क्या होता है दुर्भाग्यपूर्ण ?

दुर्भाग्यपूर्ण । भारतीय राजनीति में इस एक  शब्द का जितना
दुरुपयोग हुआ है वह वाकई दुर्भाग्यपूर्णहै। क्या होता है यह दुर्भाग्यपूर्ण? सत्ता आपके पास है, फैसले आप लेते हो, डंडे
आप चलाते हो और ऊपर से कहते हो दुर्भाग्यपूर्ण। दुर्भाग्यपूर्ण
आप खुद  ही तो नहीं। इस देश के लिए। प्रजातंत्र के लिए।
ईमानदारी के लिए। महंगाई के लिए। फेहरिस्त लंबी है। गिनते
चले जाइए। आधी रात के बाद यदि यह भीड़  को तितर-बितर करने का
षड्यंत्र था, तो बेशक यह लोकतंत्र के खिलाफ था। भीड़
यदि खतरा है, तो प्रजातंत्र  भी  खतरा है। स्वयं आपकी सरकार खतरा है, क्योंकि यह सब भीड़ का ही नतीजा है। शायर अल्लामा इकबाल ने कहा भी है  जम्हूरियत यानी प्रजातंत्र वह तर्ज
-ए-हुकूमत है, जहां बंदों को तौला नहीं, गिना जाता है।
बाबा रामदेव कितने सच्चे
हैं, उन्हें योग सि खा ना चाहिए,
राजनीति नहीं करनी चाहिए, इन
सब बातों का रामलीला मैदान
पर हुए अनशन से कोई ताल्लुक
नहीं होना चाहिए। बच्चन साहब एक्टर  हैं एक्टिंग  ही करनी
चाहिए, अरुण शौरी को सिर्फपत्रकारिता और किरण बेदी को सामाजिक कार्यकर्ता की सरहद नहीं लांघनी चाहिए। कौन तय करेगा यह?. . . और किसी नेस्वयं तय कर लिया है, तो वह सरकार नियोजित डंडे खाने के लिए तैयार रहे। चार जून की देर रात को हुई उस धोखाधड़ी
की कार्रवाही के दौरान 75 फीसदी लोगों को चोट आई।
इक्यावन वर्षीय राजबाला को रीढ़ की हड्डी पर गहरी चोट है
और 24 साल के सुनील का सिर फूट चुका है। दोनों ही जीवन और मृत्यु से संघर्ष कर रहे हैं। 
बेशक ,यह अलग मुद्दे हैं
कि बाबा रामदेव से श्रेष्ठ अन्ना हजारे हैं कि बाबा रामदेव ने
विदेश में लंबी चौड़ी जमीनें खरीदी हैं कि उन्होंने अनशन को
अतिरिक्त  भव्यता दी कि पढ़ा -लिखा  युवा अन्ना हजारे से
स्वत:स्फूर्त जुड़ गया था कि बाबा रामदेव राजनीतिक पार्टी
का निर्माण कर चुके हैं। इनमें से सारी बातें अगर सच भी हैं
तब भी चार जून की रात के घटनाक्रम को न्यायोचित नहीं
ठहराया जा सकता। यूं ही लोगों को जनरल डायर की करतूत
याद नहीं आई। अंग्रेजी हुकूमत के इस जनरल ने 13 अप्रैल
1919 को बैसाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में
अंधाधुंध गोलियां चलवाई थीं। स्त्री-पुरुष, बच्चे सब निहत्थे थे।
डेढ़ हजार से ज्यादा लाशें बिछी थीं तब। यहां रामलीला मैदान में
सब उनिंदे थे। जिस संस्कृति में सोते हुए पेड़-पौधों को जगाना भी अपराध है वहां लाठियां बरसाई गईं। आंसू गैस छोड़ी
गई।
गौरतलब है कि जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद पूरे देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ हवा बन गई थी।
लकवे का शिकार डायर अंतिम
समय में यही बुदबुदाते हुए मर
गया - 'कुछ लोग कहते हैं मैंने
ठीक किया और कुछ कहते हैं
गलत किया। अब मैं मर जाना
चाहता हूं और गॉड से पूछना
चाहता हूं कि मैं सही था या
गलत।
हमारी हुकूमत करने की शैली अंग्रेजों जैसी है। कुछ देते
हैं, तो एहसान की मुद्रा में और छीनते हैं, तो डाकू और हत्यारों
की तरह। इन दिनों एक छपा हुआ विज्ञापन हर जगह नजर
आता है। तस्वीर में  भूखे बच्चे स्कूल आकर खाना खाते हैं।
सरकार उन्हें पौष्टिक भोजन देती है। आजादी के 64 सालों बाद
तक सरकार को अपनी जनता को  भीख  देनी पड़ रही है। खाना
देंगे, स्कूल आओ पढऩे के लिए। ये तरीके एक नागरिक के भीतर स्वाभिमान नहीं जगाते होंगे। उल्टे रौंदते हैं। भूखे बच्चों
की इन कतारों के ऊपर दो तस्वीरें चस्पा होती हैं। सत्ताधारी
उम्रदराज पुरुष और स्त्री की। यह जताते हुए कि देखो , हम कितना कर रहे हैं इन लोगों के लिए। दरअसल, एक बड़ी खाई बन चुकी है हुकूमत और जनता के बीच। भरोसा उठ चुका है। यह महत्वपूर्ण समय काल
है। संक्रमण का दौर है। समय सबको दर्ज करेगा। जो चुप हैं
उनका भी हिसाब लिखा जाएगा।

टिप्पणियाँ

  1. "दुर्भाग्यपूर्ण "शब्द एक ब्रांड बन चुका है ...नौ बार पेट्रोल की कीमतें बढ़ना भी सिर्फ जनता का दुर्भाग्य है ...

    बंद पंडाल में आंसू गैस के गोले दागे जाने से जलियांवाला बाग़ जैसी स्थिति बन ही सकती थी ...
    स्वाभिमानी जनता इन्हें चाहिए कहाँ ...

    ओजपूर्ण आलेख ...

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  2. बहुत सुलझी हुई पोस्ट। जिन्हें देश की बागडोर सौंपी गयी है उनकी ज़िम्मेदारी कह देने भर से कहीं अधिक है।

    जवाब देंहटाएं
  3. आपके एक एक शब्द से सहमति...अपार सहमति....

    आपने जितना और जैसे कह दिया...इसके आगे इसमें और कुछ जोड़ने की गुंजाइश नहीं बची है....

    कोटिशः आभार आपका..

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  4. bahutshukriya vaniji ruchika anuraagji praveenji aur ranjanji

    जवाब देंहटाएं

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