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छंद की तरह गूंजते तुम

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दो जिंदगियों के बीच ऐसा कौनसा गठजोड़ है जो ताउम्र उन्हें एक रखता है। अरसा पहले यही सोच थी कि कहीं भी चले जाओ पति-पत्नी अक्सर जूझते हुए ही नजर आते हैं। जोधपुर में पैंतीस साल के दांंपत्य के बावजूद उम्रदराज जोड़े को लड़ते-झगड़ते देखना हैरत में डाल देता था। आखिर इतने बरस बीत गए लेकिन इनके मतभेद उतने ही ताजादम क्यों हैं। वे छोटी-छोटी बातों पर उलझते रहते। जयपुर में एक और जोड़े को करीब से देखने का मौका मिला। उनमें गजब का मतैक्य इस बात को लेकर था कि इन मुद्दों पर हम एक दूसरे को बिलकुल नहीं टोकेंगे। तुम तुम्हारे हिसाब से और मैं मेरे हिसाब से। अलवर के एक जोड़े को देखकर लगता था कि पत्नी कुछ कहती भी नहीं हैं और पति समझ लेते हैं। पति-पत्नी आंखों ही आंखों में पूरी बात कर लेते। कभी उन्हें तेज संवाद करते नहीं सुना।     इन सभी सूरतों में जो सीधे नुमाया नहीं था वह था प्रेम। वह भाव कि हम दोनों को एक ही रहना है। साथ देना है एक दूसरे का। एक दूसरे को इस रिश्ते में इतना खुलापन देना है कि एक का भी दम ना घुटे। जो पति-पत्नी कहते हैं कि हममें कभी झगड़ा नहीं हुआ वे झूठ कहते हैं। जिस दांपत्य में बहस नहीं,

लौटाने वालों के हक़ में

सब अपने-अपने तर्क गढ़ रहे हैं।  शशि थरूर कहते हैं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेजों का नाइटहुड  सम्मान था कोई साहित्य का नोबेल नहीं।  राजस्थान के आईदान सिंह भाटी लिखते हैं जिस साहित्य अकादमी ने मेरी राजस्थानी भाषा को मान्यता दी, उसे लौटाने का कदम कोई कैसे उठा सकता है। सबके अपने तर्क हैं लेकिन विरोध के विरोध में शायद कोई नहीं लेखक अपने अवार्ड्स लौटा रहे हैं। वह सम्मान, जिसे पाकर उन्हें अपना जीवन सार्थक लगा होगा उसे वे लौटा रहे हैं। क्यों लौटा रहे हैं? क्या मिल जाएगा उन्हें? शायद आत्मरक्षा। यह सुरक्षा के  लिए उठाया गया कदम है। उन्होंने देखा कि कन्नड़ साहित्यकार कलबुर्गी गोलियों से शूट कर दिए जाते हैं। पानसरे  और दाभोलकर की भी हत्या कर दी जाती है। किसी के लिए किसी की विचारधारा को सहन नहीं कर पाने की संकीर्ण मानसिकता इस कदर सिर उठाती है कि कभी भीड़ तो कभी हथियारबंद समूह व्यक्ति को मार डालते हैं। या तो मरने के लिए तैयार हो जाओ या फिर अपना रक्षाबल खुद खड़ा करो। लेखकों ने यही किया है उन्होंने प्रतीकात्मक विरोध खड़ा किया है। लोकतंत्र में इससे शांतिप्रिय और कुछ नहीं हो सकता।  नाइटहुड सम्मान ल

न मनाएं no bra day लेकिन ....

पिछले कई महीनों से खुशबू में प्रकाशन के लिए एक आलेख रखा है। आलेख अंदर पहने जाने वाले वस्त्र को लेकर है कि इसकी खरीदारी में क्या सावधानी बरती जाए कि यह स्वास्थ्य को कम नुकसान पहुंचाए। हर सप्ताह यह लेख हमारी टीम चुनती और फिर संकोच के साथ इसे रोक दिया जाता। सच है कि यह महिलाओं की ही पत्रिका है और यहां ब्रा के बारे में प्रकाशन से संकोच की क्या जरूरत  है। सच यह भी है कि हम इस बारे में सबके सामने ज्यादा बातचीत नहीं करतें और इन्हें सुखाया भी छिपाकर ही जाता है। कोशिश यह हो कि खराब सेहत को ना छिपाया जाए। सवाल यह भी है कि  किसी भी मसले पर जागृति बढ़ाने वाले कदमों पर रोक क्यों? इस पर वैसे ही बातचीत होनी चाहिए जैसे हम सर्वाइकल कैंसर या किसी भी अन्य कैंसर के बारे में बात करते हैं। कल तेरह अक्टूबर को 'नो ब्रा डे' मनाया गया। इस अंग को अतिरिक्त कसकर रखने से कोशिकाओं की गतिशीलता प्रभावित होती है जिनसे गांठें बनती हैं और ये सख्त होकर कैंसर का कारण बनती हैं। कसी हुई ब्रा के कारण बीच के हिस्से में पसीने की वजह से संक्रमण भी हो सकता है और यह त्वचा के कैंसर में बदल सकता है। एक टीवी चैनल ने भले ही इ

क्यों झांकना किसी की रसोई में

हमारे खान-पान की शैली को आप क्या कहेंगे? कहां से विकसित होती है? शायद आदत। खाना-पीना एक आदत ही तो है। जो बचपन से हमें खिलाया जाता है वही हमारी आदत बन जाता है। मेरी मित्र के घर प्याज-लहसुन बिलकुल नहीं खाया जाता तो उसने नहीं खाया। यहां तक कि उसकी गंध से ही उसकी हालत खराब हो जाती। वह वहां बैठ ही नहीं पाती जहां लहसुन का तड़का लगता। वक्त बीता शादी ऐसी जगह हो गई जहां लहसुन के बगैर कोई सब्जी नहीं पकती। पहले-पहल वह अपनी सब्जी अलग बनाती लेकिन इन दिनों मुस्कुरा कर कहती है -"अब तो आदत पड़ गई है, ऐसी आदत की अब टमाटर के झोल वाली सब्जी खाई ही नहीं जाती।" बहरहाल इसका उलट होना भी उतनी ही सहजता के साथ स्वीकारा जा सकता है।                 एक ओर मेरी मित्र की माताजी हैं चिकन इस कदर बनातीं कि उसके यहां खाने का इंतजार हर मित्र को होता। इस बार सभी दोस्त काफी अरसे बाद मिले और आंटी के हाथ का चिकन खाने की इच्छा जाहिर की। मित्र ने कहा भूल जाओ, चिकन-विकन।  खाना-पकाना तो दूर मां अब उस जगह खाना भी नहीं  खातीं जहाँ  ये सब पकता है। उनकी रसोई में अब कोई एक अंडा भी नहीं उबाल सकता। एक बांग्ला परिवार में हम स

मनु ने क्या लिखा बापू के बारे में

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 कल बापू की 147वीं सालगिरह मनाई जाएगी। बापू हमारे जीवन में इस कदर रचे-बसे हैं कि यूं तो हमारा हर काम उन्हीं पर जाकर खत्म और शुरू होता है। वे हमारी मुद्रा यानी नोटो पर हैं। हमारे अस्पताल के नाम उन्हीं पर हैं। चौराहे, चौराहों की मूर्तियां, रास्ते, सब गांधीमय हैं।हैं फिर भी नहीं हैं । जीवन में भी दो तरह के लोग मिलते हैं। समर्पित गांधीवादी और दूसरे घोर गांधी विरोधी। इस कदर विरोधी कि लगता है गोड़से को फांसी जरूर दे दी गई लेकिन गोड़सेवाद पूरी ताकत से जिंदा है। बापू के जाने के 67 साल बाद भी लगता है कि हम उन्हें समझ ही नहीं पाए। कोई उनके नाम पर झाड़ू उठा लेता है तो कोई खादी का हवाला देने लगता है। बापू को हमने अपनी सुविधानुसार टुकड़ों में बांट दिया है। कुछ बातें जो बापू के व्यक्तित्व को रेखांकित करती हैं वह मनु गांधी की डायरी में मिलती हैं। मनु और आभा ये दोनों अंतिम समय में भी बापू के साथ थीं जब उन्हें गोली मारी गई। मनु लिखती हैं एक दिन रात साढ़े दस बजे बापू ने मुझे जगाया और कहा, 'मेरा वह पेंसिल का टुकड़ा ले आओ तो'। मैं घबरा गई और सोचा कि इस समय बापू पेंसिल के टुकड़े का क्या करेंगे।