सच का सूत

दिल कहता है 
तुम लिखो 
फूल, पत्तों, परिंदों, प्रेम की बात 
दिमाग़ कहता है 
लिखो तकलीफ़ 
लिखो भीड़ में घिरने की बात 
लिखो 'एनआरसी' 
के पन्नों में छिपे नश्तरों को 
लिखो इंसान को इंसान से 
मिलने पर रोक की दास्तान  को 
लिखो संवाद के विवाद में 
बदलने के मंज़र को 
लिखो उस नाम को 
जिसे बताने में उसे डर लगता है 
लिखो बच्चे को मोहल्ले से बाहर भेजती हुई 
माँ के कांपते कलेजे को और बाप की दुविधा को 
लिखो  कि वह बच्चे को ऐसा मंतर पढ़ाना चाह रहे
जो मुसीबत में काम आए। 


क्या कहा 

नहीं लिखोगी 
तो मत लिखो 
तुम किसी क़ाबिल नहीं 
दिलो दिमाग़ कुंद हैं तुम्हारे 
तुम सो जाओ 
जो ज़िंदा रही 
तो ख़्वाब में ढूंढ लेना 
परिंदो की परवाज़ 
और ओस की बूंदों से 
पवित्र इरादों को। 

शायद न मिलें वहां भी 
स्वप्न को सवार होने के लिए 
भी सच का एक सूत तो चाहिए ही। 






टिप्पणियाँ

  1. दिल और दिमाग की यह जद्दोजहद तो चलती ही रहेगी। कभी दिल को जीतने दो और कभी दिमाग को। सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  2. वाह बहुत खूब।
    अप्रतिम भावाभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
  3. वाह बहुत सुंदर कविता।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वगात है।
    iwillrocknow.com

    जवाब देंहटाएं

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