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सितंबर, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

एक जवां सुबह के आंगन में

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रोज़ सुबह मेरे आसपास एक तेज़ आवाज़ गूंजा करती है .. सफाई करा लो ओ ~ sss ... काँपता शरीर हाथ में फावड़ा ,बगल में पॉलिथीन  की एक थैली। बिला नागा यह आवाज़ कुछ बरसों से सुनाई दे रही है। फावड़ा जो उल्टा पकड़ने पर लाठी का भी काम करता है। सोचती रह जाती हूँ कौन सफाई कराता होगा इनसे ? कोई तो होगा जिनके यहाँ काम करने के लिए रोज़ आती हैं ? बूढ़ा शरीर जो कभी तबीयत बिगड़ गई तो ?  इस कर्मठता को देख हैरान रह जाती हूँ और अपने निकम्मेपन पर शर्मिंदा भी। सुबह में जीवटता घोलती यह आवाज़ कोयल के मधुर गान से कम नहीं मालूम होती । कितने सीधे -सरल और मेहनती भारतीय जीवन का दर्शन यूं ही चलते -फिरते दे जाते हैं लेकिन हम और हमारे हुक्मरान इनकी तकलीफ़ों से बेख़बर झूठ -मूठ के बड़े-बड़े मुद्दों पर अड़े रहते हैं। तुमको सलाम है माँ..  

गली गुलैयां तो नहीं मिली उलझे स्त्री की भूल भुलैया में

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गली गुलैयाँ में मनोज बाजपेई  सोमवार की शाम एक बच्चे और बड़े की जटिल दुनिया में झाँकने का मन था सो मैं बेटे के साथ जयपुर के थिएटर के बाहर खड़ी थी। वेबसाइट पर समय तो दे रखा था लेकिन टिकट बुक न हो सकी।  पहुंचे तो पता लगा गली गुलैयां तो नहीं है, 'स्त्री चलेगी'? उन्होंने पूछा। उनका कहना था कि " गली गुलैयाँ तो चली नहीं ,परफॉर्म ही नहीं कर सकी ,कल संडे के शो में ही पांच लोग आए थे। हम तो स्त्री ही चला रहे  हैं बढ़िया चल रही है।" पहले टिकट खिड़की पर  फिर  आईनॉक्स मैनेजर ने भी यही बात दोहराई। मन कुछ खास तत्पर नहीं था स्त्री के लिए लेकिन सोचा राजकुमार राव की न्यूटन अच्छी लगी थी, स्त्री भी ठीक ही होगी। किशोर बेटे की भी यही राय थी।  फिर तो स्त्री की भूल भुलैया में ऐसे उलझे कि समझ ही नहीं पाए कि डायरेक्टर तंत्र -मंत्र, भूत -प्रेत की इज़्ज़त बढ़ा रहे हैं या स्त्री की। कहीं गहरे झाँकने पर यह भी लगा निर्देशक शान तो स्त्री की ही बढ़ाना चाहते थे लेकिन  'चुड़ैलगिरि' कुछ ज़्यादा हावी हो गई। हमारे समाज में जहाँ अब भी तंत्र-मन्त्र मनुष्य के अवचेतन में डेरा जमाए हुए हैं, वहां से स्त्री के

दल दुविधा में हैं देश का दिल नहीं

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       इन दिनों दो मुद्द्दे ऐसे हैं जिन पर राजनीतिक दल खुलकर सामने नहीं आ पा रहे हैं। न कहते बनता है न ज़ब्त करते। पहला है sc /st अत्याचार निरोधक अधिनियम और दूसरा  LGBTQ से जुड़ी धारा 377 का ग़ैरक़ानूनी हो जाना। ऐसा क्यों है कि इन दोनों ही मुद्द्दों पर जब अवाम सड़कों पर हैं तो राजनीतिक दल घरों में  कैद। जनता बोल रही है लेकिन इनके मुँह में दही जमा है। गर जो वोटों का डर  स्टैंड लेने से  रोक रहा है तो फिर यह कूनीति तो हो सकती  है, राजनीति नहीं। मार्च में दलित सड़कों पर थे और हाल ही ख़ुद को उनसे बेहतर मानने वाले।  दोनों के बीच जो रार   ठनी है वह किसी भी देशभक्त को निराश कर सकती है और यह दुविधा किसकी फैलाई हुई है यह समझना भी कोई मुश्किल नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलने की जल्दबाज़ी  में पूरी संसद (और इसे नज़रअंदाज़ भी नहीं किया जा सकता क्योंकि वहां हमारे ही चुने हुए प्रतिनिधि हैं ) थी। कोर्ट ने कहा था कि सरकारी कर्मचारी की गिरफ़्तारी बिना सक्षम अथॉरिटी  की जांच के नहीं हो सकेगी , तुरंत मुकदमा भी दर्ज़ नहीं किया जा सकेगा। इससे संदेश यह गया कि सरकार इस कानून को अब कमज़ोर करने का मन बना चुकी है। 

कर बिस्मिल्लाह खोल दी मैंने चालीस गांठें

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सारा शगुफ़्ता 1954 -1984  अमृता प्रीतम 1919 -2005  सारा शगुफ़्ता अमृता प्रीतम को पढ़ते हुए कौन होगा जो घूँट चांदनी के ज़ायके से बच सकेगा। ऐसे लेखक का होना ही सादगी का होना है ,सच का होना है। हाल ही जब उनकी लिखी एक थी सारा पढ़ी तो सर ख़ुद ब ख़ुद सजदे में हो आया। एक थी सारा दो स्त्रियों से मुकम्मल होती है ।  पाकिस्तान की अज़ीम मगर बैचैन शायरा सारा शगुफ़्ता और हिन्दुस्तान की अदीब अमृता प्रीतम जिन्होंने अपनी आत्मकथा को रसीदी टिकट का नाम देकर  विनम्रता की नई परिभाषा ही गढ़ दी थी । सारा अमृता दोनों ही इस फ़ानी दुनिया  में नहीं है लेकिन दोनों की दोस्ती समझ का वह सेतु  बनाती है कि सरहद की परिकल्पना ही बेमायने लगने लगती है।  तमाम फ़ासलों के बावजूद,अदब क़ायदे की दुनिया के ये दो बड़े दस्तख़त  इस सूबे में स्त्री के हालात पर जो ख़त लिखते हैं, वह दस्तावेज़ हो जाते हैं दर्द और दवा की असरदार जुगलबंदी का । सारा की शायरी और ज़िन्दगी की दर्दभरी दास्तां 'एक थी सारा' में उन्हीं के ख़तों और नज़्मों के ज़रिये बयां हुई है जो सारा ने अमृता को लिखे हैं। अमृता लिखती हैं -एक वक़्त था जब पंजाब में सांदलबार के इला