गली गुलैयां तो नहीं मिली उलझे स्त्री की भूल भुलैया में

गली गुलैयाँ में मनोज बाजपेई 
सोमवार की शाम एक बच्चे और बड़े की जटिल दुनिया में झाँकने का मन था सो मैं बेटे के साथ जयपुर के थिएटर के बाहर खड़ी थी। वेबसाइट पर समय तो दे रखा था लेकिन टिकट बुक न हो सकी।  पहुंचे तो पता लगा गली गुलैयां तो नहीं है, 'स्त्री चलेगी'? उन्होंने पूछा। उनका कहना था कि " गली गुलैयाँ तो चली नहीं ,परफॉर्म ही नहीं कर सकी ,कल संडे के शो में ही पांच लोग आए थे। हम तो स्त्री ही चला रहे  हैं बढ़िया चल रही है।" पहले टिकट खिड़की पर  फिर  आईनॉक्स मैनेजर ने भी यही बात दोहराई। मन कुछ खास तत्पर नहीं था स्त्री के लिए लेकिन सोचा राजकुमार राव की न्यूटन अच्छी लगी थी, स्त्री भी ठीक ही होगी। किशोर बेटे की भी यही राय थी।  फिर तो स्त्री की भूल भुलैया में ऐसे उलझे कि समझ ही नहीं पाए कि डायरेक्टर तंत्र -मंत्र, भूत -प्रेत की इज़्ज़त बढ़ा रहे हैं या स्त्री की। कहीं गहरे झाँकने पर यह भी लगा निर्देशक शान तो स्त्री की ही बढ़ाना चाहते थे लेकिन  'चुड़ैलगिरि' कुछ ज़्यादा हावी हो गई। हमारे समाज में जहाँ अब भी तंत्र-मन्त्र मनुष्य के अवचेतन में डेरा जमाए हुए हैं, वहां से स्त्री के हक़ में छिपे गूढ़ सन्देश को साफ़-साफ़ समझ  पाना  नामुमकिन ही मालूम होता है । फिर जब स्क्रिप्ट की ताकत के बीच में आइटम सांग और द्वीअर्थी संवाद सेंध मारते हैं तो फिल्म की दीवार भी कमज़ोर होती जाती है।

स्त्री में श्रद्धा कपूर और राजकुमार राव 
दरअसल ये चुड़ैल इतनी आज्ञाकारी है कि उस घर के मर्दों को नहीं उठाती है जहाँ दीवार पर लिख दिया जाता है ,ओ स्त्री कल आना। चंदेरी की हर दीवार पर लाल रंग से यह ऐसे ही लिखा है जैसे घर पर हथेलियों के निशान बना देने से किसी अनर्थ से बचने की अफवाह कुछ अरसा पहले चरम पर थी। उससे पहले पत्तियों पर लोगों ने सांप भी देखे थे और गणेशजी ने दूध भी पिया था। बरहाल इन तथ्यों के साथ हास्य-व्यंग्य का ज़बरदस्त स्कोप पटकथा में हो सकता था लेकिन वह रुक-रुक कर मिलता है और कहानी भूत-प्रेत की गिरफ्त में आती मालूम होती है। अँधेरी सड़कें ,सुनसान रातें ,  भूतनी के उलटे पैर और भुतहा किले की  पृष्ठभूमि यूं भी ग्रामीण भारत जो बादके बरसों में शहरों  में बसा ,उन सब के मानस  में पैबस्त  है और लोग कनेक्ट भी  होते हैं।  स्त्री उसे ही भुनाने की कोशिश है। मध्यप्रदेश का चंदेरी  अपने सूत के लिए ख्यात है ,चंदेरी साड़ियां स्त्री की गरिमा और सौंदर्य का पर्याय हैं लेकिन निर्देशक अमर कौशिक  के दृष्टिकोण में चुड़ैल का ही साया हावी रहा।

फिल्म 'ओ स्त्री कल आना' और 'ओ स्त्री रक्षा करना ' के बीच बेहद मनोरंजक और व्यंग्यात्मक  बन सकती थी जो कि नहीं बन पाई है। राजकुमार राव आँखों से नाप ले लेनेवाले युवा दर्ज़ी विकी के किरदार में बेहतर हैं ,उनके दोस्त अपारशक्ति खुराना ( भाई आयुष्मान खुराना की धुंधली कार्बन कॉपी ) और अभिषेक बैनर्जी भी जमे हैं लेकिन श्रद्धा कपूर सामान्य ही लगी हैं। पंकज त्रिपाठी (रूद्र भैया )चंदेरी पुराण को थामे हैं यानी उनके पास वो किताब है जिसमें चंदेरी का इतिहास है जिसके कुछ पन्ने फटे हुए हैं। आम कस्बों में जो रहस्य और कुंठाएं स्त्री को लेकर रहती हैं उसकी बानगी भी कुछ हद तक स्त्री में है। रूद्र जैसा किरदार हर कस्बे  में होता है जो जानता भले ही कम है लेकिन उस पर क़स्बे का भरोसा ज़्यादा होता है। वह यह भी बताता है कि जब भूतनी प्यार से आवाज़ दे तो  पलटना मत वह ले जाएगी। और हाँ फिल्म की शुरुआत और मध्यांतर में राजस्थान सरकार  ढेरों विज्ञापन दिखाकर बताती है कि योजनाओं  ने ग्रामीण जनता की सूरत बदल दी है। काश ये 2014 -15 में भी दिखाए गए होते की ये-ये योजनाएं हैं। विपक्ष का एक भी विज्ञापन न अख़बार में है न रुपहले परदे पर। 

बहरहाल , यहाँ मकसद स्त्री की समीक्षा करना नहीं है बल्कि यह बताना है कि दिमाग की तहों और मानव मन के अकेलेपाने में झाँकने की कवायद वाली फिल्म गली गुलैयाँ को दर्शक नहीं मिलते और स्त्री उसे 'खो' कर देती है। इस सिनेमा पर आधा-अधूरा हॉरर और कमज़ोर कॉमेडी हावी  हो गई। स्त्री को दर्शक मिल रहे हैं गली गुलैया को नहीं मिले। सिनेमा में अब  आइटम गीत और लाल किताब टाइप मसाले कम काम करते हैं यह ख़ामख़याली भी दूर हुई।





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