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क्या यह निज़ाम शांतिपूर्ण विरोध की ज़ुबां समझता है ?

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निर्दोष लोगों को जब यूं पिटते ,जेल जाते और मरते देख रही हूँ तो सोचती हूँ कि क्या वाक़ई यह निज़ाम शांतिपूर्ण विरोध की ज़ुबां समझता है ? गमला भी वही अच्छा माना जाता है जिसमें पानी की निकासी का छेद ज्यादा बड़ा न हो वरना सारा पानी बह जाएगा और पौधा जीवित नहीं रहेगा। कहीं पढ़ा था कि बापू की अहिंसा और सत्याग्रह को समझने का जो माद्दा ही अगर अंग्रेज़ सरकार में ना होता तो शायद आज़ादी मुमकिन नहीं थी। फिर भी निजी तौर पर मुझे लगता है कि वह बापू का क़द था जो इस गौरी सरकार को झुकाने में क़ामयाब हुआ। उनकी पारदर्शिता, परमार्थ और नैतिक बल ने उनके दुश्मनों को भी उन्हीं के सामने पिघलने पर मजबूर किया। हमारे देश के राज्यों के गमलों  के छेद बहुत बड़े हैं।  उत्तरप्रदेश,कर्नाटक और दिल्ली  के गमलों के छेद ना केवल बड़े हैं बल्कि ये गमले ही जड़ों को कस रहे हैं, काट रहे हैं। शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन वहां  के लिए मायने रखता है जहाँ उसकी इज़्ज़त हो ,उसे समझ पाने का मानस हो।  हम उनसे वफ़ा की उम्मीद कर रहे हैं जो ये जानते ही नहीं कि यह है क्या।  कोई अपने बंधुओं को ढूंढ़ने गया तो पीट दिया गयाऔर गिरफ़्तार कर लिया गया, किसी माता-पिता

आओ नागरिक यहाँ आकर पकौड़े तलो !

वे बुनियादी काम भी करते हैं तो कुछ इस अंदाज़ में कि सांप्रदायिकता का ज़हर खौलते  रहना चाहिए। फ़िलहाल वह जगह लोकतंत्र का मंदिर है। जो यह अंगीठी पर खौलता रहेगा तो नथुनों में जाएगा। शाम को टीवी चैनलों को बहस का नया मुद्दा मिलेगा। ऐसा नहीं है कि वे काम नहीं करते, करते हैं लेकिन इस मुद्दे के अलाव को बुझने नहीं देना चाहते। जो आपने इसे बूझ लिया तो सब समझ जाओगे। डर जाता रहेगा किसी से उम्मीद नहीं करोगे। अपने देश को ख़ुद बनाओगे जैसा चाहोगे। बात नागरिकता संशोधन अधिनियम  CAB  की ही है। कुल जमा दो लोगों को यह तय करने का फ़ितूर सवार है कि वे अब नागरिकता भी बाटेंगे न केवल देशवासियों को बल्कि पड़ोसी देश के निवासियों को भी। क्यों भई क्यों दोगे हमारा हक़ किसी और मुल्क को और सच तो यह है कि आप तो हमें  हमारा ही हक़ नहीं दे पा रहे। किसान परेशान है, युवा बेरोज़गार है, महिला पीड़ित है और अर्थव्यवस्था गर्त में है और आपको पड़ोस से नागरिक बुलाकर  क़ानून बनाने की फिक्र हो रही है। न लिखो आप मुसलमान का  नाम इस बिल में आप औरों को भी  ख़ैरात क्यों बाँट रहे हो  ? ये दूसरे देश के अल्पसंख्यकों की फ़िक्र भी झूठी है क्योंकि आप उस

मेरा बेटा पाकिस्तानी नहीं है-तवलीन सिंह

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आतिश तासीर  तस्वीर साभार इंडिया टुडे  तवलीन सिंह, पत्रकार  वरिष्ठ पत्रकार तवलीन सिंह का इंडियन एक्सप्रेस अख़बार में प्रकाशित लेख पढ़ते हुए हैरानी भी होती है और दुःख भी । हैरानी इसलिये  कि एक अख़बारनवीस को इतना डरा हुआ क्यों होना चाहिए और दुःख इस बात का कि पत्रकार की क़लम से माँ का आहत हृदय बोल रहा था। उनके बेटे आतिश तासीर ने चुनाव से ठीक पहले एक लेख क्या लिखा सरकार ने उन्हें भारतीय मानने से ही इनकार कर दिया। सरकार से असहमत आवाज़ को चुनौती दे ने  का यह मामला अंतरराष्ट्रीय इसलिए बन भी बन गया है  क्योंकि आतिश का जन्म लंदन में हुआ, पिता सलमान तासीर पाकिस्तानी थे तो माँ हिंदुस्तानी। .. और  इंडियाज़ डिवाइडर इन चीफ शीर्षक से उनकी एक कवर स्टोरी  अमेरिका की टाइम मैगज़ीन में  प्रकाशित हुई थी और शायद इसी के बाद भारत सरकार का उनके प्रति देखने का नज़रिया भी  बदल गया। यह स्टोरी  ठीक आम चुनाव से पहले प्रकाशित हुई थी, इसलिए  ऐसा मानने में किसी को शुबहा नहीं है कि यह द्वेषभाव के चलते ही हुआ हो ।                    सरकार का कहना है कि आतिश ने यह तथ्य छिपाया है कि उनके पिता पाकिस्तानी हैं और नागरिकता

अभिजीत के नोबेल के साथ कुछ और भी आया है

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अभिजीत बनर्जी और उनकी पत्नी एस्थर डफ्लो   को अर्थशास्त्र का नोबेल मिलना बेशक़ भारतवासियों के लिए बड़ी ख़ुशख़बर है और यह ऐसे समय आई है जब एक पक्ष पूरी तरह से यह स्थापित करने में क़ामयाब हो रहा था कि एक अच्छा इवेंट कर लेना ही  दुनिया में   भारत  का   डंका बजने का प्रमाण है । लोगों की भीड़ अगर किसी की हर अदा पर  जो फ़िदा हो तो वही सही है, वही सिद्ध है। टीवी चैनलों की बहस में रात को चार-छः लोगों को बैठाकर जो मुद्दा चीख़ चीख़ कर बना दिया जाए, वही मुद्दा है बाक़ी सब ज़रूरतें बेकार हैं ,खामखां हैं। ऐसे में जब कोई सर खुजाते हुए कहीं अफ़सोस या तकलीफ़ भी ज़ाहिर करना चाह रहा होता तो उसे कोई तवज्जो नहीं, महत्व  नहीं । आजू-बाजू के लोग भी उसे गरिया देते तो वह  तकलीफ़ से और घुटने लगता।  उसके  मन की बात के लिए कोई मंच नहीं था । उसे यह भी अहसास होने लगा था कि एक वही इस तरह से क्यों सोच रहा है। लोग तो नोटेबंदी से भी ख़ुश हैं, पकोड़े तलने की बात से भी और प्रतिष्ठित JNU को टुकड़े-टुकड़े गैंग बता कर भी। मॉब लिंचिंग ,दुष्कर्म , NRC जो कि नागरिकता का राष्ट्रिय रजिस्टर है उस पर गंभीर चिंतन की बजाय  दो फाड़ कर देने के मक़स

जोकर के पंच हंसाते नहीं दिल पर लगते हैं

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joker movie : a still from the film फ़िल्म जोकर देखी । हॉलीवुड सिनेमा के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं इसलिए सीधे जो देखा उसी पर बात  करूंगी। जोकर के क़िरदार में वॉकीन फीनिक्स की अभिनय कला काफ़ी ऊंचे पायदान पर जाती दिखाई देती है। आँख, नाक, होंठ के साथ  जोकर का समूचा शरीर अभिनय में दक्ष है। यह काबीलियत जोकर को नई लयताल में पेश करती  है। बेशक वह अपने दुखी पलों में सबसे ज़्यादा हंसना और हँसाना चाहता है।  इस कलाकार का नाच भी दर्शक को मुग्ध रखता है। ख़ासकर जो सीढ़ियों पर है , उन्हीं सीढ़ियों पर जिन पर कभी वह थक कर चढ़ता था। ऑर्थर फ्लेक यही नाम है उस ग़रीब नौजवान का जो अपनी बुज़ुर्ग माँ के साथ रहता है। माँ का ध्यान रखता है,वक़्त पर दवा देता है ,खाना खिलाता है और नहलाता भी है। ऑर्थर को कुछ मानसिक बीमारियां है जिसका इलाज सामाजिक संस्था और अस्पताल मिलकर करते हैं। वह मसखरा है और छोटा-मोटा काम भी उसे मिला हुआ। वह साधन संपन्न नहीं फिर भी सदा मुस्कुराते हुए जीवन के महासमर को पार करने का माद्दा रखता है। एक दृश्य में ऑर्थर बस में सवार है ,एक नन्हीं बच्ची उसकी ओर उदास निगाहों से देख रही है। आदतन वह

सच का सूत

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दिल कहता है  तुम लिखो  फूल, पत्तों, परिंदों, प्रेम की बात  दिमाग़ कहता है  लिखो तकलीफ़  लिखो भीड़ में घिरने की बात  लिखो 'एनआरसी'  के पन्नों में छिपे नश्तरों को  लिखो इंसान को इंसान से  मिलने पर रोक की दास्तान  को  लिखो संवाद के विवाद में  बदलने के मंज़र को  लिखो उस नाम को  जिसे बताने में उसे डर लगता है  लिखो बच्चे को मोहल्ले से बाहर भेजती हुई  माँ के कांपते कलेजे को और बाप की दुविधा को  लिखो  कि वह बच्चे को ऐसा मंतर पढ़ाना चाह रहे जो मुसीबत में काम आए।  क्या कहा  नहीं लिखोगी  तो मत लिखो  तुम किसी क़ाबिल नहीं  दिलो दिमाग़ कुंद हैं तुम्हारे  तुम सो जाओ  जो ज़िंदा रही  तो ख़्वाब में ढूंढ लेना  परिंदो की परवाज़  और ओस की बूंदों से  पवित्र इरादों को।  शायद न मिलें वहां भी  स्वप्न को सवार होने के लिए  भी सच का एक सूत तो चाहिए ही। 

ये सुबह फ़ीकी है निस्तेज है

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बहुत इंतज़ार के बाद आख़िर सुबह सवा आठ बजे फ़ोन किया।  यह आशंका में घिरा फ़ोन था। मैंने पूछा- "नमस्कार, सब ठीक ?" उधर से डूबी हुई आवाज़ आई -"माँ expire हो गई हैं आज नहीं आ पाऊंगा। "मेरी आवाज़ भी जैसे बैठ गई फिर भी बोली -ओह माँ को हमारे भी श्रद्धा सुमन ,मैंने  डरते हुए ही कॉल किया था क्योंकि आप ख़ुद इतने नियमित और समर्पित हो कि ... इससे आगे कुछ कह नहीं पाई। कहना चाहती थी कि आप जब तक ना चाहो, ना आना। ये पैसे भी महीने  के बिल में जोड़ लेना। आप कहाँ रहते हो ? पूछना चाहती थी कि माँ को क्या हुआ ,कोई बीमारी थी लेकिन न कुछ पूछा ना कहा। सुबह जैसे अँधेरा दे गई। photo credit : udaipur times.com ये हमारे न्यूज़पपेर हॉकर हनुमान सैनी जी हैं जो बरसों से हमें अख़बार दे रहे हैं। मुंह अँधेरे अख़बार दे जाने की आदत में पता नहीं कितना हिस्सा क़ायदे का है। सामने के मकानों की बालकनी में अख़बार इतने सटीक ढंग से उछालते हैं कि कभी  नहीं चूकते। ये अख़बार बंद करना है और दूसरा शुरू करना है, इस काम में  भी नहीं। भुगतान लेते समय भी  ये अनुमान लगा के चलते हैं कि कितनी रेज़गारी उन्हें देनी पड़ सकती है। थोड़े

आधा विकास पूरे मुद्दे

भंवर के छोटे भाई की नौकरी जा चुकी है,नई मिल नहीं रही। नया निवेश नहीं ,नई कंपनी नहीं, नई पीढ़ी को भी रोज़गार नहीं। नतीजतन हर तरफ़ निराशा। शांत ... निराशा नहीं। किस बात की निराशा। भंवर को भी निराशा थी लेकिन दिमाग़ के किसी हिस्से में सुकून भी था। उसे शायद यह अहसास करा दिया गया था। असम की NRC से घुसपैठियों से हमेशा के लिए मुक्ति के साथ ही  कश्मीर की एकमात्र मुसीबत धारा 370 अब धाराशाई है।  कश्मीर अपने क़रीब आ गया है लेकिन  कश्मीरियों के बारे में अभी मत पूछना। असम जैसा कढ़ाव अभी और राज्यों में भी तो सुलगाना है। सब को साबित करने में लगा दो कि वे यहीं के हैं। अयोध्या में अपना भव्य मंदिर भी तो बनेगा। मत पूछना कि मंदिर मुद्दे से तहज़ीब का  कितना  ध्रुवीकरण हुआ । जो भी हो आधी रोटी खाएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे। आधी रोटी खाएंगे धारा 370 हटाएंगे।  GDP भी आधी हो गई। होने दो। नाहक़  ही नौकरी-नौकरी का राग अलाप रहे हो।  पूरा ध्रुवीकरण भी तो कभी नहीं हुआ था। हम सब काम करंगे। जो भी कहा था सब। तुम आधे पेट के साथ तैयार रहना। घटने दो सब। स्वाभिमान नहीं घटना चाहिए। भंवर ख़ुश था कि अब किसी से डरना नहीं है ,वह सोने की को

क्या मुंशी प्रेमचंद की कल्पना में होंगे उन्नाव के ऐसे रसूख़दार

महान साहित्यकार मुंशी प्रेमचंद का जन्म जिला उन्नाव। उन्नाव मेरे भीतर इसी रूप में अंकित है लेकिन मैं पूरे यकीन से  कह सकती हूँ कि इस ज़िले की बेटी  के साथ जो भयावह अपराध हुआ है, रसूख़दारों के ऐसे जघन्यतम व्यवहार की कल्पना ख़ुद प्रेमचंद ने  भी नहीं होगी। कैसे समाज में तब्दील हो रहे हैं हम ? निर्भया बलात्कार के बाद मर जाती है और उन्नाव की यह बेटी सामूहिक बलात्कार के बाद किसी तरह बच जाती है तो सत्ता और तंत्र उसे अपने पहियों तले रौंद डालने  में  कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ते । यह लड़ाई एक ग़रीब परिवार और ताकतवर की लड़ाई है जिससे हारना मानवता की मौत होगा। तुम ज़िंदा रहना उन्नाव की बेटी।  अफ़सोस बस गहरे तक अफ़सोस। कुछ ना कर पाने का अफ़सोस।

उधर सौ साल और इधर ?

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अँगरेज़ हुकूमत ने ख़ून से नहला दी थी वह बैसाखी  आज बैसाखी है। उल्लास और उमंग का त्योहार लेकिन 100 साल पहले अंग्रेजों ने इसे ख़ूनी बैसाखी बना दिया था। निहत्थे और मासूम लोगों पर अमृतसर में ब्रिगेडियर जनरल (अस्थाई) रेजिनाल्ड डायर ने गोलियां बरसाकर बता दिया था कि वे दरअसल एक ख़ूनी फ़ौज हैं। गैर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 1600 निर्दोष इस हत्याकांड में मार दिए गए थे जबकि सरकार ने 379 मौतों की पुष्टि की थी।  इस दरिंदगी के 100 साल बाद  गोरों ने अफ़सोस जताया है लेकिन माफ़ी नहीं मांगी है। बीते बुधवार को ब्रितानी प्रधामंत्री  थेरेसा मे ने संसद में इस कुकृत्य पर अफ़सोस  प्रकट किया लेकिन माफ़ी नहीं मांगी।  इससे पहले प्रधानमंत्री डेविड कैमरून भी खेद जाता चुके हैं। हम भारतीय बरसों से माफ़ी की प्रतीक्षा में हैं। उन्होंने कहा कि जलियांवाला बाग़ हत्यकांड भारत और इंग्लैंड के इतिहास पर लगा शर्मनाक धब्बा है। यह अफ़सोस भी पूरे सौ साल बाद ज़ाहिर हो सका है, बेशक थेरेसा मे उस वक़्त पैदा भी नहीं हुईं थीं लेकिन ऐसा माना जाता है कि सरकार एक लगातार चलनेवाला सिलसिला है।   ख़ून तो हमारे अपनों ने भी अपनों का बहाया है लेकि

शिव की चली बारात

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शिव-शक्ति,  पेंटिंग -उदय चंद गोस्वामी    मुझे औघड़ बाबा का यह जीवन दृश्य बहुत प्रिय लगता है। वही थोड़ी ऊट -पटांग सी बारात वाला। कभी कोई पूछे तो इसी दृश्य को साक्षात् देखना चाहूंगी। बचपन में एक बार मंच पर शिवशंभू का  तांडव  देखा था और उसके बाद इंदौर में हेमा मालिनी की नृत्य  नाटिका दुर्गा । भोले बाबा का शिव तांडव। वाकई व्यक्तित्व का कितना गहरा विस्तार है नीलकंठ । पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शिव-शंकर  को वैरागी से गृहस्थ बनाने के लिए देवी शक्ति ने तपस्या की थी। विवाह में उनको दूल्हा बनकर आना था। अब जटाधारी ठहरे पूरे वैरागी। दूल्हा कैसे बना जाता है उन्हें कुछ मालूम नहीं। वे घोड़ी  के बजाय बैल पर चढ़कर आ गए। हार की बजाय नाग को गले में लपेट लिया। शरीर पर चंदन नहीं, भस्म मल ली। वस्त्र के नाम पर हिरण की छाल लपेट ली। अब महादेव के बाराती कौन होते।  उनमें कोई देवगण  नहीं बल्कि भूत पिशाच और राक्षस साथ आये। कैलाशवासी अमृत के बजाय विष पीते ही विवाह मंडप में पहुंच गए। यह सब हुआ महाशिवरात्रि की रात को। इसी दिन त्रिदेव  ने देवी की आराधना सुनकर वैरागी रूप तजकर सांसारिक जीवन चुन लिया। शिव -शक्ति यानी

गाली गलौज और बलात्कार जैसी घृणित टिप्पणियों का सोशल मीडिया

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जिस तरह से महिला पत्रकारों , सामाजिक कार्यकर्ताओं और राजनीतिज्ञों को गालियां दी जा रही है ,लिंग की तस्वीरें भेजी जा रही हैं और उनकी देह की नापतौल की जा रही है वह भीतर तक घृणा और जुगुप्सा से भर देता है। मुद्दों पर बोलने में तो इनकी  ज़ुबां तालू में धंस जाती है लेकिन सोशल मीडिया पर अपशब्द लिखने ,फोटोशॉप से उनकी नग्न तस्वीर बनाकर भेजने, उनके नामों को कॉल गर्ल की लिस्ट में जोड़ने की क़वायद में वे एक दूसरे को जबरदस्त टक्कर दे रहे हैं।  क्या ये लोग एक बार भी नहीं सोच पाते होंगे कि हम उनके दिमाग से की गयी बातों का जवाब उनकी देह पर टीका टिप्पणी से दे रहे हैं। पत्रकार राना अय्यूब  का चेहरा एक पोर्न एक्ट्रेस से रिप्लेस कर चलाया जाता है। पत्रकार सागरिका घोष भी ऐसे ही ट्रोल होती हैं। बरखा दत्त ज़रूर ऐसे लोगों को एक्सपोज़ करने में लगी हैं। बहुत संभव है कि आप पत्रकार बरखा दत्त की कश्मीरियों के प्रति उदारता से इत्तेफ़ाक़ ना रखते हों, कुछ और मसलों  पर भी आपकी नाराज़गी हो लेकिन बदले में तर्क रखने की बजाय आप तो जैसे बदले पर उतर आते हैं। यही तो कहा था उन्होंने कि इस संकटकाल में कश्मीरियों के लिए मेरे द

यह कैसी डेट

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अगर किसी जोड़े को डेट के लिए जेल का परिसर केवल इसलिए  मिलता है क्योंकि उनमें से एक  सरकार के ख़िलाफ़ टिप्पणी कर देता है तो यह कोई उदार सरकार का चेहरा तो नहीं कहा जा सकता   अपनी एक फैस बुक पोस्ट में वह लिखती है, आज वह डेट पर है। उम्र कोई हो, धड़कने इस मोड़ पर एक पाठक की भी थोड़ी व्याकुल हो ही जाती हैं लेकिन वहां पर न तो कोई रूमानी माहौल था और  ना कोई वैसा उत्साह जो कभी बीस साल पहले इम्फाल में रहते हुए उसने  महसूस किया था। वह जेल का परिदृश्य था। वह अपने पति से मिलने आई थी। पति किशोरचंद्र वांगकेम पत्रकार हैं और उत्तर पूर्व के राज्य मणिपुर में सलाखों के पीछे डाल दिए गए हैं। अपराध था मणिपुर सरकार की आलोचना का । मुख्यमंत्री बिरेन सिंह मणिपुर में भारतीय जनता पार्टी के पहले मुख्यमंत्री हैं और पत्रकार का गुनाह ये  कि उन्होंने राज्य में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के जन्मोत्सव को मनाए जाने के खिलाफ अपनी पोस्ट में विवादस्पद वीडिओ का उपयोग किया था।   पत्रकार ने मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह को केंद्र सरकार की कठपुतली कहते हुए लिखा था, विश्वासघात न करें, मणिपुर के स्वतंत्रता सेनानी का अपमान न करें। मणिपु

कहां है भारतीयता ?

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image : savita pareek     गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या पर बस एक ही ख्याल मन में विचरता दिख रहा है कि आख़िर यह भारतीयता है क्या कहाँ बस्ती है ये? किसी को दर्शन करना हो तो कहाँ जाए? क्या वह भारतीयता थी जब कबीर अपनी वाणी से ऐसा महीन दोहा रचते थे जो मानवता को पहली पंक्ति में ला खड़ा करता था।  झीणी चदरिया बुनते-बुनते कबीर मानवीय गरिमा को जो ऊंचाई दे गए वह हम जैसों पर  आज भी किसी छत्र-छाया सी सजी हुई है।  पाथर पूजे हरी मिले तो मैं पूजूँ पहाड़  घर की चाकी कोई ना पूजे जाको पीस खाए संसार या फिर भारतीयता  कबीर नाम के उस  बालक में है जो मिशनरी स्कूल के समारोह में फ़ादर के पैर छू लेता है और ऐसा वहां कोई दूसरा नहीं करता। कबीर की बुनी चदरिया की छाया से आगे जो चलें तो देखिये बापू क्या कहते हैं-"मुझे सब जगह चरखा ही चरखा दिखाई देता है क्योंकि मुझे सब जगह ग़रीबी ही दिखाई देती है। मैंने चरखा चलाना सांप्रदायिक  धर्मों से कहीं श्रेष्ठ  माना है। यदि मुझे माला और चरखा में से किसी एक को चुनना हो तो जब तक देश ग़रीबी और फ़ाकाकशी से पीड़ित है तब तक मैं चरखा रूपी माला फेरना ही पसंद करूँगा।  भारतीयता फिर

बार डांसर की रोज़ी से सरकार को क्या ?

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रोजी सबका हक है  फिर चाहे वह नाचकर ही क्यों न कमाई जा रही हो….   बुरा लगता  है  तो इस अनपढ़,बेबस,लाचार आबादी को काम दीजिये उसके बाद इस पेशे को  जी भरकर कोसिये …मेरी  राय में तो यदि पुरुषों  के नाच में महिलाओं को आनंद आता है तो उन पुरुषों को  भी   पूरा हक़ है कि वे अपने पेशे को जारी रखें फ़र्ज़ कीजिये कुछ महिलाएं एक डांस बार में पुरुषों के नाच का आनंद ले रही हों और उन्हें टिप भी देती हों और उनके ठुमकों पर खुश भी हो रही हों। पुरुष युवा हैं और उन्हें इस पेशे से अच्छी आय हो रही है। यूं भी नौकरी कहां आसानी से नसीब होने होती है। ऐसे में क्या पुरुष डांसर्स से केवल इसलिए उनका काम छीन लिया जाना चाहिए क्योंकि यह कुछ को अनैतिक लगता है। क्या यह एक पर्याप्त कारण है किसी से उसका रोज़गार ले लेने का जो वह दिन भर के दूसरे काम के बाद बतौर पार्ट टाइम अपनी शाम की पाली में करता है। यह काम उसे अतिरिक्त आय मुहैया करता है और शायद नाचने के उसके शौक को एक मंच भी।  इस काम से वह अपने परिवार को बेहतर जीवन शैली देता है। और जो यहाँ पुरुष की जगह महिलाएं हो तो क्या हमारी नैतिकता को कुछ ज़्यादा ठेस लगती है ? क्यो

नमो रागा के एक से राग

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राहुल गाँधी ने रक्षा मंत्री में पहले जेंडर देखा और फिर उसे भी कमतर देखा वर्ना वे ये नहीं कहते कि " चौकीदार लोकसभा में पैर नहीं रख पाया।  और एक महिला से कहता है कि निर्मला सीतारमण जी आप मेरी रक्षा कीजिए, मैं अपनी रक्षा नहीं कर पाऊंगा।  आपने देखा कि ढाई घंटे महिला रक्षा नहीं कर पाई। '' यह बयान हमारे ही शहर जयपुर में कांग्रेस अध्यक्ष  राहुल गाँधी  ने किसान रैली को सम्बोधित करते हुए दिया। इसके बाद  राष्ट्रीय महिला आयोग ने नोटिस जारी कर राहुल गाँधी से जवाब माँगा है।  उन्हें ऐसा नहीं कहना चाहिए था लेकिन क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह कहना चाहिए था कि वह कांग्रेस की  कौनसी विधवा (सोनिया गाँधी ) थी जो रूपए लेती थी ,या फिर यह कि क्या किसी ने 50 करोड़ की गर्लफ्रेंड (शशि थरूर की पत्नी सुनन्दा पुष्कर के लिए तब उनकी शादी नहीं हुई थी ) देखी है या फिर रेणुका चौधरी के लिए यह कहना कि आज बहुत दिनों बाद रामायण सीरियल के बाद ऐसी हंसी सुनने का मौका मिला है।  ज़ाहिर है ये कोई सद्वचन नहीं हैं जो मोदी जी ने कहे थे। आशय रावण की बहन शूर्पणखा की और था। यही राहुलजी भी कर गए। महिला आयोग क