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मार्च, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

सबसे खतरनाक होता है मुर्दा शांति से भर जाना

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क्या लोकतांत्रिक ढंग से चुने हुए नेता भी लोक की अवहेलना करने लगते हैं और फिर जिंदा कौमें पांच साल इंतज़ार नहीं करती ,अपने चुने हुए नेता को ही आईना दिखाने के लिए सड़कें पाट देती है। दुनिया तो फिलहाल  ऐसे ही संकेत दे रही है। कई देशों में जनता सीधे अपने नेता को चुनौती दे रही है। इजरायल ताज़ा मिसाल है जहां जनता ने सड़कों पर विद्रोह करते हुए प्रधानमंत्री को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है। इज़राइली प्रधानमंत्री को स्वतंत्र न्यायिक व्यवस्था में सरकारी दख़ल वाले कानून को कुछ समय के लिए स्थगित कर देना पड़ा है। फ्रांस की जनता भी सड़कों पर है यहां तक की श्रीलंका, ईरान और चीन की जनता भी सड़कों पर लड़ाई लड़ रही है। हमारे देश की चुनी हुई सरकार भी तो कुछ ऐसा ही तर्क रखती  है कि एक चुनी हुई सरकार का न्याय पालिका में दखल होना चाहिए। वह न्याय पालिका में कार्य पालिका का हस्तक्षेप चाहती है लेकिन फिलहाल यही सरकार खुश है कि चार लाख मतों से चुने हुए सांसद को वह सही वक्त पर संसद से निकालने में कामयाब हो गई है। तकनीकी तौर पर देखा जाए तो जनता बस चुनने का औपचारिक जरिया भर बन कर रह गई  है अगर ऐसा नहीं होता तो क्यों

अडाणी पर उठी आवाज़ संसद से बाहर

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  बीते सप्ताह इसी जगह लिखे  एक लेख का शीर्षक था 'मुद्दा बनाओ और घेर लो ',और अब सप्ताह बीतने  से पहले ही राहुल गांधी को पूरी तरह घेर लिया गया और संसद से उनकी सदयता भी समाप्त कर दी गई। इसे बदले की सियासत से ज़्यादा कुछ नहीं कहा जा सकता। अव्वल तो मानहानि मामले में दो साल की सज़ा अधिकतम होती है और सूरत की अदालत ने इसे भी एक महीने के लिए स्थगित कर दिया था। जो संसद पिछले एक पखवाड़े से नहीं चल रही थी, उसने सदस्यता ख़त्म करने के मामले में एक दिन का समय भी नहीं लिया। सरकार ने जो मुस्तैदी इस मामले में दिखाई है उससे स्पष्ट हो गया है कि भारत जोड़ो यात्रा के बाद और कारोबारी अडाणी पर तीखे हमले करने के बाद वे भाजपा के लिए 'पप्पू' नहीं 2024 की हार का भूत भी बन गए थे। सरकार के इस कदम के बाद  दुनिया में  कौन  भारत को  'मदर ऑफ़ डेमोक्रेसी ' कहेगा इसका जवाब भी सरकार को देना चाहिए।  संसद से राहुल गाँधी की सदस्यता का ख़ात्मा  तानाशाही की नई नियमावली का नया पाठ है।   एक सत्ताधारी पार्टी जो विपक्ष के नेता को 'पप्पू ' तो  कहती है लेकिन फिर उसे घेरने में भी कोई कसर नहीं छोड़ती। किसी पप्प

भीतर जांच से और बाहर नारों की आंच से डरने लगी सरकार

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 देश की जनता का वह हिस्सा जो मानता है कि केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है तो लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुई सरकार लेकिन उसके कामकाज का तरीका लोकतांत्रिक नहीं है। यहाँ तक की  उसे अपने ख़िलाफ़ एक पोस्टर,बयान, ट्वीट और गीत तो क्या मसखरों का मज़ाक भी मंज़ूर नहीं है। इस सबके बाद वह चाहने लगता है कि कुछ ऐसा हो जो इस सरकार को सबक सीखा दे। ऐसी ही आस उसे विपक्ष से भी है और जनता के इस हिस्से को लगता है कि तुरंत-फुरंत विपक्ष को एक हो जाना चाहिए और 1977 और फिर 1989 की तरह सरकार को उखाड़ फैंकना चाहिए। उसे लगता है कि ये सभी क्षेत्रीय दल जो लगातार  सरकार की जांच एजेंसियों द्वारा सताए जा रहे हैं ,कांग्रेस को क्यों आँखें  दिखा रहे हैं ? ये क्यों नहीं कांग्रेस की छतरी के नीचे आ जाते जो सीना ठोक कर ना केवल संसद में खड़ी है बल्कि दरकते लोकतंत्र को बचाने के लिए भारत जोड़ो यात्रा भी कर चुकी है। इसलिए जनता का यह हिस्सा बहुत निराश भी है कि आख़िर विपक्ष एक क्यों नहीं हो रहा वह क्यों सत्ता के जाल में फंस रहा है जबकि उसे तो उन चिड़ियाओं की तरह उस जाल को लेकर ही  उड़ जाना चाहिए जिसमें शिकारी ने उन्हें फांस रखा है।  अ

मुद्दा बनाओ और घेर लो

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आज की राजनीति में जनहित और नएपन के नाम पर केवल इतना ही है,  रोज़ मुद्दे पैदा करो और घेर लो। फिर इसी पर बहस होगी,इसे ही चलाया जाएगा। बंद समाज या ऐसे भीतरी इलाके जहां जनजागृति अब भी पहुंची नहीं है वहां भी कुछ ऐसा ही होता है, खासतौर पर महिलाओं के साथ। बेड़ियों में बंद  समाज को यह स्वीकारना बड़ा मुश्किल होता था कि स्त्री भी बोले या अपने हक़ की बात करे। समाज के ठेकेदार उस ढांचे को बिलकुल भी क्षति नहीं पहुंचाना चाहते  जिसमें स्त्रियां चुप हैं। कभी-कभार एक दो महिलाएं अचानक अपने हक के लिए लड़ती हुई नज़र भी आती हैं  तो कह दिया जाता है कि इस पर प्रेत का साया है। उसे भोपे,तांत्रिक और बाबाओं कर हवाले कर दिया जाता है । इस पर भी जो बात न बने तब  'नेरेटिव’ सेट किया जाता कि यह स्त्री तो डायन है ,चुड़ेल है बच्चों को खा जाती है। यह नेरेटिव स्थापित होते ही कुछ तेज तर्रार तत्व सक्रिय हो जाते और गांव में उस स्त्री का निकलना मुश्किल हो जाता और डायन-डायन कह कर उसे घेर लिया जाता है । भारत में आज भी महिलाओं से जुड़ी यह दर्दनाक हकीकत सामने आती रहती है और राज्य विशेष को इस शब्द डायन पर प्रतिबंध लगाना पड़ा है ता

क्या अब संसद में दो विपक्ष हो गए हैं

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 संसद में जो इन दिनों चल रहा है, वह देश के लिए किसी कार्यवाही का तो नहीं , व्यवधान का नज़ारा अवश्य प्रस्तुत  कर रहा है। सत्ता पक्ष जैसे विपक्ष की भूमिका में उतर आया है। उसने वही चोला पहन लिया है जो 2014 से पहले पहन रखा था। पक्ष और विपक्ष की बजाय देश को दो-दो विपक्ष दिखाई दे रहे हैं। अब ये दो विपक्ष मिलकर देशहित में कौन से निर्णय लेंगे यही जनता जानना चाहती है। संसद जहां चुने हुए नुमाइंदे विचार विमर्श करते हैं , सवाल-जवाब करते हैं, वहां सिर्फ शोरगुल है। फिर उसके बाद संसद ठप हो जाती है। एक पक्ष कहता है राहुल गांधी को माफ़ी मांगनी चाहिए और दूसरा अडानी समूह की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) की मांग करता  है। देश मजबूर है इनका तमाशा देखने के लिए और दुनिया शायद यह भी समझने की कोशिश कर रही है कि जिस  राहुल गांधी पर लोकतंत्र के कमजोर होने वाली बात कहने के लिए माफी मांगने का दबाव है वहां भला बोलने की आज़ादी आखिर है कितनी । क्या ये हंगामा इसलिए है कि अमेरिका स्थित रिसर्च फर्म हिन्डनबर्ग  की अडानी समूह को लेकर आई रिपोर्ट सरकार को किसी फांस की तरह चुभ रही है। निकालते हैं तो रिश्तों का खुल

दोनों ही करते हैं देश की बात बाहर

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    राहुल गांधी की ब्रिटैन यात्रा समाप्त हो गई है लेकिन भारत में उनके सम्बोधनों और साक्षात्कारों के बाद जंग शुरू हो गई है। ये हमले इतने तीखे और निजी हैं कि जो खुद ही इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि भारत में इन दिनों सवालों के जवाब नहीं दिए जाते बल्कि जो सवाल कर रहे हैं उन पर हमला किया जाता है। इस तरह तो जो राहुल ने लंदन में कहा वह साबित होता हुआ लगता है। गाँव हो चुकी दुनिया में कहां क्या कहा जा रहा है वह छिपा नहीं है इस तरह विदेशी धरती जैसी अवधारणा भी नहीं बची है हां कुछ अधिनायकवादी देश ज़रूर ऐसा करने पर अपने से अलग आवाज़ों को दबा देते हैं या फिर सलाखों के पीछे डाल देते हैं। राहुल गाँधी पर ताज़ा बयान कानून मंत्री किरन रिजिजू का आया है ,तब क्या उन्हें उनके कथित देश के खिलाफ काम के लिए  गिरफ़्तार नहीं कर लेना चाहिए। जो बात कानून मंत्री को गलत लगी वह कानूनन सही कैसे हो सकती है।  कानून मंत्री  ने कहा -"भारत के लोग जानते हैं कि राहुल गांधी पप्पू हैं लेकिन विदेशी नहीं जानते कि वे सही में पप्पू हैं। उनके मूर्खतापूर्ण बयानों पर रिएक्ट करने की ज़रूरत नहीं है लेकिन समस्या यह है कि उनके भारत विरोध

विदेशी सरज़मीं: तू डाल डाल मैं पात पात

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कभी–कभी लगता है जैसे देश में जो राजनीतिक द्वंद इन दिनों दिखाई पड़ रहा है ,वह पूरी तरह से राजनीतिक ना होकर समझ का है, परिपक्वता का है। उसे वैचारिक द्वंद कहना भी सही नहीं होगा। वह तो कुरुक्षेत्र में अर्जुन का था। जिसके हाथ में सत्ता है वह खुद को इस कदर सर्वशक्तिमान समझ रहे हैं  कि सरकार चलाने के लिए वे दूसरे पक्ष की भूमिका, व्यवस्था के स्तंभों को भी ध्वस्त कर देना चाहते हैं । उन्हें दंभ है कि वे ही जनता के हितैषी हैं और उसके लिए और किसी भी रास्ते को चुनने के हकदार   भी। दंभ तब भी झलकता है जब वह कहते हैं  कि अभी तक कुछ नहीं हुआ और जो कर रहे हैं वही कर रहे  हैं । यही भाव सब तक पहुंचाने की पुरज़ोर कोशिश होती है। यहां तक की मीडिया जिसका काम जनता की तकलीफ़ सरकार तक पहुंचाने का  है, वह अब केवल और केवल सरकार की बातें सुनाने के लिए जनता के बीच है। सुनने का भाव कहीं बचा ही नहीं है तो यह 140 करोड़ की आबादी जिसके बारे में सरकार का कहना है कि इसमें से अस्सी करोड़ को वे मुफ्त अनाज दे रहे हैं, वे आखिर कहां जाए? कोई है जो इस हताश आबादी के दर्द सुनेगा ? लोकतंत्र के ढहते स्तंभों की सुध लेगा? राहुल गांधी न

दर्द की रात अब ढल चली है

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  लोकपर्व होली के आते ही व्यवस्था भी लोक की परवाह करने लगेगी ,यह सुनना ही बड़ा नया और ऐतिहासिक है । सरकार में हों या सरकार के बाहर खेलने के लिए सबको एक ही पिच मिलेगी तो बेशक नतीजों के भी सही और  निष्पक्ष होने के आसार बढ़ेंगे। यह तो ज़ाहिर बात है कि अगर किसी की नियुक्ति और  मुक्ति सरकार के इशारे पर होगी है तो यह बहुत मुश्किल होगा कि वह अपने पद से स्वतंत्र फ़ैसले ले पाए। वह जानता है कि प्रतिकूल फ़ैसले लेते ही उसकी छुट्टी होगी या फिर वह किसी ठंडी पोस्टिंग पर धकेल दिया जाएगा। राज्यों की पुलिस ऐसे ही तबादलों और आकाओं की ख़ुश करने की  प्रवृत्ति के चलते  कभी  जनता की सुनवाई नहीं कर पाती। व्यवस्था केवल चुनिंदा अफसरों के दम पर टिकी होती है जो अभी भ्रष्ट नहीं हुए हैं। लोकतंत्र की अवधारणा में सबसे सशक्त किसी को होना चाहिए तो वह लोक को यानी जनता को। जनता निडर होकर मतदान कर सके और जिस संस्था पर यह जिम्मा है वह उसे यह मौका दे। उसे ऐसा ना लगे कि कोई तो समूची सरकारी मशीनरी के साथ मैदान में है और दूसरा बिलकुल खाली हाथ। गुरूवार को पांच जजों की खंडपीठ ने लोकतंत्र को मज़बूत करते हुए फ़ैसला दिया है कि अब मुख्य चुन

आने वाली पीढ़ियों को भूत का बंदी न बनाएं

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"भारतीय होने के नाते हमारी साधन संपत्ति क्या है ? हमारे मानव जिनमें से एक तिहाई युवा हैं। ये ही हमारी वास्तविक शक्ति हैं। यदि हम उनमें उत्साह भर दें और उनकी साहसिक आत्मा को झिंझोड़ दें तो सोता मानव जाग्रत हो जाएगा और हम सारे विश्व पर विजय पा लेंगे।" यह बात पचपन साल पहले कही थी हमारे महान वैज्ञानिक डॉ सी.वी. रमन ने जिनके 'रमन इफ़ेक्ट'  की वजह से दुनिया ने उन्हें नोबेल पुरस्कार और देश  ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया था। वैज्ञानिक रमन 1970  में  दुनिया से  चले गए लेकिन क्या हम अपने देश के महान वैज्ञानिकों की दिखाई रौशनी में युवाओं का भविष्य देखने की कोशिश कर रहे हैं ? इन दिनों जो देश के बहुसंख्य युवा के साथ हो रहा है क्या वह किसी भी नज़रिए से हमारी वैज्ञानिक सोच को दर्शाता है?  सोच और समझ का तो ऐसा तंत्र कोरोना काल में विकसित किया गया कि अबोध आबादी को लगा कि वायरस उन पर किसी चील की तरह झपट्टा मारेगा। उन्होंने अपने दरवाजे तक पर आना बंद कर दिया था ।  मकसद यही कि हम एक ऐसी चेतनाशून्य भीड़ में बदल जाएं जो बताई लीक पर चलती जाए।  भारत की आध्यात्मिक आस्था जो किसी काल में मा