जो मंटो आज होते इस कोविड 'काल' में क्या लिखते

 बेहतरीन कहानीकार सआदत हसन 'मंटो ' आज जो ज़िंदा होते 110 साल के होते।आज उनका जन्मदिन है।  बंटवारे पर लिखे उनके अफ़साने इंसानी हृदय को चीर कर रख देते हैं ,मनुष्य को ऐसा आईना दिखाते हैं कि फिर वह आंख नीची करने पर मजबूर हो जाता है। उनकी कहानियां टोबाटेक सिंह ,खोल दो, ठंडा गोश्त,काली शलवार  आम इंसान के जजबात को झिंझोड़  कर रख देती है तो सियासत और दुनिया पर राज करते रहने का सपना देखने वालों का खूनी पंजा भी दिखाती हैं। सवाल ये उठता है कि आज जब अस्पताल बेबस और सियासत अपने राज को कायम रखने के लिए सारी हदें पर कर रही हो तब मंटो क्या लिखते। क्या लिखते वे जब इंसान को एक कुत्ते की तरह सड़क पर फैला दूध चाटते देखते ?  बीमार को एक-एक सांस के लिए यूं  गिड़गिड़ाते हुए देखते? पार्थिव देव को अंतिम संसार के लिए कतार में देखते ? एक गरीब की ज़िन्दगी जो लॉकडाउन ने महामारी से पहले ही घोंट दी है इस समय बीसवीं सदी का यह लेखक इक्कीसवीं सदी में क्या लिखता ? 
शायद वह लिखता कि व्यवस्था आज खुद की नाकामी को छिपाने के लिए लोगों को घर के भीतर कैद कर चुकी है ,उसके पास अस्पताल नहीं है इसलिए उसने तालाबंदी का सस्ता रास्ता चुना ,उसके पास महामारी की  वैक्सीन होकर भी नहीं है इसलिए उसने लोगों को घर की दीवारों में चुनवाना बेहतर समझा। क्या भूखे इंसान की चार दीवारें उसे अनाज देंगी ? गरीब जब भूख से जूझ रहा होगा तो वह बाहर निकलना चाहेगा लेकिन यह व्यवस्था इसकी खौफनाक तालाबंदी उसे फिर भीतर धकेल देगी। यह सन्नाटा और भूख उसे जीते जी तबाह कर देगी। निज़ाम को यह भ्रम कैसे है कि चूल्हों में आग अपने आप लगती है और रोटी की फसल घर के भीतर लहलहाती है। सिस्टम औंधा पड़ा है ,उसकी जनता अस्पताल से गुहार लगा रही है कि हम मर रहे हैं हमारी सुध लो। उफ़ मंटो शब्द रीत जाते हैं आपकी युगांतरकारी कलम का कोई सानी नहीं ,वो दृष्टि नहीं जो इस दोजख के दर्द को कह सके। 
दरअसल रविशंकर बल के एक बेहतरीन बांग्ला उपन्यास दोज़ख़नामा में एक प्रयास हुआ है मंटो को ज़िंदा रखने का। रविशंकर बल का चार  साल पहले देहांत हो गया। हिंदी अनुवादक अमृता बेरा ने भाषा का प्रवाह कायम रखा है । दो नामचीन हस्तियों की मुलाकात का दस्तावेज है बल का उपन्यास दोज़खनामा। उन्नीसवीं सदी के महान शायर मिर्जा असदउल्ला बेग खां गालिब(1797-1869) और बीसवीं सदी के अफसानानिगार सआदत हसन मंटो (1912-1955 )की कब्र में हुई मुलाकात से जो अपने-अपने समय का खाका पेश होता है वही दोख़नामा है। गालिब अपने किस्से कहते हैं कि कैसे मैं आगरा से शाहजहानाबाद यानी दिल्ली में दाखिल हुआ जो खुद अपने अंत का मातम मनाने के करीब होती जा रही थी। बहादुरशााह जफर तख्त संभाल चुके थे और अंग्रेज आवाम का खून चूसने पर आमादा थे। 1857 की विफल क्रांति ने गालिब को तोड़ दिया था और उनके इश्क की अकाल मौत ने उन्हें तन्हाई के साथ-साथ कर्ज के भी महासागर में धकेल दिया था। सरकार जो पेंशन उनके वालिद के नाम पर दिया करती थी वह भी मिलनी बंद हो गई। ये सब सिलसिलावार किस्से मंटो के साथ जब गालिब साझा करते हैं तो मंटो भी हिंदुस्तान में जिए हुए किस्सों और पाकिस्तान से मिली निराशा को लफ्ज़ देते हैं। 
यूं तो मंटो के बारे में कहने को इतना कुछ है कि मंटो पढ़ाई-लिखाई में कुछ ख़ास नहीं थे कि मंटो कॉलेज में उर्दू में ही फ़ेल हो गए थे कि शायर फैज़ अहमद फैज़ मंटो से केवल एक साल बड़े थे कि उन्हें भी चेखोव कि तरह टीबी था कि वे बेहद निडर थे कि उनकी कई कहानियों पर अश्लीलता के मुक़दमे चले कि बटवारे के बाद वे  पकिस्तान चले गए कि उन्होंने दंगों की त्रासदी को भीतर तक उतारा कि वे मित्रों को लिखा करते कि यार मुझे वापस बुला लो कि उन्होंने ख़ुदकुशी की नाकाम कोशिश  की और ये भी कि वे बहुत कम [43] उम्र जी पाए गोया कि  चिंतन और जीवन का कोई रिश्ता हो। उनके बारे में पढ़ते-लिखते दिल दहल जाता है और उनकी कहानियां पढ़ते हुए  और ज्यादा। बेशक मंटो का फिर पैदा होना मुश्किल है।हमारा नसीब कि उनका लिखा अभी मिटा नहीं है। 


एक अर्थ में मंटो सव्यसाची थे हास्य व्यंग्य पर उनका बराबर का अधिकार था।बंटवारे से पहले उन्होंने मुंबई में बतौर फिल्म लेखक भी जिंदगी का जायका लिया। उन्हें समझने के लिए उन्हीं से जुड़ा  एक सच। 
मुग़ल ए आज़म से प्रसिद्धि पानेवाले के. आसिफ उन दिनों नए-नए डिरेक्टर थे और फूल नाम कि फिल्म बना रहे थे।  इसी काम के लिए वे एक  दिन मंटो के घर गए. मंटो से कहा कि कहानी सुनाने आया हूं  । मंटो ने मजाक किया -'तुम्हें पता है  कहानी सुनने  की भी फीस लेता हूं। ' यह सुनकर आसिफ उलटे पैर लौट गए।  मंटो मानाने के लिए दौड़े लेकिन आसिफ तब तक जा चुके थे। मंटो को बड़ा पछतावा हुआ। कुछ दिन बाद एक आदमी लिफाफा लेकर मंटो के घर आया ।मंटो ने लिफाफा खोला तो उसमें सौ-सौ के पांच नोट थे और एक चिट्ठी भी- 'फीस भेजी है कल आ रहा हूँ'   मंटो स्तब्ध रह गए उन दिनों कहानी लिखने के ही उन्हें बमुश्किल तीस पैैंतीस रुपए मिला करते  थे और फिर कहानी वह भी किसी और की लिखी हुई को सिर्फ सुनने का पांच सौ रुपए । दूसरे दिन सुबह नौ बजे आसिफ उनके घर पहुंचे। 'डॉक्टर साहब फीस मिल गयी न ? मंटो शर्मिंदा महसूस करने लगे।  पल भर सोचा  कि रुपए वापस कर दूं, तभी आसिफ बोले यह पैसा मेरे या मेरे पिता का नहीं है प्रोड्यूसर का है।  मेरी यह भूल थी कि आपकी फीस के बारे में सोचे बगैर ही आपके पास आ गया। चलिए कहानी सुनने के लिए तैयार हो जाइए।  किसी और की लिखी कहानी सुनाने के बाद आसिफ ने पूछा-'कैसी है ?' 'बकवास है', मंटो ने जोर देकर कहा. 'क्या कहा?' अपने होंठ काटते हुए आसिफ ने कहा।  मंटो ने फिर कहा बकवास। आसिफ ने उन्हें समझाने का का प्रयास किया। मंटो ने कहा - 'देखिये आसिफ साहब, आप एक बड़ा वज़नदार पत्थर लाकर भी मेरे सर पर रख दो फिर ऊपर बड़ा हथौड़ा मारो तब भी यही कहूँगा कि यह कहानी बेकार है। आसिफ ने मंटो का हाथ चूमते हुए कहा सचमुच ही बकवास है आपके पास यही सुनने आया था।  आसिफ ने उस कहानी पर फिल्म बनाने का इरादा छोड़ दिया। मंटो कि साफगोई पर आसिफ फ़िदा हो गए थे वर्ना 500  रुपये में इतनी ताकत है कि वह कचरा कहानी को भी बेमिसाल कहला सके। 
happy birthday मंटो साहब !!




मंटो के बारे में कहने को इतना कुछ है कि मंटो पढ़ाई-लिखाई में कुछ ख़ास नहीं थे कि मंटो कॉलेज में उर्दू में ही फ़ेल हो गए थे कि शायर फैज़ अहमद फैज़ मंटो से केवल एक साल बड़े थे कि उन्हें भी चेखोव कि तरह टीबी था कि वे बेहद निडर थे कि उनकी कई कहानियों पर अश्लीलता के मुक़दमे चले कि बटवारे के बाद वे  पकिस्तान चले गए कि उन्होंने दंगों की त्रासदी को भीतर तक उतारा कि वे मित्रों को लिखा करते कि यार मुझे वापस बुला लो कि उन्होंने ख़ुदकुशी की नाकाम कोशिश  की और ये भी कि वे बहुत कम [४३] उम्र जी पाए गोया कि  चिंतन और जीवन का कोई रिश्ता हो . उफ़... उनके बारे में पढ़ते-लिखते दिल दहल जाता है






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