सीन-75
साल 1975 का समय भारतीय राजनीति में काले दौर बतौर याद किया जाता है लेकिन लेखक राही मासूम रज़ा इस बात का ज़िक्र किये बिना सीन-75 का ऐसा ताना-बाना बुन देते हैं जो गिरते मानव मूल्यों की कलई खोल के रख देता है। वैसे हालात आज के भी कोई बेहतर नहीं है जो सीन-18 भी नाम होता तो उतना ही मौजूं होता। बतौर शहर केंद्र में मुंबई है जो खुद को साबित करता है कि वह मायानगरी ही है। क्या महानगर भविष्य की पदचाप पहले सुना देते हैं या यह लेखकीय कौशल है जो आने वाली घुटन और अवसाद को पहले ही जान जाता है। क़ाबिलीयत और शौहरत के भला क्या मायने हैं जब वह खुद को ख़त्म करने की कीमत पर मिल रही हो। शायद आप देह से भले ही बाद में मरते हों लेकिन आपकी मौत पहले ही हो चुकी होती है। सीन -75 मानव की इसी घुटन और मजबूरी का दस्तावेज है।नायक अमजद के साथ हम ऐसी ही दुनिया में दाख़िल होते। हैं कहने को चार दोस्तों की कहानी है लेकिन माया का भ्रमजाल ऐसा है कि वे एक-दूसरे के साथ ही ईमानदार नहीं रह पाते। यार की लाश सामने है और यार को उसी प्रीमियर को सफल बनाना है जिसका लेखक लाश बनकर उसके सामने पड़ा है। इस मौत की खबर उजागर हो गई