की भेंट चढ़ जाने का मंज़र भी आँख मूंद कर  देखा। किसानों ने सिस्टम से खेती कानून पर फिर विचार करने की गुहार लगाई वह तब भी मौन साध गया। 

   कोरोना महामारी के पहले दौर के बाद जब सिस्टम अपनी पीठ  रहा था, देश ने वह भी देखा।  यह समय से पहले आया पार्टी का जयघोष था।   'भारत ने न केवल प्रधानमंत्री  के नेतृत्व में कोविड को हरा दिया है बल्कि अपने सभी नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाने के प्रति विश्वास से भी भर दिया है। पार्टी कोविड के खिलाफ जंग के मामले में भारत को दुनिया के सामने एक गौरवशाली और विजेता देश रूप में पेश करने के लिए निर्विवाद  रूप से अपने नेतृत्व को सलाम करती है। ' क्या यह दूसरी लहर के प्रति अनभिग्यता थी यां हर बार उत्सव मानाने में हुई जल्दबाजी ?यह अनभिग्यता तो खतरनाक है ,अवैज्ञानिक है ,दूसरे देशों से भी सबक न लेने की एक बुरे अंत वाली कहानी है। नहीं भूलना है कि कोविड से हुई हर मृत्यु अपने प्रिय के अंत की कहानी है। 

 व्यवस्था के चौपट होनेका आलम तो यह है कि छोटा सा पड़ोसी देश पाकिस्तान भी मदद पेश करने लगे। इस पेशकश में  कोई बुराई नहीं लेकिन साधनहीन भी आपके सामने साधन संपन्न लगने लगे यह शर्म से माथा झुका देने वाली बात है।  बेशक शेष दुनिया भी मदद का भाव रख रही है लेकिन विदेशी मीडिया हमें बख्श नहीं रहा है। देश की आपात स्थिति पर निरुत्तर कर देने वाले शब्द और व्यंग्य मीडिया में बिखरे पड़े हैं। ऑस्ट्रेलिया के मशहूर कार्टूनिस्ट ने डेविड रो ने प्रधानमंत्री की शाही सवारी को एक मरे हुए हाथी पर दिखया है। यह समय उन्हें विदेशी ताकतों की कुदृष्टि कहने का भी नहीं है जैसा सिस्टम ने पर्यवरण एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग  और दिशा रवि के समय किया था। यह समय अपने गिरेबान में झांकने का है कि क्यों केंद्र जो ऑक्सीजन और वैक्सीन आपूर्ति के लिए ज़िम्मेदार है वह जरूरत  नहीं पूरी कर पा  रहा है। वैक्सीन के अलग अलग दाम की बात ही तकलीफदेय  लगती है। जब देश की अवाम इस वायरस से अपने प्राण हार रही है सिस्टम उसे प्राणवायु नहीं दे पा रहा है । वैक्सीन को लेकर यह कितना अजीब है कि निर्माता केवल दो हैं लेकिन  देश के तमाम मुख्यमंत्री इनसे अलग -अलग भावताव करेंगे। एक दाम होने पर क्या वैक्सीन के उत्पादन में तेज़ी लाते हुए काम नहीं होना था ? अच्छी बात ये हुई है कि सिरम इंस्टीट्यूट क अदार पूनावाला के अमरीकी राष्ट्रपति जो बाइडन को ट्वीट करने के बाद वैक्सीन से जुड़ा कच्चा माल मिलने की राह आसान हुई है। 

क्या यह केंद्रीय सिस्टम का फर्ज नहीं था कि पूरे देश को वैक्सीनेट किया जाए। वैक्सीन अभियान को विकेन्द्रित करना है उसकी खरीद को नहीं। आपक कितने में  खरीद रहे कितने में नहीं उससे देश की जनता को क्या लेना-देना। क्या अवाम के रखवाले इस तरह पैसा  दिखा दिखा के खर्च करेंगे ,एहसान जताते हुए। वे पिता की तरह क्यों नहीं हो सकते ?देश क्यों फिर अब भी उन्हें माई -बाप माने बैठा है ?राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने वैक्सीन खरीदने और जनता को फ्री देने का का अच्छा ऐलान किया साथ ही यह भी कह दिया कि इसके बाद राज्य की कल्याणकारी योजनाओं पर असर पड़ेगा। दिल्ली के सीएम ने भी कहा है कि एक देश में एक दाम क्यों नहीं ?बेशक यह महामारी का समय है हर जान कीमती है जो टीकाकरण के बाद खुद तो सुरक्षित रहेगी ही इस जानलेवा वायरस को फैलने से भी रोकेगी। यह राष्ट्रहित का मसला है। राज्यों की सरहदों में तो हम बंधे बैठे वायरस सर्वव्यापी है। सरहद विहीन। रौंद रहा है देश को। हमें एक होना है हर हाल में हर सरहद, हर मजहब ,हर दल से मुक्त एक भारत जिसका राष्ट्रीय नारा हो किल कोविड। 







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