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त हल्का

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जयपुर से प्रकाशित डेली न्यूज़ की साप्ताहिक पत्रिका खुशबू http://dailynewsnetwork.epapr. in/190567/khushboo/27-11-2013# page/1/2   इस घटना से पहले तक तरुण तेजपाल धारदार ब्रितानी अंग्रेजी में अपनी बात रखने वाले शानदार वक्ता और लेखक  थे। एेसा वक्ता, जो बात कहते हुए कभी- क भार  पंजाबी धुनों पर सवार हो क र थोड़ा मनमौजी हो जाता था। पचास साल के  इस लेख क -पत्र कार की  पकड़ यदि भारत के  एलीट क्लास पर थी तो उतना ही दखल कमजोर तबके  पर भी था। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में क ई बार इस चोटीवाले, ऊंचे क द के  गोरे चिट्टे शख्स को  सुना। जिस कि ताब के  अंश उन्होंने यहां पढे़, उसमें ए क कि शोर उम्र का  बाल क था और था असहज क रता टेक्स्ट। बहरहाल, इस गोरे चिट्टे शख्स पर आज दागदार इल्जाम लगे हैं। शायद इल्जाम क हना गलत होगा यह तो सच्चाई है, क्योंकि स्वयं तेजपाल इसे स्वीकार  चुके  हैं और अपनी प्रबंध संपादक और पत्रकार लड़की  दोनों से माफी  मांग चुके  हैं और स्वयंभू न्यायाधीश बनकर खुद को छह महीने तक  पद से अलग रखने का  फैसला भी कर चुके  हैं। .... और फिर ज्यों ही पता चलता है कि फैसला भारतीय क़ानून के

बिज्जी का जाना वाल्मिकी और वेदव्यास का जाना है

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विजय दान देथा 'बिज्जी' का जाना हमारे बीच से वाल्मिकी और वेदव्यास के  चले जाने से कम नहीं। रचना में जितनी गहराई व्यक्तित्व में उतनी ही सादगी। वे कतई अपने कद का बोझ लिए नहीं चलते। बातचीत से कभी कोई आभास नहीं कि  उन्होंने कुछ एेसा रचा है जिसके  लिए बड़े-बडे़ फिल्मकार उनकी  ड्योढ़ी चढ़ते हैं। जोधपुर में बिताए बीसवीं सदी के अंतिम तीन बरसों में जब कभी वे सड़कों  पर भी टकराए तो सादगी और विनयशीलता उनके  कंधे से लटके  झोले की तरह ही मिलती । एक  बार वे लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी  के घर से निकले ही थे कि  सामने मैं पड़ गई। गौरतलब है कि  कोमल कोठारी के  साथ मिलकर बिज्जी ने रूपायन संस्था बनाई, जो राजस्थान की  लोक  संस्कृति को  सहेजने का बड़ा काम कर रही थी। पूछने पर कि  चलिए मैं छोड़ देती हूं थोड़ी ना-नुकुर के  बाद वे मोपेड की  पिछली सीट पर बैठ गए और मैंने उनकी  बताई जगह पर छोड़ दिया जो ज्यादा दूर नहीं थी। जिंदगी एेसे मौके  कहां रोज मुहैया कराती है। बहरहाल, लोक साहित्य को  लोकभाषा में कलमबद्ध करनेवाले  बिज्जी इस लिहाज से भी अनूठे थे, क्योंकि अक्सर साहित्यकारों के आसपास उनका