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अच्छे लगे पीकू के बाबा

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पीकू कब्ज की चर्चा पर बनी ऐसी फिल्म है कि अच्छे-अच्छों की सोच में जमा बरसों बरस का पाखाना साफ कर सकती है। मुख्य किरदार पीकू भले ही पिता की मां बनकर तीमारदारी करने वाली बेटी हो, लेकिन जब पिता बेटी के लिव इन या वर्जिनिटी पर सहजता से चर्चा करता है तो फिल्म बहुत ही व्यापक कैनवस ले लेती है। पीकू के पिता अपनी मृत पत्नी को खूब शिद्दत से याद करते हैं, लेकिन इस भाव के साथ कि उसने अपनी सारी जिंदगी मेरे लिए खाना पकाने और मेरी दूसरी जरूरतें पूरी करने में समर्पित कर दी। वह काबिल महिलाओं के यूं अपनी जिंदगी होम कर देने को लो आईक्यू वाली कहते हैं। उन्हें आश्चर्य है कि रानी लक्ष्मी बाई, सरोजिनी नायडू और एनी बेसेंट के देश में ये कैसा समय आया है जो पढ़ी-लिखी स्त्रियां अपने जीवन को एक स्टुपिड रुटीन में तब्दील कर देने पर आमादा हैं। पीकू उनकी पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर बेटी है और वे बिल्कुल नहीं चाहते कि ब्याह-शादी के नाम पर उनकी बेटी भी ऐसी ही शोषित जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो जाए। कथा यहीं नहीं रुकती, वह पीकू की चाची के उस भाव में भी अभिव्यक्त होती है कि अगर एक दिन उनकी शादी देर से होती तो वह अपना इम्

माँ पर नहीं लिखी जा सकती कविता

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मां के प्रेम और समर्पण को यहां लिखा कोई शब्द हूबहू बयां नहीं कर सकता। मां वह है जो अपनी जान देकर भी अपने दिल को बच्चे में धड़कते देखना चाहती है। इसे हिंदी फिल्म हार्टलेस में पूरी संवेदना के साथ दिखाया गया है। वह खुद को खत्म कर अपना दिल बीमार बेटे में लगवाती है। मां  बच्चे से अगर कुछ चाहती है तो वह है उसकी सलामती उसकी सेहत। मालवा के कवि चंद्रकांत देवताले सही लिखते हैं कि मैं नहीं लिख सकता मां पर कविता क्योंकि मां ने केवल मटर, मूंगफली के नहीं अपनी आत्मा, आग और पानी के छिलके उतारे हैं मेरे लिए। वाकई मां शब्द-शिल्पियों के लिए चुनौती है। संकट शब्दों का है, साहित्यकारों का है। मां तो निर्बाध नदी की तरह अपना सब कुछ अपने बच्चों पर वारती है, कुर्बान करती है, न्यौछावर करती है।                बदलते वक्त में मां की भूमिका भी बदली है। अब तक भारतीय समाज में एक लड़की की तरबियत ऐसी ही की जाती थी कि वह शादी के बाद ससुराल में सबकी सेवा करते हुए अपने बच्चों का लालन-पालन करे। उसकी समूची टे्रनिंग ऐसी होती थी कि वह एक बेहतरीन बीवी, बहू और मां साबित हो। काम पर जाने वाले पुरुषों के तमाम हितों का खयाल