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वो जो अयोध्या नहीं जा रहे होते

वो जो अयोध्या नहीं जा रहे होते हम अपना वजूद खो चुके होते हमारी लड़कियां उनके चूल्हे जला रही  होतीं  उनके ढेर-ढेर बच्चे होते फिर वे बच्चे घेरकर मारे जा रहे होते घर-घर में जानवर कटते  गौमाता का क्या हाल होता पूछो मत और प्राचीन संस्कृति का तो समूल नाश हो गया होता वो जो अयोध्या नहीं जा रहे होते गुरुकुल मदरसा-मदरसा चीख़ रहे होते पड़ोस का पला हुआ दुशमन छुट्टा शेर हो जाता जिसे  नहीं पाल सके वो देश में घुस आता। बीमारी बला बनके फूटती पंक्चर पकाने वाले महलों में आ जाते और दाढ़ी वाले हुकूमत कर रहे होते वो जो अयोध्या नहीं जा रहे होते हमारा तो रुतबा ही ख़त्म हो गया होता हम अपने ही देश में देशद्रोही करार  दिए जाते     मेहनतक़श सड़कों पर होते सर पे गठरी, बगल में बच्चे फटी बिवाइयां ,थकी ज़िंदगियां लगातार सरक रही होतीं  वो जो अयोध्या जा रहे हैं अच्छा कर रहे हैं लुटे गौरव को कायम कर रहे हैं अस्पताल-अस्पताल क्या चिल्लाते हो महामारी आई है चली जाएगी इंसान को नहीं अहंकार को ज़िंदा रहना चाहिए हमारे देश में हमारा अहंकार हम वादे की ठसक में हैं तुम हटो अलग। कबीर कह गए हैं भला हुआ मो

सावन चोर नेता

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एक पखवाड़े से लग रहा है जैसे राजस्थान को किसी ने जकड़ रखा है। यूं सावन का महीना है, बूंदें भी मेहरबान हैं  लेकिन लगता है हमारे हिस्से सूखा आ रहा है। हमारे  झूले की रस्सी कोई काट रहा है। बणी--ठणी निराश है । घूमर का आनंद कोई और ले रहा है और लहरिया के रंग भी कोई  फ़ीके करते जा रहा है। मोर के नाच में भी रोड़े अटका रहा है। कोरोना के बीच नेताओं ने कोढ़ में खाज का काम कर दिया है। ये सब किसकी ग़लती  से हो रहा है, कौन कर रहा है लेकिन प्रदेश असर में है।  उसे लग रहा है कि उसके मत  को किसी तोड़ा -मरोड़ा है । जो कह रहे हैं हम तो तमाशबीन है ,उनकी आँखों में शरारत  है।  इनका घूमर जो होटलों , कचहरियों और क़ानून निर्माण की देहरियों के बीच जारी है उसमें लय-ताल की कमी है। इनके झूलों की पींगें डरावनी हैं। कभी-कभी जो लहरिया किन्ही ख़ास मौकों पर अपने शीष पर सजाते हैं ,वह किसी को मोह नहीं पा रहा है। इस धरा  के जीवट रंगों  को कोई कोई गहरी ऊब में तब्दील कर चुका  है। जनमानस का लाखों का सावन किन्ही की बोलियों से तबाह होने की कगार पर है। किसकी कितनी बोली लगी जनता जानना तो  चाहती है लेकिन पता नहीं चलेगा यह भी जानती है। महा

तुम पानी

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तुम पानी  अपने आकार  की  कोई पहल नहीं  अपनी गहराई की कोई थाह नहीं   सरहद का कोई इल्म नहीं   दौड़ की कोई राह नहीं   भेद में कोई निष्ठा नहीं बस वर्षा में ही तेरी आस्था रही।   image:varsha बरस जाता है  बह जाता है  अलौकिक रफ़्तार में  उलझी जड़ों तक के रेशों में  जो घोल ले ठोस से ठोस अहंकार को  फिर भी आतुर और पी लेने को।  और मैं  अचंभित तुम्हें यूं  बहते-चलते देखते हुए शायद तुम इस पानी को कभी  मेरी आँखों में देख सकते हो  और हाँ यह सब मैंने  पानी पर ही लिखा है  मिटा देने के लिए।  यही तो पानी भी चाहता है। 

कोरोना काल में कलाकार तकलीफ़ में हैं चाहिए नरेगा जैसी योजना 

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 "ऐसे भी मामले हैं जब कलाकार पैसों की कमी से ख़ुदकुशी कर लेते हैं। इस महामारी में  नरेगा जैसी योजना उनके लिए भी संबल हो सकती हैं "-टी एम कृष्णा   कर्नाटक संगीत  शैली के बेहद प्रयोगधर्मी गायक कलाकार  टी एम कृष्णा  का यह कहना सही  इसलिए भी मालूम होता है क्योंकि इस संवेदनशील कौम  के पास केवल अपनी कला होती है जिसे वे जुनून की हद तक जीते हैं। तथ्य यह भी है कि इसे अभिव्यक्त करने के लिए हमेशा उन्हें एक प्लेटफॉर्म की ज़रूरत होती है। सामान्य भाषा में हम जिसे काम मिलना कहते हैं। अमिताभ बच्चन काम मिलते रहने के अच्छे हालात पर अक्सर शुक्रिया जताते  नज़र आते हैं तो  कभी कभार इसी काम को पाने के लिए नीना गुप्ता जैसी अच्छी कलाकार को भी इल्तजा करनी पड़ती है। काम का मिलना हर हाल में ज़रूरी है और अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि यह अवसर कोई दूसरा ही मुहैया  करता है। इस व्यवस्था की चाबी अक्सर पूंजीपति के हाथ ही होती है।आत्मनिर्भर होकर भी आत्मनिर्भर नहीं होते हैं आप  । यही हिसाब मूर्तिकार , शिल्पकार, चित्रकार और   भारत की  तमाम पारम्परिक कलाकारों पर भी लागू होता है। भारत तो  कलाओं का ही देश है । चप्पे-चप्पे