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पम -पम दादा का यूं चले जाना

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अनुपम मिश्र चले गए एक बेहद निजि यात्रा पर। जिसका रोम-रोम सबके लिए धडक़ता हो, जो अपने होने को हवा, मिट्टी, पानी से जोडक़र देखता हो ऐसे अनुपम मिश्र का जाना समूचे चेतनाशील समाज के लिए बड़े शून्य में चले जाना है। कर्म और भाषा दोनों  से सादगी का ऐसा दूत  यही यकीन दिलाता रहा कि गांधी ऐसे ही रहे होंगे। उनसे मिलकर यही लगता कि हम कितने बनावटी हैं और वे कितने असल। वे पैदा जरूर वर्धा महाराष्ट्र में हुए , मध्यप्रदेश से जुड़े रहे, दिल्ली में गाँधी शांति प्रतिष्ठान के  हमसाया बने रहे लेकिन उनकी कर्मभूमि रहा राजस्थान। आज भी खरे हैं तालाब और राजस्थान की रजत बूंदों  में उन्होंने पानी बचाने वाले समाज का इतना गहराई से ब्योरा दिया कि खुद राजस्थानी भी इठलाने पर मजबूर हो गया। अलवर, बाड़मेर, लापोड़िया उनकी  प्रेरणा के बूते हरिया रहे हैं।    अनुपम दा से कई मुलाकातें हैं। जितनी बार भी मिले उनका सरोकार होता पर्यावरण, गांधी मार्ग जिसके वे संपादक थे और मेरे बच्चे। वे बच्चों से इस कदर जुड़े रहते कि उन्हें खत भी लिखते। खतो-किताबत में उनका कोई सानी नहीं हो सकता। संवाद इस कदर सजीव कि बात करते हुए खुद के ही जिंदा होने का