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जनवरी, 2009 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जरिवाले आसमान के पैबंद

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अरसे बाद आज सुबह-सुबह पहले दिन पहला शो देखा। जयपुर के वैभव मल्टीप्लैक्स में। स्लमडॉग मिलेनियर। दो सौ के हाल में कुल जमा हम सात। मिलेनियर होने का ही एहसास हुआ। खैर देसी कलाकारों और देसी हालात पर जो विदेशी कैमरा घूमा है वह वाकई कमाल है। समंदर किनारे की आलीशान अट्टालिकाओं के पार मुंबई की धारावी नहीं हम सब अनावृत्त हुए हैं। कच्ची बस्ती की शौच व्यवस्था से लेकर उनकी नींद तक का सिनेमा हमारी आंखें खोल देने वाला है। हम भले ही अपनी फिल्मों में एनआरआई भारतीय की लकदक जिंदगी देख सपनों में खोने के आदी रहे हों लेकिन फिल्म माध्यम के पास यथार्थ दिखाने की जबरदस्त ताकत है का अंदाजा पाथेर पांचाली के बाद एक बार फिर होता है। सत्यजीत रे पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने भारत की गरीबी बेची है। पचास साल बाद भी हम यही आरोप लगा रहे हैं। शर्म आती है हमें कि आज तक हम भारतवासी को भरपेट रोटी और छत नहीं दे पाए हैं। रे साहब आज नहीं है। हालात अब भी जिंदा है। अगर किसी ने कुछ बेचा है तो वह हमारी कथित मुख्यधारा के फिल्म मेकर हैं, जिन्होंने झूठे सपने बेचे हैं। इन फिल्मों से ऐशो-आराम खरीदा है । फ़िल्म का पहला भाग बेहद घटन

उफ ये जुनून ए पतंगबाजी

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                                                                    tasveer abhishek tiwari नजारे जयपुर कि पतंगबाजी के मै जन्म से जयपुरी नहीं हूँ .होती तो बेहतर था यूँ मेरा शहर इंदौर भी कम उत्सवप्रिय नही लेकिन जयपुर की बात ही निराली है । यूँ तो पिछले बारह वर्षों से इस शहर की जिंदादिली को जी रही हूँ लेकिन मकर संक्रांति बेहद खास है। सारा शहर पतंगबाजी के इस कुम्भ मै डुबकी लगाता है मानो कोई रह  गया तो बड़े पुण्य से वंचित रह जाएगा. क्या छोटा क्या बड़ा, क्या पुरूष क्या स्त्री सब पतंग और डोर के रिश्ते मै बंधने को आतुर. सा रा शहर तेज़ संगीत कि धुनों के साथ छत पर होता है वाकई जिसने जयपुर की पतंगबाज़ी नहीं देखी वह जन्मा ही नहीं । इस बार नज़ारा कुछ खास रहा क्योंकि शाम ढलते ढलते आकाश में पतंगों के साथ आतिशी नजारे भी हावी थे । जयपुर पर रश्क़ किया जा सकता है क्योंकि त्यौहार वही है जो हर एक के दिल मै उत्साह जगाये खुशी को एक सूत्र मै बाँध दे। यह यहाँ पर खरा है यकीन नहीं होता तो डेली न्यूज़ के photojournlist दिलीप सिंह कि नज़रों से देखिये.