ये राष्ट्रवाद और ये राष्ट्रद्रोह
साल
1947 में मिली आजादी खून में लिपटी हुई थी। बंटवारे ने आजाद देश तो बनाए,
लेकिन वे अपनों के ही खून से रंगे हुए थे। हम चाहकर भी इसे भुला नहीं सकते।
आजादी के बाद सांस ले रही तीसरी किशोर पीढ़ी भी इस पीड़ा से मुक्त नहीं
है। नतीजतन, हम इस नफरत की आग से घिरे हुए हैं और पाकिस्तान, ये नाम ही
हमारे खून में उबाल लाने के लिए काफी है। देशभक्ति की तमाम परिभाषाएं इस
मुल्क में विरोध के आसपास सिमट गई हैं। टीवी चैनल्स भी दोनों तरफ के
नुमाइंदों को बैठाकर इस कदर चीखते-चिल्लाते हैं कि लगता है यही सही है।
अपशब्दों की जुगाली कइयों की रोजी है। हाल में कु छ एेसा भी हो गया है कि
पाकिस्तान का विरोध देशभक्ति है और पाकिस्तान के हक में बोल जाना देशद्रोह।
क्या राष्ट्रवाद की इतनी सीमित परिभाषा के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों
ने कुर्बानी दी होगी कि आजादी के बाद इतने साल साल नफरत की आग पर बने
मुल्क को कोसते हुए बिता दो। सच है कि हमने युद्ध भी लड़े हैं लेकिन लड़ाई
तो चीन ने भी हमसे की?
इन दिनों हम क्या कर रहे हैं? इसी आधार पर अपने विद्यार्थियों से जूझ रहे हैं। असहमति के लिए कोई जगह नहीं है हमारे पास। कोई उस मुल्क को जिंदाबाद कह रहा था, कोई आतंकवादी इस बरसी के आयोजन को सपोर्ट कर रहा था इस आधार पर हम पूरे विश्वविद्यालय को कटघरे में खड़ा नहीं कर सकते। बेशक आतंकवाद और आतंकवादी के समर्थकों की जगह समाज से बाहर है लेकिन फांसी जैसी बर्बरता को बरकरार रखा जाए या नहीं इस पर तो बहस हो ही सकती है। एक सहिष्णु देश में इस पर पूरी बहस करने का अधिकार हम सबको है। यहां दोहराना जरूरी है कि अगर आतंकवाद का समर्थन और देश के खिलाफ नारेबाजी साबित होती है तो जरूर कार्रवाई होनी चाहिए।
पाकिस्तान का नाम लेना इतना ही बड़ा गुनाह है तो क्यों हमारे देश के लोकप्रिय लीडर वहां जाकर जन्मदिन की बधाई देते हैं। उनकी माताजी को शॉल भेंट करते हैं। क्यों वे भी यहां आकर शपथ समारोह का हिस्सा बनते हैं? ये बर्फ पिघलाने की कोशिश करें तो दुनिया के समझदार लीडर्स और जो इनके देशवासी करें तो दोषी? कोई पाकिस्तानी खिलाड़ी की तारीफ करे या टीम को जीत के काबिल बताए तो देशद्रोही। राष्ट्रवाद की इस परिभाषा को बदलने की जरूरत है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भावनाओं का ज्वार ज्वर में बदल चुका है। विश्वविद्यालय और उसके विद्यार्थियों पर बेहिसाब आरोपों की गोलियां हैं। सही समय है कि हमें तय करना होगा कि ये पड़ोसी मुल्क हमारा जानी दुश्मन है। हमारे सैनिक शांतिकाल में भी लगातार कश्मीर में शहीद हो रहे हैं। मौसम से लड़ाई वे सियाचिन में लड़ते हैं। माइनस पचास डिग्री तक के तापमान में अब तक हमारे नौ सौ शहीदों में से अस्सी फीसदी मौसम का शिकार हुए हैं। पठानकोट जैसी घटनाएं भी हो रही हैं। एेसे में हमें आर-पार की लड़ाई लडऩी चाहिए। विद्यार्थियों को भी ये स्पष्ट होना चाहिए कि पाकिस्तान की बात करना ही गुनाह है, देशद्रोह है। इस दुविधा या कन्फ्यूजन को दूर होना चाहिए कि हमारा दुश्मन देश पाकिस्तान ही है। किसी को नागरिकता देने, गीता को लौटा लाने की पहल जैसे भाव युवाओं को भ्रमित करते हैं।
मेरे पुरखे सिंध से विभाजन के दौरान भारत आए थे। अपना सब कुछ छोड़कर हिंदुस्तान आने के लिए मजबूर सिंधियों का दिल अब भी सिंध में रखा है। वे सिंध को खूब याद करते हैं और अब भी सिंधी सम्मेलनों में वही गीत, वही नाटिकाएं मंचित होती हैं, जो देखने वालों को सिंध की याद में रुला देती हैं। क्या वे देशद्रोही हो गए? वैसे वे पाकिस्तान से नफरत करते हैं। उन्हें लगता है कि इसी पाकिस्तान के कारण उन्हें अपना अबाणा (अपनी जमीन) छोडऩी पड़ी थी। भारत की सहिष्णुता और उनके व्यवहार ने उन्हें कभी महसूस नहीं होने दिया कि वे बेघर या शरणार्थी हैं, जबकि पाकिस्तान के कई शोधार्थी यह जानना चाहते हैं कि क्या यहां सिंधी-पंजाबियों के साथ मुहाजिरों जैसा बर्ताव नहीं होता। खैर, विषय से भटकने का एकमात्र मकसद यही था कि हम कुछ चीजों को पूरी तरह काटकर रखना चाहने के बावजूद काट नहीं पाते।
बहरहाल, पुणे, अलीगढ़ हैदराबाद के बाद दिल्ली के विद्यार्थी निशाने पर हैं। सारे विद्यार्थियों में खोट है क्या? कहीं हमारे चश्मे पर ही तो धुंध नहीं छा गई है?
इन दिनों हम क्या कर रहे हैं? इसी आधार पर अपने विद्यार्थियों से जूझ रहे हैं। असहमति के लिए कोई जगह नहीं है हमारे पास। कोई उस मुल्क को जिंदाबाद कह रहा था, कोई आतंकवादी इस बरसी के आयोजन को सपोर्ट कर रहा था इस आधार पर हम पूरे विश्वविद्यालय को कटघरे में खड़ा नहीं कर सकते। बेशक आतंकवाद और आतंकवादी के समर्थकों की जगह समाज से बाहर है लेकिन फांसी जैसी बर्बरता को बरकरार रखा जाए या नहीं इस पर तो बहस हो ही सकती है। एक सहिष्णु देश में इस पर पूरी बहस करने का अधिकार हम सबको है। यहां दोहराना जरूरी है कि अगर आतंकवाद का समर्थन और देश के खिलाफ नारेबाजी साबित होती है तो जरूर कार्रवाई होनी चाहिए।
पाकिस्तान का नाम लेना इतना ही बड़ा गुनाह है तो क्यों हमारे देश के लोकप्रिय लीडर वहां जाकर जन्मदिन की बधाई देते हैं। उनकी माताजी को शॉल भेंट करते हैं। क्यों वे भी यहां आकर शपथ समारोह का हिस्सा बनते हैं? ये बर्फ पिघलाने की कोशिश करें तो दुनिया के समझदार लीडर्स और जो इनके देशवासी करें तो दोषी? कोई पाकिस्तानी खिलाड़ी की तारीफ करे या टीम को जीत के काबिल बताए तो देशद्रोही। राष्ट्रवाद की इस परिभाषा को बदलने की जरूरत है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर भावनाओं का ज्वार ज्वर में बदल चुका है। विश्वविद्यालय और उसके विद्यार्थियों पर बेहिसाब आरोपों की गोलियां हैं। सही समय है कि हमें तय करना होगा कि ये पड़ोसी मुल्क हमारा जानी दुश्मन है। हमारे सैनिक शांतिकाल में भी लगातार कश्मीर में शहीद हो रहे हैं। मौसम से लड़ाई वे सियाचिन में लड़ते हैं। माइनस पचास डिग्री तक के तापमान में अब तक हमारे नौ सौ शहीदों में से अस्सी फीसदी मौसम का शिकार हुए हैं। पठानकोट जैसी घटनाएं भी हो रही हैं। एेसे में हमें आर-पार की लड़ाई लडऩी चाहिए। विद्यार्थियों को भी ये स्पष्ट होना चाहिए कि पाकिस्तान की बात करना ही गुनाह है, देशद्रोह है। इस दुविधा या कन्फ्यूजन को दूर होना चाहिए कि हमारा दुश्मन देश पाकिस्तान ही है। किसी को नागरिकता देने, गीता को लौटा लाने की पहल जैसे भाव युवाओं को भ्रमित करते हैं।
मेरे पुरखे सिंध से विभाजन के दौरान भारत आए थे। अपना सब कुछ छोड़कर हिंदुस्तान आने के लिए मजबूर सिंधियों का दिल अब भी सिंध में रखा है। वे सिंध को खूब याद करते हैं और अब भी सिंधी सम्मेलनों में वही गीत, वही नाटिकाएं मंचित होती हैं, जो देखने वालों को सिंध की याद में रुला देती हैं। क्या वे देशद्रोही हो गए? वैसे वे पाकिस्तान से नफरत करते हैं। उन्हें लगता है कि इसी पाकिस्तान के कारण उन्हें अपना अबाणा (अपनी जमीन) छोडऩी पड़ी थी। भारत की सहिष्णुता और उनके व्यवहार ने उन्हें कभी महसूस नहीं होने दिया कि वे बेघर या शरणार्थी हैं, जबकि पाकिस्तान के कई शोधार्थी यह जानना चाहते हैं कि क्या यहां सिंधी-पंजाबियों के साथ मुहाजिरों जैसा बर्ताव नहीं होता। खैर, विषय से भटकने का एकमात्र मकसद यही था कि हम कुछ चीजों को पूरी तरह काटकर रखना चाहने के बावजूद काट नहीं पाते।
बहरहाल, पुणे, अलीगढ़ हैदराबाद के बाद दिल्ली के विद्यार्थी निशाने पर हैं। सारे विद्यार्थियों में खोट है क्या? कहीं हमारे चश्मे पर ही तो धुंध नहीं छा गई है?
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 18-02-2016 को वैकल्पिक चर्चा मंच पर दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ब्लॉग बुलेटिन और कैलाश नाथ काटजू में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
जवाब देंहटाएंdilbag ji aur harshvardhanji aapka bahut shukriya.
जवाब देंहटाएंवर्षा जी, अब समय आ गया है कि हमें राष्ट्रवाद और राष्ट्रद्रोह को परिभाषित करना होगा। दंगाफसाद करने से किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता। बढिया प्रस्तुति!
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