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पम -पम दादा का यूं चले जाना

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अनुपम मिश्र चले गए एक बेहद निजि यात्रा पर। जिसका रोम-रोम सबके लिए धडक़ता हो, जो अपने होने को हवा, मिट्टी, पानी से जोडक़र देखता हो ऐसे अनुपम मिश्र का जाना समूचे चेतनाशील समाज के लिए बड़े शून्य में चले जाना है। कर्म और भाषा दोनों  से सादगी का ऐसा दूत  यही यकीन दिलाता रहा कि गांधी ऐसे ही रहे होंगे। उनसे मिलकर यही लगता कि हम कितने बनावटी हैं और वे कितने असल। वे पैदा जरूर वर्धा महाराष्ट्र में हुए , मध्यप्रदेश से जुड़े रहे, दिल्ली में गाँधी शांति प्रतिष्ठान के  हमसाया बने रहे लेकिन उनकी कर्मभूमि रहा राजस्थान। आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदों  में उन्होंने पानी बचाने वाले समाज का इतना गहराई से ब्योरा दिया कि खुद राजस्थानी भी इठलाने पर मजबूर हो गया। अलवर, बाड़मेर, लापोड़िया उनकी  प्रेरणा के बूते हरिया रहे हैं।    अनुपम दा से कई मुलाकातें हैं। जितनी बार भी मिले उनका सरोकार होता पर्यावरण, गांधी मार्ग जिसके वे संपादक थे और मेरे बच्चे। वे बच्चों से इस कदर जुड़े रहते कि उन्हें खत भी लिखते। खतो-किताबत में उनका कोई सानी नहीं हो सकता। संवाद इस कदर सजीव कि बात करते हुए खुद के ही जिंदा होने का

पति को माता-पिता से अलग करना पत्नी की क्रूरता और पति के सम्बन्ध क्रूरता नहीं

लगभग एक महीने पहले सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया था कि पति को माता-पिता से अलग करना पत्नी की क्रूरता है और  हाल ही एक निर्णय आया है कि पति का विवाहेत्तर संबंध हमेशा क्रूरता नहीं होता, लेकिन यह तलाक का आधार हो सकता है। क्या ये दोनों ही फैसले स्त्रियों के सन्दर्भ में जड़वत बने रहने की पैरवी नहीं है? लगभग एक महीने पहले सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया था कि पति को उसके माता-पिता से अलग करना पत्नी की क्रूरता है। दो न्यायाधीशों की खंडपीठ ने अपने फैसेले में जो कहा वह इस प्रकार है-सामान्य परिस्थितियों में उम्मीद की जाती है कि पत्नी शादी के बाद पति का घर-परिवार संभालेगी। कोई नहीं सोचता कि वह पति को अपने माता-पिता से अलग करने की कोशिश करेगी। यदि वह पति को उनसे दूर करने की कोशिश करती है तो जरूर इसकी कोई गंभीर वजह होनी चाहिए लेकिन इस मामले में ऐसी कोई खास वजह नहीं है कि पत्नी पति को उसके माता-पिता से अलग करे सिवाय इसके कि पत्नी  को खर्च की चिंता है। आमतौर पर कोई पति इस तरह की बातों को बर्दाश्त नहीं करेगा। जिस माता-पिता ने उसे पढ़ा-लिखा कर बड़ा किया है उनके प्रति भी उसके कर्त्तव्य  हैं। सामाजिक

धूप पर कोई टैेक्स नहीं लगा है

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इमेज क्रेडिट -उपेंद्र शर्मा, अजमेर  भूल जाइये तमाम रंज ओ गम मजा लीजिए मौसम का कि सर्दी की दस्तक पर कोई बंदिश नहीं है धूप पर कोई टैेक्स नहीं लगा है धरा ने नहीं उपजी है कोई काली फसल रेत के धोरे भी बवंडर में नहीं बदले  हैं पेड़ों ने छाया देने से इंकार नहीं किया है परिंदों की परवाज में कोई कमी नहीं है आसमान का चांद अब भी शीतल  है दुनिया चलाने वाले ने निजाम नहीं बदला है फिर हम क्यों कागज के पुर्जों में खुद को खाक कर रहे हैं शुक्र मनाइये कि सब कुछ सलामत है नदी की रवानी भी बरकरार है कच्ची फुलवारी भी खिलने को बेकरार है करारे नोटों का नहीं यह हरेपन का करार है भूल जा तमाम रंज ओ गम कि कुदरत अब भी तेरी है ये बहार अब भी तेरी है हुक्मरां कोई हो हुकूमत केवल उसकी है और बदलते रहना उसकी ताकत भूल जाइये तमाम रंज ओ गम मजा लीजिए मौसम का किसी के काला कह देने से कुछ भी काला नहीं होता  ... और सफ़ेद कह देने से भी नहीं ।

परम्पराओं की पगथलियों पर

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दुनिया में शायद ही कोई देश हो जहाँ हज़ारों साल बाद भी जनमानस परम्पराओं की पगथलियों पर यूं चल रहा हो। जाने क्यों कुछ लोग  परम्पराओं को बिसरा देने का ढोल ही पीटा करते हैं    इन दिनों हरेक जुनून में जीता हुआ दिखाई देता है। लगातार अथक प्रयास करता हुआ। जैसे उसने प्रयास नहीं किए तो उसके हिस्से की रोशनी और उत्साह  मद्धम पड़ जाएंगे। त्योहार ऐसी ही प्रेरणा के जनक हैं। वर्षा और शरद ऋतु के संधिकाल में मनाया जानेवाला दीपावली बेहिसाब खुशियों को समेटने वाला पर्व है। अपने ही बहाव में ले जाने की असीमित ताकत है इस त्योहार में। आप साचते रहिए कि इस बार साफ-सफाई को वैसा पिटारा नहीं खोलेंगे जैसा पिछली बार खोला था या फिर क्या जरूरत है नई शॉपिंग की, सबकुछ तो रखा है घर में, मिठाइयां भी कम ही बनाएंगे कौन खाता है इतना मीठा अब? आप एक के बाद एक संकल्प दोहराते जाइये दीपावली आते-आते सब ध्वस्त होते जाएंगे। यह त्योहार आपसे आपके सौ फीसदी प्रयास करवाकर ही विदा लेता है। कौनसा शिक्षक ऐसा है जो आपसे आपका 100 फीसदी ले पाता है। यह दीपावली है जो पूरा योगदान लेती है और बदले में आपको इतना ताजादम कर देती है कि आप पूरे साल प्र

मिनी स्कर्ट से भी मिनी सोच

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'विदेशी पर्यटकों को एयरपोर्ट पर एक वेलकम किट दी जाती है। इसमें एक कार्ड पर €या करें और €या न करें की जानकारी होती है। हमने बताया है कि छोटी जगहों पर रातवात में अकेले न निकलें, स्कर्ट न पहनें।' केंद्रीय पर्यटन मंत्री ने अपने इस बयान के साथ आगरा में विदेशी पर्यटकों की सहायता के लिए एक हेल्पलाइन नंबर भी 1363 भी जारी किया था लेकिन बात केवल स्कर्ट पर सिमट कर रह गई। रहना गलत भी नहीं €क्योंकि फर्ज कीजिए एक भारतीय सैलानी जो इटली के किसी ऐतिहासिक चर्च का दौरा कर रही हो और उसने साड़ी या शलवार (सलवार नहीं) कमीज पहन रखी हो और उन्हें कोई नसीहत दे कि, अपने कपड़े बदलो और स्कर्ट या कुछ और पहन कर आओ। क्या यह फरमान तकलीफ देने वाला नहीं होगा? आप कहेंगे ऐसा €क्यों किसी को कहना चाहिए? पूरे कपड़े पहनना तो शालीनता है। ऐसा नहीं है। यह हमारी सोच है। हमने यह मानक तय कर लिया है और इसे ही परम सत्य मान लिया है और तो और इसे ही अपनी संस्कृति तक करार दे दिया है। भारत जैसे विशाल देश की संस्कृति में €क्या  गोवा, सिक्किम  या मणिपुर शामिल नहीं है €क्या  वहां का पहनावा हमारा पहनावा नहीं है? €क्या हम यहां के सैल

नकली विलाप बंद करो रक्षा सूत्र बांधो

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कल रक्षाबंधन है। ऐसा लगता है जैसे हमारे पुरखों ने इस त्योहार के साथ ही बंधुत्व भाव की ऐसी नींव रख दी थी कि दुनिया में हर कहीं संतुलन-सा कायम रहे। रक्षा-सूत्र बांधकर आप हर उस जीवन की रक्षा कर सकते हैं जिसे अधिक तवज्जो या महत्व की जरूरत है। कभी-कभार विचार आता है कि तुलसी का जो मान हम करते हैं या केला, नारियल, पंचामृत जो हमारे प्रसाद का हिस्सा हैं, या जो सोमवार या गुरुवार को एक या दो दिन ईश्वर के नाम पर व्रत करने की जो परिपाटी है, ये सब हमारे शरीर और जीवन को बेहतर बनाने की ही कोशिश है। एक दिन के उपवास में हम इतना पानी  पी जाते हैं कि वह डी-टॉक्सिफिकेशन का काम कर देता है। व्रत में फलों का सेवन कहीं ऊर्जा को कम नहीं होने देता और खनिज और विटामिन की कमी को पूरा कर देता है। गाय भी इसी परंपरा के लिहाज से देश में पूजी जाती है। हमारे तो ईश्वर ही गौ-पालक हैं। कृ ष्ण की वंशी पर नंदन-वन की गाय इकट्ठी होकर जिस गौधुली-बेला को रचती है, वह इस चौपाए को नई आभा देता है । ऐसा क्यों है भला? क्योंकि गाय ने उस युग में मानव को जिंदा रहने का साहस दिया है जब उसके पास कुछ नहीं था। गाय का दूध मानव शिशु के  लि

go girls go medals are waiting for u

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 दुनिया का सबसे बड़ा खेल उत्सव कल  तड़के  सुबह ब्राजील की राजधानी रियो डी जेनेरियो में शुरू होने जा  रहा है    । यह सचमुच अच्छा वक्त है क्योंकि पुराने वक्त में तो दमखम दिखाने का एकाधिकार केवल पुरुषों के पास था। शरीर को साधने का कोई मौका स्त्री के पास नहीं था। खुद को सजाने और खूबसूरत दिखने का प्रशिक्षण तो जाने -अनजाने हर लड़की  को उसकी पुरानी पीढ़ी दे देती थी लेकिन शरीर से पसीना बहाना, इस तपस्या में खुद को ढालना और फिर खरा सोना बन जाने का हुनर केवल इक्कीसवीं सदी की स्त्री में दिखता है। उजले चेहरे और तपी हुई त्वचा को देखने की आदत हमारी पीढ़ी को 1982 के दिल्ली, एशियाड से मिली। संयोग से उन्हीं दिनों शहरों को टीवी का तोहफा भी मिला था और एशियाई खेल इस पर सीधे प्रसारित हुए थे। उडऩपरी पी टी उषा का सौ मीटर और दो सौ मीटर में चांदी का पदक जीतना। वो चांद राम का पैदल दौड़ में पहले आना । ये मंजर देख हम बच्चों की आंखें सपनों से भर जाती। भारत-पाकिस्तान के हॉकी फाइनल मैच को देखने घर के बरामदे तक  में तिल धरने की जगह ना थी। यह जोश जुनून खेल देता है।      2012 के लंदन ओलंपिक्स में जब मेरी कोम और साइ

मंच पर ये रंग दृष्टिहीन बच्चों ने खिलाए थे

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बीते रविवार की शाम जो देखा वह ना देख पानेवालों का ऐसा प्रयास था जो आने वाले कई-कई रविवारों में रवि (सूर्य) जैसी ऊर्जा भरता रहेगा। यह एक नाटक था और मंच पर मौजूद बच्चे दृष्टिहीन थे। मंच पर ऐसे रंग खिले  कि लगा हम आंखवालों ने कभी मन की आंखें तो खोली ही नहीं बस केवल स्थूल आंखों से सबकुछ देखते रहे हैं। इनके पास तो अनंत की आंखें हैं और वो सब महसूस कर लेती हैं आंख वाले नहीं कर पाते। ये अनंत की आंखें रंग आकार से परे इतना गहरे झांक लेती हैं कि वे बेहतर मालूम होती हैं। शायद लेखक-निर्देशक भारत रत्न भार्गव  उनकी इसी शक्ति से दर्शक को रू-ब-रू कराना चाहते थे। एक ज्योतिहीन बच्चे का मन चित्रकारी करने का हो और वह कुछ चित्रित करना चाहे तो आप कैसे उसका परिचय आकार, रंग और दुनिया में बिखरे सौंदर्य से कराएंगे। एक बालक की यही चाह है और इस चाह को पूरा करते हैं उसके गुरु जिन्हें वह हर दृष्य में चरणों में सिर झुकाकर प्रणाम करता है। वे उसका  आकार और रंग से तो परिचय कराते ही साथ ही यह भी बताते हैं कि चित्रकार स्थूल से परे देखता है। वे बताते हैं कि जिस पोदीने की खुशबू को तुम जानते हो उसकी पत्तियों का रंग हरा है,

दहेज़ नहीं दिया तो माथे पर लिख दिया मेरा बाप चोर है

महिलाओं के खिलाफ ऐसे नए-नए अपराधों की बाढ़ आ गई है कि दहेज थोड़ा पुराना-सा लगने लगा है। आउट ऑव फैशन-सा लेकिन यह धोखा है, भ्रम है हमारा। इसे आउट ऑव फैशन समझने-बताने वाले वे लोग हैं जो इन बातों के प्रचार में लगे हैं कि महिलाएं दहेज का झूठा केस ससुराल वालों पर करा देती हैं और अधिकांश ऐसे मामले अदालत की देहरी पर हांफने लगते हैं। ठीक है कुछ देर के लिए यही सच है ऐसा मान भी लिया जाए तो क्या बेटी के  माता-पिता के मन में बेटी के पैदा हेाते ही धन जोडऩे के खयाल ने आना बंद कर दिया है? क्या बेटे के जन्म लेने के बाद माता-पिता ने धन का एक हिस्सा इसलिए रख छोड़ा है कि यह नई बहू और बेटे के लिए हमारा तोहफा होगा? क्या बहुओं के मानस पर ऐसी कोई घटना अंकित नहीं है जब ससुराल पक्ष के किन्ही रिश्तेदारों न लेन-देन को लेकर ताने ना कसे हों?  जब तक इस सोच में बदलाव देखने को नहीं मिलेगा दहेज का दानव कभी पीछा छोड़ ही नहीं सकता। दरअसल दहेज की अवधारणा लड़की की विदाई से जुड़ी है। पाठक नाराज हो सकते हैं कि क्या लड़की क ो विदा करना ही गलत हो गया? हां, हम क्यों कन्यादान, विदाई, पराई, जैसे शब्द इस्तेमाल करते हैं? सारी

गुजरात उड़ता है दमन तक

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गुजरात  में नशे पर रोक है, लेकिन ज्यों ही गुजरात सीमा खत्म होकर समुद्र से सटे केंद्र शासित शहर  दमन की सीमा शुरू होती है, शराब की दुकानें साथ चलने लगती है। पहले दो-तीन किलोमीटर तक आपको सिर्फ यही दुकानें मिलती हैं, क्योंकि जिन गुजरातियों को नशे की लत है वे बिंदास रफ्तार से दमन तक आते हैं, समंदर किनारे देर रात तक रहते हैं और लौट जाते हैं। ये गुजरात उड़ता है दमन तक। जाहिर है बैन इसका इलाज नहीं। इसका उपलब्ध होना ही समस्या है। तेजाब से लड़कियां जलाई जा रही हैं, तेजाब फेंकना अपराध है, लेकिन तेजाब का मिलना उससे भी बड़ा अपराध है। जब एसिड ही नहीं होगा तो एसिड अटैक कैसे होंगे?  हाल ही नशाखोरी से जुड़ी उड़ता पंजाब बड़े संघर्ष के बाद सिनेमाघरों की सूरत देख सकी। कुछ लोगों का मानना है कि अगर कें द्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड ने इतना हल्ला न मचाया होता तो फिल्म आती और चली जाती, लेकिन क्या वाकई देश की गंभीर समस्याएं भी यूं  ही आकर चली जाती हैं? ये तो पूरी पौध को बरबाद कर रही हैं। कम अज कम फिल्म ने बताया है कि पंजाब नशे की लत में डूब चुका है। ये खरीफ या रबी की फसल के बरबाद होने की कथा नहीं है, बल्कि एक सम्

ग़ैर ज़िम्मेदार मॉम -डैड ने ली गोरिल्ला की जान !

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माता-पिता होना दुनिया की सबसे बड़ी खुशनसीबी हैं तो उससे भी बड़ी जिम्मेदारी है। किसी कंपनी के सीईओ होने से भी बड़ी जिम्मेदारी। दिल दहल गया था जब पिछले सप्ताह सिनसिनाती जू में तीन साल के बच्चे को बचाने के लिए सत्रह साल के गोरिल्ला हरांबे को गोली मारने पड़ी थी। यहां इस बात में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि एक बच्चे की जान बचाने के लिए गोरिल्ला की जान ली गई। इंसानी जान बचाना पहला फर्ज होना चाहिए लेकिन लापरवाह माता-पिता को भी बेशक तलब किया जाना चाहिए। हरांबे के समर्थन में बड़ा जनसमूह आ गया है। उनका मानना है कि उस बेजुबां कि खामखा जान गई। फेसबुक पर जस्टिस फॉर हरंबे   नाम से एक पेज बन चुका है जिससे तीन लाख से भी ज्यादा वन्यजीव प्रेमी जुड़ चुके हैं, उनका कहना है हरंबे  बच्चे को कोई नुकसान नहीं पहुंचा रहा था। जबर्दस्त विरोध के बीच बच्चे की मां मिशेल ग्रेग का कहना है कि हमें दोषी ठहराना आसान है। मैं हमेशा अपने बच्चों को कड़ी निगरानी में रखती हूं। यह एक दुर्घटना थी।            बच्चों की परवरिश के दौरान माता-पिता गंभीर होते हैं लेकिन यह भी सच्चाई है कि कई बार बच्चे उन्हीं की लापरवाही का शिकार

मैं और तुम

दरख़्त  था एक दरख़्त हरा घना छायादार इस क़दर मौजूद कि अब ग़ैरमौजूद है फिर भी लगता है जैसे उसी का साया है उन्हीं पंछियों का कलरव है और वही पक्का हरापन है सेहरा ऐसे ही एहसासों में जीता है सदियों तक और एक दिन मुस्कुराते हुए हो जाता है समंदर ख़ुशबू   मैंने चाहा था ख़ुशबू को मुट्ठी में कैद करना ऐसा कब होना था वह तो सबकी थी उड़ गयी मेरी मुट्ठी में रह गया वह लम्स  उसकी लर्ज़िश और खूबसूरत एहसास काफ़ी है एक उम्र के लिए याद  यादों की सीढ़ी से आज फिर  एक तारीख उतरी है मेरे भीतर...  तुम जान भी पाओगे जाना कि बाद तुम्हारे मैं कितनी बार गुजर जाती हूँ इन तारीखों से गुजरते हुए।

क्यों नहीं देख पाते देह से परे

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बड़े-बुजुर्ग अक्सर दुआओं में कहते हैं ईश्वर तुम्हें बुरी नजर से बचाए और जब ये बुरी नजरें  लगती हैं तो कलेजा छलनी हो आता है और मन विद्रोह से भर उठता है। ये नजरें इसलिए भी खराब  हैं, क्योंकि ये पढ़े-लिखों की हैं। उस जमात की, जिससे हम बेहतरी की उम्मीद करते हैं। ये पहले सौ किलोमीटर तक केवल देह की देहरी में घूमते हैं और उसके बाद भी ऐसे बहुत कम हैं जो समझते हैं कि इस देह के भीतर भी एक दिल है जो धड़कता है और दिमाग जो सोचता है। आखिर कब हम स्त्री के दिलो-दिमाग का सम्मान करना सीखेंगे। आसाम की एक्टर से विधायक बनीं अंगूरलता डेका की समूची उपलब्धि उन ग्लैमरस तस्वीरों के आस-पास बांध दी जाती हैं , जो उनकी हैं ही नहीं और एक हिंदी अखबार की वेबसाइट को देश की टॉप दस आईएएस और आईपीएस में खूबसूरती ढूंढऩी है। बदले में आईपीएस मरीन जोसफ की फटकार झेलनी पड़ती है और इस लिंक को हटाना पड़ता है।  ips मरीन जोसेफ  mla  अंगूरलता डेका  ये अजीब समय है। एक ओर तो हम चांद और मंगल तक अपनी उड़ान भर चुके हैं और जब बात स्त्री की आती है तो हम देह से परे कहीं झांकने को ही तैयार नहीं। किसी ने जीता होगा दिन-रात एक कर चु

रेस दौड़ने से पहले मत हारो यार

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वह दीवार खुरच कर चला गया। उसने लिखा मैं सिलेबस पूरा नहीं कर पाया। मैं समय बरबाद करता रहा। आज का काम कल पर छोड़ देना मेरी सबसे बड़ी कमी थी। यह लिखकर वह फांसी के फंदे से झूल गया। अठारह साल का केशव यूं इस दुनिया से कूच कर गया। ये हकीकत हमारे प्रदेश के कोटा शहर का स्थाई भाव बनती जा रही है। इस साल की यह छठी खुदकुशी है, जो कोटा में हुई है। हैरानी है कि हम सब यह मंजर देख-सुनकर भी चुप हैं। ना केवल चुप हैं बल्कि अपने बच्चों को भी उसी दिशा में धकेलने को लालायित भी। कितने माता-पिता हैं जो अपने बच्चे की काउंसलिंग इसलिए कराना चाहते हैं कि वह भी इस भेड़चाल का हिस्सा ना बने। हम तो वे माता-पिता हैं जो बच्चे के विज्ञान विषय चुनने की बात से ही खुश हो जाते हैं कि अरे वाह ये तो सही दिशा में है। क्या वाकई? वह सही दिशा में है या उस पर भी दबाव है क्योंकि उसके ज्यादातर मित्रों-सहपाठियों ने विज्ञान विषय ही लिया है। वह भी गणित के साथ। जिन्हें गणित से तकलीफ है वह बायोलॉजी के साथ हैं। यही तो peer pressure है जो हम सब झेल रहे हैं।   विज्ञान बेहतरीन विषय है लेकिन इस रूप में? हम जिस दबाव की बात करते हैं देखि

मारवाड़ से सीखे मराठवाड़ा

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 मराठवाड़ा पहुंची ट्रैन          तस्वीर इंडियन एक्सप्रेस से साभार कैप्शन जोड़ें सोमवार सुबह से दो अखबार की दो बातें बार-बार कौंध रही हैं। अंग्रेजी के अखबार में महाराष्ट्र के सतारा जिले के गांव तालुुका फलटण के किसान का साक्षात्कार है जबकि हिंदी के अखबार में वैसे ही संपादकीय पृष्ठ पर जैसलमेर के चतरसिंह जाम का लेख है जो अकाल में भी पानी की प्रचुरता की कहानी कहता है। वे लिखते हैं कि हमारे यहां पानी की बूंदों की कृपा मराठवाड़ा से भी कम होती है लेकिन हमारे यहां पानी का अकाल नहीं बल्कि मनुहार होती है। आखिर यह विरोधाभास क्यों, कि जो क्षेत्र अकाल के लिए चिन्हित  और अपेक्षित है वहां पानी का इतना सुनियोजन और जहां ठीक-ठाक पानी पड़ता है वहां हालात इस कदर सूखे कि रोज पशुओं की मौत हो रही है और परिवार के सदस्य खेती छोड़ मजदूरी करने को मजबूर। सतारा जिले से 70 किमी दूर बसे गांव तालुका फलटण के किसान लक्ष्मण का कहना है कि मेरे परिवार में सात सदस्य हैं। माता-पिता, मैं, मेरी पत्नी और तीन बच्चे। हमारे गांव में कोई नदी नहीं बहती इसलिए किसानी पूरी तरह वर्षाजल पर ही आश्रित है। सूखा पहले भी हुआ है लेकिन

मेरी पहली श्मशान यात्रा

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स्त्रियों को कहाँ इजाज़त होती है मसान जाने की।  गुजरात के इस गांव में नदी किनारे बने श्मशान घाट पर जब पहली बार भाइयों के साथ मामाजी के फूल चुनने गई तो लगा कि मामाजी जाते-जाते भी दुनिया का अलग रंग नुमाया कर गए। इससे पहले मामाजी  की बेटियों  ने भाई के साथ मिलकर मुखाग्नि दी थी।  बेहद निजी अनुभव है। गुजरात के वलसाड़ जिले के नवसारी तहसील के एक गांव गणदेवी में मामाजी ने अंतिम सांस ली। बचपन से ही मधुमेह   (डायबिटीज) से पीड़ित मामाजी (58 )को पहले उनके माता-पिता और भाई-बहनों ने इस तरह बड़ा किया जैसे वे राजकुमार हैं और वक्त की पाबंदी में कोई भी कमी उनके जीवन पर संकट के बादल ला सकती है। उनका आना-जाना भी वहीं होता जहां मेजबान उनके मुताबिक बनी घड़ी का सम्मान कर पाता था। जीवन के पांच दशक उन्होंने इन्सुलिन के सुई (एक हार्मोन जो रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता है) और घड़ी की सुई के साथ सटीक तालमेल बना कर बिताए। ब्याह हुआ। मामीजी के लिए कुछ भी आसान नहीं रहा होगा लेकिन उन्होंने इस रिश्ते को एेसा सींचा कि कुछ सालों में तो वे उनके चेहरे के भाव देखकर ही समझ जाती थीं कि उनके शरीर में शुगर

इस सरज़मीं से मोहब्बत है

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सरसब्ज इलाके मालवा में मुनष्य की औसत आयु का एक चौथाई हिस्सा गुजारने के बाद जब जोधपुर की सरजमीं को छुआ तो लगा जल ही जाएंगे। जून के महीने में धरा आग उगल रही थी। काली बिंधी हुई मिट्टी की जगह बिखरी पीली रेत थी, मानो मौसम का दूसरा नाम ही गुबार हो। समझ आ गया था कि एक बहुत ही प्रतिकूल वातावरण में जीवन का अनुकूल हिस्सा आ गया है। सूखता हलक और घूमता सर बीमार न था, लेकिन इस वातावरण से रूबरू होने की इजाजत मांग रहा था। इतने सूखेपन के बावजूद वहां कोई एक नहीं था जो शिकायत करता। परिधान और पगडिय़ों के चटख रंग ऐसे खिलते जैसे फूल। मुस्कुराते लब ये कहते नजर आते             ऊंची धोती और अंगरखी, सीधो सादौ भैस।         रैवण ने भगवान हमेसां दीजै मरुधर देस ।। सूर्यनगरी के इस ताप को सब जैसे कुदरत का प्रसाद समझ गृहण किए हुए थे। ऐसा नहीं कि रोटी-पानी की जुगाड़ में यहां इल्म की हसरत पीछे छूट गई हो। यह यहां के कण-कण में मौजूद है। ज्ञानी और सीधे-साधे ग्वाले के बीच का यह संवाद यहां के बाशिंदे के अनुभव की पूरी गाथा कह देगा। ज्ञानी कहते हैं- सूरज रो तप भलो, नदी रो तो जल भलो भाई रो बल भलो, गाय रो तो दूध भलो। यानी सूरज

ये दोज़ख़नामा नहीं जन्नत के रास्ते हैं

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कल्पना कीजिए उन्नीसवीं सदी अगर बीसवीं सदी को आकर गले लगाए तो? दो सदियों के एक समय में हुए मिलन के जो हम गवाह बने तो? अंकों के हिसाब से यह अवसर सोलह साल पहले आया था जब दो सदियां 31 दिसंबर 1999 को रात बारह बजे एक लम्हे के लिए एक हुई थी लेकिन यहां बांग्ला लेखक रविशंकर बल ने तो पूरी दो सदियों को एक किताब की शक्ल में कैद कर लिया है। दो सदियों की दो नामचीन हस्तियों की मुलाकात का दस्तावेज है बल का उपन्यास दोज़खनामा। उन्नीसवीं सदी के महान शायर मिर्जा असदउल्ला बेग खां गालिब(1797-1869) और बीसवीं सदी के अफसानानिगार सआदत हसन मंटो (1912-1955 )की कब्र में हुई मुलाकात से जो अपने-अपने समय का खाका पेश होता है वही दो ज़ ख़नामा है। गालिब अपने किस्से कहते हैं कि कैसे मैं आगरा से शाहजहानाबाद यानी दिल्ली में दाखिल हुआ जो खुद अपने अंत का मातम मनाने के करीब होती जा रही थी। बहादुरशााह जफर तख्त संभाल चुके थे और अंग्रेज आवाम का खून चूसने पर आमादा थे। 1857 की विफल क्रांति ने गालिब को तोड़ दिया था और उनके इश्क की अकाल मौत ने उन्हें तन्हाई के साथ-साथ कर्ज के भी महासागर में धकेल दिया था। सरकार जो पेंशन उनके वालिद (जो

पधारो म्हारे देश से जाने क्या दिख जाए

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इन दिनों एक जुमला हरेक की जुबां पर है। कुछ अलग हो, एकदम डिफरेंट, जरा हटके। सभी का जोर नएपन पर है, नया हो नवोन्मेष के साथ। कैसा नयापन? पधारो म्हारे देश से जाने क्या दिख जाए जैसा? बरसों से पावणों को हमारे राजस्थान में बुलाने के लिए इसी का उपयोग होता था। पंक्ति क्या दरअसल यह तो राजस्थान के समृद्ध संस्कारों को समाहित करता समूचा खंड काव्य है जिसके साथ मांड गायिकी की पूरी परंपरा चली आती थी। जब पहली बार सुना तो लगा था, इससे बेहतर कुछ नहींं हो सकता । खैर, अब नया जमाना है, नई सोच है मेहमानों को बुलाने के लिए नई पंक्ति आई है जाने कब क्या दिख जाए। यूं भी हम सब चौंकने के मूड में रहते हैं, किसी अचानक, अनायास की प्रतीक्षा में ।    ...और जब सैर-सपाटे पर हों तो और भी ज्यादा। कभी रेगिस्तान में दूर तक रेत  के धोरे हों, कभी यकायक ओले गिर जाएं, कभी पतझड़ की तरह पत्ते झडऩे लगे और कभी बूंदे ही बरसने लगे। यही तो मौसम का मिजाज है इन दिनों हमारे यहां। इस  कैंपेन के जनक  एड गुरु पीयूष पाण्डे  हैं। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान उन्होंने बताया कि मेहमान आ नहीं रहे थे  इसलिए बदलना पड़ा।  खैर यह बहस का म

आंदोलन की आड़ में अस्मत

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मुरथल के हालात बताते हैं कि आधी दुनिया के लिए शेष आधी दुनिया अब भी उपभोग की वस्तु है। जिसे जब भी मौका मिलेगा वह उसे दबोच लेगा। यह भयावह है कि आंदोलन का एक हथियार यह भी था। अव्यवस्था और अविश्वास का आलम देखिए कि पीडि़त को ना तो पुलिस पर भरोसा है और ना व्यवस्था पर। कोई सामने नहीं आ रहा। एक पीडि़ता सामने आई है जिन्होंने अपने देवर को भी दुष्कर्म के गुनाह में शामिल किया है। पुलिस को लगता है कि ये पारिवारिक मामला हो सकता है। किसके खिलाफ लिखाएं रिपोर्ट? कौन सुनवाई करेगा, कहां-कहां अपने जख्मों को दिखाएंगी वे? आठ मार्च महिला दिवस  से  जुड़े सप्ताह में एेसी कहानियां कौन लिखना चाहता है लेकिन समय तो जैसे वहीं रुका हुआ है। वह सभ्य होना ही नहीं चाहता। बर्बरता उसकी रग-रग में समाई है।   टंकी में जा छिपी लड़कियां ये वाकई दहलाने वाला है कि दिल्ली से 50 किमी दूर सोनीपत जिले में मुरथल एक सैर-सपाटे की जगह है जहां अकसर परिवार और जोड़े घूमने के लिए जाया करते हैं। बाईस और २३ फरवरी के दरम्यान जाट आंदोलन के दौरान तीन ट्रक चालकों ने कहा है कि उन्होंने देखा है कि आंदोलनकारी महिलाओं को गाडि़यों से खींच

ये राष्ट्रवाद और ये राष्ट्रद्रोह

साल 1947 में मिली आजादी खून में लिपटी हुई थी। बंटवारे ने आजाद देश तो बनाए, लेकिन वे अपनों के ही खून से रंगे हुए थे। हम चाहकर भी इसे भुला नहीं सकते। आजादी के बाद सांस ले रही तीसरी किशोर पीढ़ी भी इस पीड़ा से मुक्त नहीं है। नतीजतन, हम इस नफरत की आग से घिरे हुए हैं और पाकिस्तान, ये नाम ही हमारे खून में उबाल लाने के लिए काफी है। देशभक्ति की तमाम परिभाषाएं इस मुल्क में विरोध के आसपास सिमट गई हैं। टीवी चैनल्स भी दोनों तरफ के नुमाइंदों को बैठाकर इस कदर चीखते-चिल्लाते हैं कि लगता है यही सही है। अपशब्दों की जुगाली कइयों  की रोजी है। हाल में कु छ एेसा भी हो गया है कि पाकिस्तान का विरोध देशभक्ति है और पाकिस्तान के हक में बोल जाना देशद्रोह। क्या राष्ट्रवाद की इतनी सीमित परिभाषा के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने कुर्बानी दी होगी कि आजादी के बाद इतने साल साल नफरत की आग पर बने मुल्क को कोसते हुए बिता दो। सच है कि हमने युद्ध भी लड़े हैं लेकिन लड़ाई तो चीन ने भी हमसे की? इन दिनों हम क्या कर रहे हैं? इसी आधार पर अपने विद्यार्थियों से जूझ रहे हैं। असहमति के लिए कोई जगह नहीं है हमारे पास।