संदेश

मई, 2021 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जो मंटो आज होते इस कोविड 'काल' में क्या लिखते

चित्र
 बेहतरीन कहानीकार सआदत हसन 'मंटो ' आज जो ज़िंदा होते 110 साल के होते।आज उनका जन्मदिन है।  बंटवारे पर लिखे उनके अफ़साने इंसानी हृदय को चीर कर रख देते हैं ,मनुष्य को ऐसा आईना दिखाते हैं कि फिर वह आंख नीची करने पर मजबूर हो जाता है। उनकी कहानियां टोबाटेक सिंह ,खोल दो, ठंडा गोश्त,काली शलवार  आम इंसान के जजबात को झिंझोड़  कर रख देती है तो सियासत और दुनिया पर राज करते रहने का सपना देखने वालों का खूनी पंजा भी दिखाती हैं। सवाल ये उठता है कि आज जब अस्पताल बेबस और सियासत अपने राज को कायम रखने के लिए सारी हदें पर कर रही हो तब मंटो क्या लिखते। क्या लिखते वे जब इंसान को एक कुत्ते की तरह सड़क पर फैला दूध चाटते देखते ?  बीमार को एक-एक सांस के लिए यूं  गिड़गिड़ाते हुए देखते? पार्थिव देव को अंतिम संसार के लिए कतार में देखते ? एक गरीब की ज़िन्दगी जो लॉकडाउन ने महामारी से पहले ही घोंट दी है इस समय बीसवीं सदी का यह लेखक इक्कीसवीं सदी में क्या लिखता ?  शायद वह लिखता कि व्यवस्था आज खुद की नाकामी को छिपाने के लिए लोगों को घर के भीतर कैद कर चुकी है ,उसके पास अस्पताल नहीं है इसलिए उसने तालाबंदी का सस्ता रास्ता

यह पेंडेमिक नहीं इन्फोडेमिक है

 यह पेंडेमिक नहीं इन्फोडेमिक है। यह  ज़्यादा नुकसान कर रहा है। महामारी को सूचनामारी क्यों बनाया जा रहा है ? हम संकट से विध्वंस की ओर कूच कर गए हैं। ऐसा कोविड -19 की वजह से हो रहा है। क्या सचमुच इस विध्वंस का सारा दोष इस वायरस पर ही मढ़ दिया जाना चाहिए ? अगर जो यह कोढ़ है तो सूचना तंत्र की बाढ़ और अव्यवस्था ने इसमें खाज का काम नहीं  किया है? खौफ ऐसा है कि कोविड जान ले इससे पहले हम फंदों पर झूल रहे हैं ,पटरियों पर लेट रहे हैं ,छत से कूद रहे हैं। अपनों को ख़त्म भी कर रहे हैं। बीते रविवार को राजस्थान के कोटा जिले में दादा-दादी इसलिए ट्रैन के नीचे आ गए क्योंकि उन्हें डर था कि उनका पोता भी कोरोना संक्रमित न हो जाए। उनकी रिपोर्ट कोरोना पॉजेटिव आई थी। दोनों ने अपने पोते को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी। इस वायरस का व्यवहार देखा जाए तो तथ्य यही है कि यह बच्चों को कम प्रभावित करता है और जो बच्चे संक्रमित हो भी जाएं तो यह उनके लिए जानलेवा नहीं है। कोरोना के  डर और व्यवस्था से  उपजी निराशा ने लोगों को कोरोना से पहले ही अपनी जान लेने पर मजबूर कर दिया है। सोचकर ही रूह कांपती है कि महामारी से पहले ह

ये जो सिस्टम है

 सात साल पहले भारत वर्ष की पवित्र संसद की देहरी पर जब उस लोकप्रिय शख्स ने शीश नवाया था तो लगा था ,देश को उसका नेता मिल  गया है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक समान और संवेदनशील निगाह रखेगा। अतीत के कुछ संदेह थे भी तो भोले-भाले मतदाताओं ने ताक पर रख दिए और आस भरी नज़र से  नेता की ओर देखने लगे। फिर देश ने देखा मॉब लिंचिंग यानी भीड़ जब घेरकर किसी को मार दे तो व्यवस्था का मौन ,नागरिकता कानून के खिलाफ जब महिलाएं शाहीन बाग़ में विरोध प्रकट करें तो व्यवस्था ने संवेदना की बजाय उन्हें खदेड़ने में दिलचस्पी ,यहां तक की व्यवस्था ने राजधानी के एक हिस्से को दंगे की भेंट चढ़ जाने का मंज़र भी आँख मूंद कर  देखा। किसानों ने सिस्टम से खेती कानून पर फिर विचार करने की गुहार लगाई वह तब भी मौन साध गया।     कोरोना महामारी के पहले दौर के बाद जब सिस्टम अपनी पीठ  रहा था, देश ने वह भी देखा।  यह समय से पहले आया पार्टी का जयघोष था।   'भारत ने न केवल प्रधानमंत्री  के नेतृत्व में कोविड को हरा दिया है बल्कि अपने सभी नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाने के प्रति विश्वास से भी भर दिया है। पार्टी कोविड के खिलाफ जंग के मामले में भारत क