अच्छे लगे पीकू के बाबा





पीकू कब्ज की चर्चा पर बनी ऐसी फिल्म है कि अच्छे-अच्छों की सोच में जमा बरसों बरस का पाखाना साफ कर सकती है। मुख्य किरदार पीकू भले ही पिता की मां बनकर तीमारदारी करने वाली बेटी हो, लेकिन जब पिता बेटी के लिव इन या वर्जिनिटी पर सहजता से चर्चा करता है तो फिल्म बहुत ही व्यापक कैनवस ले लेती है। पीकू के पिता अपनी मृत पत्नी को खूब शिद्दत से याद करते हैं, लेकिन इस भाव के साथ कि उसने अपनी सारी जिंदगी मेरे लिए खाना पकाने और मेरी दूसरी जरूरतें पूरी करने में समर्पित कर दी। वह काबिल महिलाओं के यूं अपनी जिंदगी होम कर देने को लो आईक्यू वाली कहते हैं। उन्हें आश्चर्य है कि रानी लक्ष्मी बाई, सरोजिनी नायडू और एनी बेसेंट के देश में ये कैसा समय आया है जो पढ़ी-लिखी स्त्रियां अपने जीवन को एक स्टुपिड रुटीन में तब्दील कर देने पर आमादा हैं।
पीकू उनकी पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर बेटी है और वे बिल्कुल नहीं चाहते कि ब्याह-शादी के नाम पर उनकी बेटी भी ऐसी ही शोषित जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो जाए। कथा यहीं नहीं रुकती, वह पीकू की चाची के उस भाव में भी अभिव्यक्त होती है कि अगर एक दिन उनकी शादी देर से होती तो वह अपना इम्तिहान दे पातीं। एक पारंपरिक बांग्ला परिवार में आधुनिक सोच के बावजूद कुछ ऐेसे पैबंद दिखाए गए हैं जो कई समाजों का पूरा-पूरा सच है। पति के आसपास पूरी जिंदगी समेट देने वाली ये स्त्रियां जब अपने लिए जागती हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। जीवन की अपनी रफ्तार है वह अवसर देने के बाद रुकता नहीं है। हमारा साहस इंटेलीजेंस उस समय बड़ी भूमिका अदा करता है।
बांग्ला परिवार की इस सोच को झुंपा लाहिरी का उपन्यास 'द लो लैंड'  बेहतर अभिव्यक्त करता है। पारंपरिक बांग्ला परिवार जब अमेरिका जाकर बसते हैं तो धीमे-धीमे कैसे उनके बच्चे इन खोलों से निकलकर अपने वजूद के लिए संघर्ष करते हैं। स्कूल, कॉलेज, रिश्ते, विवाह इन सबमें वे एक जबरदस्त बदलाव को आत्मसात करते हैं लेकिन उनकी जड़ें कभी उनके लिए मजबूती का आधार बनती हैं तो कहीं जकड़ भी लेती  हैं। भारतीय समाज आज ऐसे ही द्वंद से गुजर रहा है।

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