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बन्दे में था दम और हम बेजान बेदम

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गांधी जयंती से ठीक पहले कोई इस एहसास को पा जाए कि हिंसा के एवज में प्रतिहिंसा न करते हुए, खुद को बचा ले जाना कितना मुश्किल है, मायने रखता है। आवेश में रोम-रोम कांपता है। हाथ-पैर पर नियंत्रण भले ही कायम रह जाए लेकिन, शाब्दिक हिंसा  से जुबां बाज नहीं आती। बेहद मुश्किल है वहां से खामोश निकल जाना।    शाम के सात बजने वाले थे और वह अपनी बिल्डिंग के दरवाजे पर होती है। एक स्त्री (स्वाति) ठीक सामने आकर आंखों में क्रोध, लेकिन जुबां पर हैलो कहकर उससे बात करना चाहती है। वह कहती है, जी कहिए। 'आपके बच्चे ने मेरी गाड़ी पर अपनी सायकल निकालते हुए स्क्रेच लगा दिया। ओह, माफी चाहती हूं, कहां है आपकी गाड़ी? "गाड़ी मेरे पति ले गए हैं। आप गाड़ी का पूछ रही हैं। बच्चे को संस्कार नहीं देंगी?" क्या ज्यादा नुकसान हुआ है अगर एसा है, तो मैं भरपाई करने की कोशिश करुंगी। वह बोली।"क्या भरपाई करेंगी आप? आपकी औकात भी है भरपाई करने की?" औकात तो मेरी स्कूटर की भी नहीं, लेकिन मेरा मानसिक स्तर आपसे ऊंचा है। वह तेज लेकिन कांपते स्वर में बोलकर सीढि़यां चढऩे लगती है। स्वाति ने उसका हाथ प