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आज मकबूल फ़िदा हुसैन की सालगिरह है

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 बीस साल पहले जब कलाकारों के समूह 'फनकार' ने मकबूल फ़िदा हुसैन को इंदौर बुलाया तो पूरे शहर ने बंदनवार सजाये. तब हुसैन 75 के थे.ख्यात पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा ने तब उन पर एक लेख लिखा. आज जब हुसैन 95 के हो रहे हैं पेश हैं उन झलकियों की झलक .हुसैन खुद को देश निकला दे चुके हैं और इन दिनों क़तर में हैं. इस मुबारक दिन इन पचड़ों में न पड़ते हुए हुसैन का स्केच शाहिद मिर्ज़ा की कलम से      art attach not attack: makbool fida hussain                          and shahid mirza   image: ramesh pendse                                     सचमुच मकबूल फ़िदा हुसैन पर लिखना बहुत मुश्किल काम है, क्योंकि जो भी आप लिखेंगे,यकीन मानिये हुसैन अपनी रचनात्मक ऊर्जा से उसे पुराना, प्राणहीन और निष्प्रभ कर डालेंगे. सारे मास्टर पेटर्स ने यही किया है, फिर भले ही वे पश्चिम के वान गौफ़ हों, रेम्ब्रां हों, पॉल  क्ली हों या फिर हमारे इंदौर की छावनी और पारसी मोहल्ले के हुसैन ही क्यों न हों. फ़िदा हुसैन उनके पिता का नाम है, जो पंढरपुर से १९१७ में इंदौर आये थे और आज सारा ज़माना 

ईट-प्रे-लव

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आराधना, भक्ति, वंदना, स्मरण जो नाम दीजिए, आशय एक  जगह पहुंचने से है, जहां शांति हो, सुकून हो। मकसद चित्त को एकाग्र करने से है। तो क्या बार-बार श्रीकृष्ण जपने से मन शांत हो जाता है या फिर पूजा-पाठ की तमाम विधियां मन को राहत देती हैं? हालांकि  भक्ति को विभक्त ·करना निरी मूर्खता होगी, लेकिन इसके दो प्रकार तो हैं ही। एक तो हमें बचपन से ही सिखा दी जाती है कि सुबह-शाम पवित्र होकर ईश्वर के आगे दीप प्रज्ज्वलित करो और आरती गाओ। या फिर वक्त निर्धारित कर दिए जाते हैं कि इस दिशा में बैठकर इसी मुद्रा में प्रार्थना ·करो। तरीके हमें विरसे में मिलते हैं और हम सब अपने-अपने मौला को याद करते हैं। फिर  दूसरे किस्म की भक्ति क्या है? किसी ऐसे को याद करना, जिसके लिए दुनिया ने आपको कोई निजाम नहीं दे रखा। वह आपके भीतर समाता चला जाता है। आपको वह वक्त से याद नहीं आता। सुबह-शाम, दिन-रात की मर्यादा से परे वह बस आ धमकता है। यह भक्ति उसके लिए है, जिसके लिए आपके भीतर स्वीकार्य भाव है। श्रीकृष्ण के लिए वैसा ही स्वीकार्य भाव द्वापर युग से चला आ रहा है। मोर मुकुट, बंसी, पीतांबर और मोहक मुस्कान धारण करने भर से कोई किस