या हुसैन !!

naman: in mumbayee at mahboob studio..image shahid mirza
मकबूल फिदा हुसैन से दिल्ली, मुंबई और इंदौर में हुईं आठ मुलाकातें उन पर लिखने का हक नहीं दे देतीं, न ईरानी होटल में उनके साथ ली गई चाय की चुस्की और न ही कफ परेड स्थित उनके फ्लैट पर खाई बिरियानी , न महबूब स्टूडियो में गजगामिनी के लिए लगाया गया सेट, न वरली नाका में उनका एक साथ पांच बड़े पैनल पर रंगों से खेलना और न ही इंदौर के कॉफी हॉउस में घंटों उनकी सोहबत। दरअसल, हुसैन बाबा से हुईं ये सारी मुलाकातें एक भीतरी परिवर्तन के दौर से गुजरने की कवायद है। आप एक कायांतरण सा महसूस करते हैं, आप विकसित होते चले जाते हैं, आपके भ्रम टूटते चले जाते हैं, माधुरी पर लट्टू एक बूढ़े की छवि तहस-नहस होती है। हमारे देवी-देवताओं को नग्न चित्रित करने वाला दृष्टिकोण चकनाचूर हो जाता है, जब आप उनकी फिल्म गजगामिनी के चरित्रों में भारतीय दर्शन को महसूस करते हैं। उनकी कला में छुपे दर्शन को उनके विरोधियों ने नहीं पहचाना। इसी के चलते उन्हें देश छोड़ना पड़ा। वे कभी लंदन तो कभी दुबई के बीच झूलते रहे। कुछ लोगों ने इसे ओढ़ा हुआ निर्वासन कहा। इस बीच किसी सरकार या समूह ने हुसैन को यह भरोसा नहीं दिया कि हे भारत! के चितेरे, तुम निर्भय होकर आओ, हम तुम्हारे साथ हैं। चार साल तक ठोकरें खाने के बाद उन्होंने कतर को चुना। शायद उस देश को, जिसने उन्हें बेखौफ जीने का आश्वासन दिया होगा।
m. f. hussain n shahid mirza at indian coffee house indore
वे कहीं भी गए, लेकिन उनके पोर-पोर से इस देश की माटी की खुशबू आती है। कहीं से न फिरके का बोध होता न अहंकार का, जिंदा रहने को आतुर एक ऎसा शख्स, जो अगले पल क्या करेगा, खुद उसे भी ख्याल नहीं, गजगामिनी की शूटिंग के दौरान रात दो-ढाई बजे माधुरी दीक्षित से लेकर स्पॉट बॉय तक उबासी लेने लगते, लेकिन तब अस्सी साल के बाबा के चेहरे पर थकान का नामों निशां नहीं होता। वे बहुत थोड़ा-थोड़ा खाते। पसंदीदा ग्वार फली की सब्जी भी उन्हें ज्यादा खाने के लिए उकसा नहीं पाती थी। चाय के  घूँट उन्हें हर आधे घंटे हलक में उतरने के लिए मजबूर करते। एक बार बाबा की प्लेट में बिरियानी परोसी गई। गोश्त के टुकड़े शायद कुछ कम होंगे, बाबा बोल पड़े... बिरियानी की आबरू आज कुछ कम सी लग रही है। ऎसे न जाने कितने लम्हें आज आ-जा रहे हैं। वे शाहिद मिर्ज़ा साहब को गजगामिनी के गीत सुनाना चाहते थे . समय कम था एक ही उपाय था कफ़ परेड से मुम्बई सेंट्रल की दूरी तय करते हुए इसे सुना जाए...बाबा ने गाडी का स्टेरिंग थमा और पूरे रास्ते न केवल गीत बजाए बल्कि उनकी व्याख्या भी करते गए...यह अलग कहानी कि उस दिन हमने ट्रेन पकड़ी भी या नहीं.
एक बार बिना तैयारी से आए किसी पत्रकार ने उनसे पूछ लिया... आप घोड़े ही क्यों बनाते हैं? वे तपाक से बोल पड़े...आपने ये लाल कमीज ही क्यों पहन रखी है, यह काला चश्मा क्यों लगा रखा है...मैं भी घोड़े बनाता हूं...इसका क्या जवाब हो सकता है। कम लोग जानते होंगे की बाबा शेर-ओ-शायरी पर कमाल की पकड़ रखते थे। उन्होंने फिल्म गजगामिनी के गीत और "मीनाक्षी अ टेल ऑव थ्री सिटीज" के लिए कव्वाली भी लिखी थी उनका एक शेर...
न आब्लों से पाँव के घबरा गया था मैं, 
जी खुश हुआ है राह को पुरखार देख कर।...
पांव के छाले देख मैं घबरा गया था, लेकिन अब राह में कांटे ही कांटे ही देख कर मन प्रसन्न हो रहा है। जीवन की चुनौतियों को हंसते-हंसते स्वीकारने वाले बाबा की सिर्फ देह ने हमसे विदा ली है, उनकी कला और उससे भी बड़ा उनका भारत प्रेम कइयों को अनंत काल तक स्पंदित करता रहेगा और कई लोगों को वह दर्द भी, जो उन्हें एक भारतीय होने के नाते मिला। दुनिया अपने कवि और कलाकारों की पूजा करती है और हम उन्हें देश से बाहर जीने-मरने के लिए मजबूर करते हैं। उन्हें उस आबोहवा से दूर करते हैं, जो उनके लिए प्रेरणा का काम करती रही है।

हुसैन औए पिकासो
पूरी दुनिया में ख्यात स्पेनिश पेंटर पाब्लो पिकासो के नाम पर हुसैन को भी भारत का पिकासो कहकर याद किया जा रहा  है । यूं पचहत्तर पूरे करते हुए हुसैन ने कहा भी था कि पिकासो की जीवन में दो ही इच्छाएं थीं लम्बा जीवन और जीवन के अंत में खूब सारा काम छोड़ जाना उनकी इच्छाएं पूरी भी हुईं। वे ९२ साल तक जीए और अंतिम २० वर्ष  उन्होंने खूब सारा काम किया। हुसैन बाबा ने भी खूब काम किया है इतना कि पीढियां अचरज करेंगी, उनकी उम्र और ऊर्जा, उनसे लगतार काम करवाती रही। यह धरोहर बेशकीमती है। उम्मीद है कि अब किसी हुसैन गुफा या हुसैन के स्टूडियो को आतातायियों का शिकार नहीं होना पड़ेगा। न किसी अदालत में मकबूल फिदा हुसैन हाजिर हो की गुहार लगेगी। मौत के हिस्से भी कुछ सुकून तो आते ही हैं। भारत के इस खूबसूरत चितेरे को नमन...

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