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जून, 2011 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

वह चुप है

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राजस्थान विश्वविद्यालय के परिसर में लों की परीक्षा देकर लौट रही एक छात्रा को छात्र छेड़ने के बाद पीटते रहे लेकिन कोई आगे नहीं आया और तो और घटना  के बाद प्रतिकार  स्वरुप किसी नेता, छात्र नेता का बयान भी नहीं आया  है ...यदि एक भी नेता/कुलपति  यह कह दे कि यदि दोबारा ऐसी घटना परिसर हुई तो ऐसे छात्रों का विश्वविद्यालय में पढ़ना मुश्किल हो जाएगा तब शायद अनुशासन का सायरन बजे. शायद तब भी नहीं .यहाँ तो न किसी को पढ़ना है न पढ़ाना . होठ तो अब छात्रा ने भी सी लिए हैं ...यह चुप्पी चौंकाती है और संकेत देती है कि सब कुछ ऐसे  ही चलता रहेगा शुभदा अपनी उम्र के तीन दशक पार कर चुकी हैं, लेकिन आज वे चौदह की उम्र में घटे जिस वाकये को सहजता से सुना रही थीं तब दिल में केवल दहशत थी। बचपन से ही खेलने-कूदने में शुभदा की दिलचस्पी थी। नए बन रहे मकानों की छतों से रेत के ढेरों पर कूदना शुभदा के ग्रुप के बच्चों का शौक था। उस दिन शुभदा ने घेरदार स्कर्ट पहन रखी थी। नीचे कूदते ही वह स्कर्ट छतरी की तरह खुल गई। शुभदा बहुत घबरा गई और उसे खुद पर शर्म आने लगी। बाजू से शरारती लड़कों का समूह गुजर रहा

जय डे

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jyotirmay dey ie  j dey  चार साल पहले एक लड़की आई थी। दीदी मेरा बहुत मन है पत्रकारिता की पढ़ाई करने का।  चयन हो गया और मैं इस फील्ड में अपना करियर बनाना चाहती हूं। फिर दिक्कत क्या है? ... 'पापा मना कर रहे हैं, एक बार आप चलकर उनसे बात कर लो शायद वे मान जाएं।' उसने कहा। आखिर, वे मना क्यों कर रहे हैं। 'पापा को लगता है कि इस फील्ड में खतरा ज्यादा है और पैसा भी नहीं। वे चाहते हैं कि मैं एमबीए कर लूं या फिर कॉम्पिटिटिव एग्जाम्स देकर  सेफ करियर चुनूं। 'लिखने -पढऩे वाली लड़की थी। पापा का सम्मान करती थी। पत्रकारिता में नहीं आई, आज उसके  पास बढिय़ा सरकारी नौकरी है। इससे कुछ और पहले एक लड़का भी पत्रकारिता में आया था। बड़े पैशन के साथ लेकिन मनमाफिक काम नहीं मिलने और कम तनख्वाह ने उसके पैशन की हवा निकाल दी। कुछ समर्पण और प्रतिबद्धता की भी कमी रही होगी, जो ये दोनों अखबारनवीसी को अपना नहीं पाए। सवालों के इन चक्रव्यूहों से निकलकर जो युवा इस विधा को अपना पेशा बनाता है, वह बेशक प्रतिबद्ध होता है, सुनिश्चित होता है। पैसा भले कम सही, लेकिन समाज के लिए कुछ नेक काम वह  कर जाना चाहता है। उ

या हुसैन !!

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naman: in mumbayee at mahboob studio..image shahid mirza मकबूल फिदा हुसैन से दिल्ली, मुंबई और इंदौर में हुईं आठ मुलाकातें उन पर लिखने का हक नहीं दे देतीं, न ईरानी होटल में उनके साथ ली गई चाय की चुस्की और न ही कफ परेड स्थित उनके फ्लैट पर खाई बिरियानी , न महबूब स्टूडियो में गजगामिनी के लिए लगाया गया सेट, न वरली नाका में उनका एक साथ पांच बड़े पैनल पर रंगों से खेलना और न ही इंदौर के कॉफी हॉउस में घंटों उनकी सोहबत। दरअसल, हुसैन बाबा से हुईं ये सारी मुलाकातें एक भीतरी परिवर्तन के दौर से गुजरने की कवायद है। आप एक कायांतरण सा महसूस करते हैं, आप विकसित होते चले जाते हैं, आपके भ्रम टूटते चले जाते हैं, माधुरी पर लट्टू एक बूढ़े की छवि तहस-नहस होती है। हमारे देवी-देवताओं को नग्न चित्रित करने वाला दृष्टिकोण चकनाचूर हो जाता है, जब आप उनकी फिल्म गजगामिनी के चरित्रों में भारतीय दर्शन को महसूस करते हैं। उनकी कला में छुपे दर्शन को उनके विरोधियों ने नहीं पहचाना। इसी के चलते उन्हें देश छोड़ना पड़ा। वे कभी लंदन तो कभी दुबई के बीच झूलते रहे। कुछ लोगों ने इसे ओढ़ा हुआ निर्वासन कहा। इस बीच किसी सरकार या समूह ने

क्या होता है दुर्भाग्यपूर्ण ?

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दुर्भाग्यपूर्ण । भारतीय राजनीति में इस एक  शब्द का जितना दुरुपयोग हुआ है वह वाकई दुर्भाग्यपूर्णहै। क्या होता है यह दुर्भाग्यपूर्ण? सत्ता आपके पास है, फैसले आप लेते हो, डंडे आप चलाते हो और ऊपर से कहते हो दुर्भाग्यपूर्ण। दुर्भाग्यपूर्ण आप खुद  ही तो नहीं। इस देश के लिए। प्रजातंत्र के लिए। ईमानदारी के लिए। महंगाई के लिए। फेहरिस्त लंबी है। गिनते चले जाइए। आधी रात के बाद यदि यह भीड़  को तितर-बितर करने का षड्यंत्र था, तो बेशक यह लोकतंत्र के खिलाफ था। भीड़ यदि खतरा है, तो प्रजातंत्र  भी  खतरा है। स्वयं आपकी सरकार खतरा है, क्योंकि यह सब भीड़ का ही नतीजा है। शायर अल्लामा इकबाल ने कहा भी है  जम्हूरियत यानी प्रजातंत्र वह तर्ज -ए-हुकूमत है, जहां बंदों को तौला नहीं, गिना जाता है। बाबा रामदेव कितने सच्चे हैं, उन्हें योग सि खा ना चाहिए, राजनीति नहीं करनी चाहिए, इन सब बातों का रामलीला मैदान पर हुए अनशन से कोई ताल्लुक नहीं होना चाहिए। बच्चन साहब एक्टर  हैं एक्टिंग  ही करनी चाहिए, अरुण शौरी को सिर्फपत्रकारिता और किरण बेदी को सामाजिक कार्यकर्ता की सरहद नहीं लांघनी चाहिए। कौन तय करेगा

भाषा की समझ

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पिछले दिनों एक कविता पढ़ी...अच्छी लगी...आप भी देखें . भाषा की समझ  अजितकुमार फर्क था बहुत मेरी और उनकी बोली में। जब वे मांगते थे पानी उठा लाता था मैं  कपड़े। जब मैं चाहता था एकांत सुलगा देते थे वे अंगीठी। एक पुस्तक थी हमारे पास जाने किस भाष में लिखी, मैं कहता था ज फ ग ट ह वे  न म ल व र उच्चारण ही क्यों, अर्थग्रहण में भी अंतर था। बावजूद इसके,  जब तक प्रेम था हमारे बीच वह समझ में आता रहा। फिर विरक्ति को भी हम धीर-धीरे समझने लगे।