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मारवाड़ से सीखे मराठवाड़ा

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 मराठवाड़ा पहुंची ट्रैन          तस्वीर इंडियन एक्सप्रेस से साभार कैप्शन जोड़ें सोमवार सुबह से दो अखबार की दो बातें बार-बार कौंध रही हैं। अंग्रेजी के अखबार में महाराष्ट्र के सतारा जिले के गांव तालुुका फलटण के किसान का साक्षात्कार है जबकि हिंदी के अखबार में वैसे ही संपादकीय पृष्ठ पर जैसलमेर के चतरसिंह जाम का लेख है जो अकाल में भी पानी की प्रचुरता की कहानी कहता है। वे लिखते हैं कि हमारे यहां पानी की बूंदों की कृपा मराठवाड़ा से भी कम होती है लेकिन हमारे यहां पानी का अकाल नहीं बल्कि मनुहार होती है। आखिर यह विरोधाभास क्यों, कि जो क्षेत्र अकाल के लिए चिन्हित  और अपेक्षित है वहां पानी का इतना सुनियोजन और जहां ठीक-ठाक पानी पड़ता है वहां हालात इस कदर सूखे कि रोज पशुओं की मौत हो रही है और परिवार के सदस्य खेती छोड़ मजदूरी करने को मजबूर। सतारा जिले से 70 किमी दूर बसे गांव तालुका फलटण के किसान लक्ष्मण का कहना है कि मेरे परिवार में सात सदस्य हैं। माता-पिता, मैं, मेरी पत्नी और तीन बच्चे। हमारे गांव में कोई नदी नहीं बहती इसलिए किसानी पूरी तरह वर्षाजल पर ही आश्रित है। सूखा पहले भी हुआ है लेकिन

मेरी पहली श्मशान यात्रा

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स्त्रियों को कहाँ इजाज़त होती है मसान जाने की।  गुजरात के इस गांव में नदी किनारे बने श्मशान घाट पर जब पहली बार भाइयों के साथ मामाजी के फूल चुनने गई तो लगा कि मामाजी जाते-जाते भी दुनिया का अलग रंग नुमाया कर गए। इससे पहले मामाजी  की बेटियों  ने भाई के साथ मिलकर मुखाग्नि दी थी।  बेहद निजी अनुभव है। गुजरात के वलसाड़ जिले के नवसारी तहसील के एक गांव गणदेवी में मामाजी ने अंतिम सांस ली। बचपन से ही मधुमेह   (डायबिटीज) से पीड़ित मामाजी (58 )को पहले उनके माता-पिता और भाई-बहनों ने इस तरह बड़ा किया जैसे वे राजकुमार हैं और वक्त की पाबंदी में कोई भी कमी उनके जीवन पर संकट के बादल ला सकती है। उनका आना-जाना भी वहीं होता जहां मेजबान उनके मुताबिक बनी घड़ी का सम्मान कर पाता था। जीवन के पांच दशक उन्होंने इन्सुलिन के सुई (एक हार्मोन जो रक्त में शर्करा की मात्रा को नियंत्रित करता है) और घड़ी की सुई के साथ सटीक तालमेल बना कर बिताए। ब्याह हुआ। मामीजी के लिए कुछ भी आसान नहीं रहा होगा लेकिन उन्होंने इस रिश्ते को एेसा सींचा कि कुछ सालों में तो वे उनके चेहरे के भाव देखकर ही समझ जाती थीं कि उनके शरीर में शुगर