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शब्दों के उत्सव के बाद उत्सव के शब्द

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शहर लिटरेचर फेस्टिवल की गिरफ्त से बाहर आ चुका है। मौसम की तरह कुछ मेहमानों के आगमन की भी आदत शहर को हो गई है। वे वही कविताएं गुनगुनाते हैं और उन्हीं शब्दों  को दोहरा कर चले जाते हैं। किताब की जमीं पर खडे़ इस उत्सव में विवाद के कंकर तो खूब थे लेकिन मन को सुकून पहुंचा सके, वैसा हरापन कम था। शब्द  थे लेकिन उनसे हरितिमा गायब थी। नंदी दलितों को भ्रष्ट कह गए, तो नावरिया गांवों को ध्वस्त करने का बाण चला गए। कौन समझे कि शहर जिंदा ही गांव के दम पर हैं और आपके ठाठ को जिंदा रखनेवाले कौन थे .आप इस कदर जातिवादी कैसे हो सकते हैं .  बहरहाल, जयपुर में साहित्य उत्सव भले ही अलविदा कह चुका है लेकिन हम  गांधी साहित्य के आगोश में है। बापू के लफ़्ज़ों से गुजरते हुए महसूस होता है जैसे हम सरल होते जा रहे हैं। दिमाग की जटिलता पर दिल की सरलता असर करती जा रही है। दरअसल, सच्चे हो जाने का अर्थ जोर-जोर से सच बोलते जाना नहीं, बल्कि अपने जीवन को इतना पारदर्शी कर देना है कि जो भी आप कर रहे हैं या कह रहे हैं उसमें बनावट हो  ही नहीं। गांधी ने अपने जीवन को वैसे ही आर-पार रखा है। बेहद  सादा।

इतवार की वह शाम

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a true calling : still from play, image by madan mohan marwal   क्योंकि नाटक अब भी दिल की आवाज़ है, किसी कमिटमेंट की पैदाईश। यह सिनेमा की तरह सस्ता और बाजारू नहीं हुआ है . प्रतिबद्धता झलकती है  यहाँ . यहाँ टिकने  के लिए आपको कुछ एक्स्ट्रा होना पड़ता है। कई मायनों में more. रंगकर्म को समर्पित वह शाम अद्भुत थी जब विजयदान  देथा 'बिज्जी' की कहानी पर अ ट्रू कॉ लिंग मंचित हुआ। इतवार की वह शाम इस मायने में भी अनूठी थी कि भारत रंग महोत्सव के तहत जयपुर के जवाहर कला केंद्र में एक नाटक खेला गया जो हमारे लोक कथाकार विजयदान देथा की  कहानी पर आधारित था। अ ट्रू कॉलिंग के नाम से अनुदित इस नाटक को खेलने वाले कलाकार और निर्देशक ताइवानी प्रभाव में थे और भाषा थी मणिपुरी और चीनी। भाषा का कोई प्रतिरोध लंबा नहीं टिक पाया क्योंकि कथा हमारी अपनी थी और उसका प्रवाह बेहद जादुई। कहानियां हम सबको लुभाती हैं और यह कहानी थी एक अभिनेता की। वह माहिर है अपने हुनर में। कभी पंछी बन पूरे इलाके में गूंज जाता है तो कभी शेर बनकर विनाश का चित्र खींच देता है। उसकी आस्था अपने काम में है। एक बार तो वह भिक्

रौशनी को मिले देश का सर्वोच्च सम्मान

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अ फसोस है रोशनी (खुशबू का  दिया नाम) जब तुम जिंदा थीं, यह तंत्र सोया हुआ था लेकिन जब तुम चल बसी, तो पूरा तंत्र तुम्हें कंधा देने आया। देश के प्रधानमंत्री भी तुम्हारे लिए दिल्ली हवाई अड्डे पर आए। तुम्हारे साथ जो हुआ उसके बाद धौलपुर जिला प्रशासन को भी लड़कियों की सुध हो आई है। उन्होंने शाम पांच बजे बाद से लड़कियों के निकलने पर ही रोक लगा दी। सभी कोचिंग कक्षा संचालकों को भी कह दिया कि पांच बजे बाद कक्षाएं संचालित न करें। शहर के वरिष्ठ नागरिक और लड़कियों के माता-पिता को विश्वास में लेने की बात भी कही गई है। अगर घाव है तो उसका इलाज मत करो, उसे बांध दो, फिर चाहे वह नासूर क्यों न बन जाए। जाहिर है प्रशासन ने मान लिया कि हम लड़कियों को सुरक्षा नहीं दे सकते। लड़कियों, तुम कैद हो जाओ और लड़कों तुम छुट्टे घूमो। इस कायर प्रशासन को यह कहते हुए भय लग रहा था कि अगर शाम पांच बजे के बाद भी कोई लुच्चा-लफंगा-बदमाश लड़कियों को छेड़ते हुए देखा गया, तो उसकी खैर नहीं। बस यही फर्क है नजरिए का और यही सोच पहले कोख में और फिर सड़क पर लड़की का विनाश कर देती है।   धृतराष्ट्र से मनमोहन तक सब आंखों