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अमृता की आन

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सब इंस्पेक्टर अमृता सोलंकी जैसी कामकाजी महिलाओं को सलाम है जो फ़र्ज़ और कर्त्तवय की राह में कभी आत्मसम्मान कुर्बान नहीं करती। लगता है यह लड़कियों के मुखर होने का समय है। वे हिम्मत बटोरने लगी हैं अपने सीनियर्स के अपमानज नक व्यवहार के खिलाफ। वे बोल रही हैं जज के बारे में, पत्रकार के बारे में और हाल ही एक मामला मध्य प्रदेश से आया है, जहां सेंधवा की पुलिसकर्मी अमृता सोलंकी ने अपने साथ हुए अन्याय का विरोध करते हुए न केवल इस्तीफा दिया, बल्कि फेसबुक पर मुहिम छेड़ दी है। तहलका पत्रकार के इस्तीफे से पहले का इस्तीफा है अमृता सोलंकी का। यहां अधिकारी ने उनका अपमान शब्दों से किया। अमृता मध्यप्रदेश के  राजगढ़ ज़िले के मलावर ठाने  में सब-इंस्पेक्टर हैं। बाइस नवंबर की रात वे  के ब्यावरा में ड्यूटी पर तैनात थीं। रात साढे़ बारह बजे एक बंद लालबत्ती का वाहन सामने से गुजरा । अमृता ने उसे रोका। वाहन में नरसिंहगढ़ के चुनाव पर्यवेक्षक थे। उन्होंने गुस्से से पूछा वाहन क्यों रोका? अमृता ने कहा मेरे अधिकारियों के निर्देश हैं कि लाल-पीली बत्ती की आड़ में कोई अवैध वाहन नहीं गुजर जाए। उन्ह

त हल्का

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जयपुर से प्रकाशित डेली न्यूज़ की साप्ताहिक पत्रिका खुशबू http://dailynewsnetwork.epapr. in/190567/khushboo/27-11-2013# page/1/2   इस घटना से पहले तक तरुण तेजपाल धारदार ब्रितानी अंग्रेजी में अपनी बात रखने वाले शानदार वक्ता और लेखक  थे। एेसा वक्ता, जो बात कहते हुए कभी- क भार  पंजाबी धुनों पर सवार हो क र थोड़ा मनमौजी हो जाता था। पचास साल के  इस लेख क -पत्र कार की  पकड़ यदि भारत के  एलीट क्लास पर थी तो उतना ही दखल कमजोर तबके  पर भी था। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में क ई बार इस चोटीवाले, ऊंचे क द के  गोरे चिट्टे शख्स को  सुना। जिस कि ताब के  अंश उन्होंने यहां पढे़, उसमें ए क कि शोर उम्र का  बाल क था और था असहज क रता टेक्स्ट। बहरहाल, इस गोरे चिट्टे शख्स पर आज दागदार इल्जाम लगे हैं। शायद इल्जाम क हना गलत होगा यह तो सच्चाई है, क्योंकि स्वयं तेजपाल इसे स्वीकार  चुके  हैं और अपनी प्रबंध संपादक और पत्रकार लड़की  दोनों से माफी  मांग चुके  हैं और स्वयंभू न्यायाधीश बनकर खुद को छह महीने तक  पद से अलग रखने का  फैसला भी कर चुके  हैं। .... और फिर ज्यों ही पता चलता है कि फैसला भारतीय क़ानून के

बिज्जी का जाना वाल्मिकी और वेदव्यास का जाना है

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विजय दान देथा 'बिज्जी' का जाना हमारे बीच से वाल्मिकी और वेदव्यास के  चले जाने से कम नहीं। रचना में जितनी गहराई व्यक्तित्व में उतनी ही सादगी। वे कतई अपने कद का बोझ लिए नहीं चलते। बातचीत से कभी कोई आभास नहीं कि  उन्होंने कुछ एेसा रचा है जिसके  लिए बड़े-बडे़ फिल्मकार उनकी  ड्योढ़ी चढ़ते हैं। जोधपुर में बिताए बीसवीं सदी के अंतिम तीन बरसों में जब कभी वे सड़कों  पर भी टकराए तो सादगी और विनयशीलता उनके  कंधे से लटके  झोले की तरह ही मिलती । एक  बार वे लोक कला मर्मज्ञ कोमल कोठारी  के घर से निकले ही थे कि  सामने मैं पड़ गई। गौरतलब है कि  कोमल कोठारी के  साथ मिलकर बिज्जी ने रूपायन संस्था बनाई, जो राजस्थान की  लोक  संस्कृति को  सहेजने का बड़ा काम कर रही थी। पूछने पर कि  चलिए मैं छोड़ देती हूं थोड़ी ना-नुकुर के  बाद वे मोपेड की  पिछली सीट पर बैठ गए और मैंने उनकी  बताई जगह पर छोड़ दिया जो ज्यादा दूर नहीं थी। जिंदगी एेसे मौके  कहां रोज मुहैया कराती है। बहरहाल, लोक साहित्य को  लोकभाषा में कलमबद्ध करनेवाले  बिज्जी इस लिहाज से भी अनूठे थे, क्योंकि अक्सर साहित्यकारों के आसपास उनका

बन्दे में था दम और हम बेजान बेदम

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गांधी जयंती से ठीक पहले कोई इस एहसास को पा जाए कि हिंसा के एवज में प्रतिहिंसा न करते हुए, खुद को बचा ले जाना कितना मुश्किल है, मायने रखता है। आवेश में रोम-रोम कांपता है। हाथ-पैर पर नियंत्रण भले ही कायम रह जाए लेकिन, शाब्दिक हिंसा  से जुबां बाज नहीं आती। बेहद मुश्किल है वहां से खामोश निकल जाना।    शाम के सात बजने वाले थे और वह अपनी बिल्डिंग के दरवाजे पर होती है। एक स्त्री (स्वाति) ठीक सामने आकर आंखों में क्रोध, लेकिन जुबां पर हैलो कहकर उससे बात करना चाहती है। वह कहती है, जी कहिए। 'आपके बच्चे ने मेरी गाड़ी पर अपनी सायकल निकालते हुए स्क्रेच लगा दिया। ओह, माफी चाहती हूं, कहां है आपकी गाड़ी? "गाड़ी मेरे पति ले गए हैं। आप गाड़ी का पूछ रही हैं। बच्चे को संस्कार नहीं देंगी?" क्या ज्यादा नुकसान हुआ है अगर एसा है, तो मैं भरपाई करने की कोशिश करुंगी। वह बोली।"क्या भरपाई करेंगी आप? आपकी औकात भी है भरपाई करने की?" औकात तो मेरी स्कूटर की भी नहीं, लेकिन मेरा मानसिक स्तर आपसे ऊंचा है। वह तेज लेकिन कांपते स्वर में बोलकर सीढि़यां चढऩे लगती है। स्वाति ने उसका हाथ प

आखर बंदी

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ये कौन बांधे है तुझे-मुझे अब भी जन्म में यकीं नहीं कच्ची उम्र को गुज़रे अरसा हुआ तेरे हर्फ़ बस यही  बिखरे पड़े हैं मेरे चारों ओर कभी सहलाते हैं कभी तकरार करते हैं कभी बरस जाते हैं मुझ पर गहरे भिगो देते हैं भीतर तक  मैं इन आखरों की बंदी हूँ ये आखर-बंधन मैंने लिया है सात फेरों की तरह. इस जन्म के लिए जीते जी .  image: varsha हर लो मेरा चैतन्य -------------------------- तुम नहीं जानते तुमने अनन्या मान कितना अन्याय किया है मेरे साथ मैं अचेत ही भली थी अब जब चेतना मुझे छू गयी है मुझे तुन्हारे सिवा कुछ नज़र नहीं आता हर लो मेरा चैतन्य दे दो जड़ता मुझे इस दुनिया में जीने के लिए कह दो कि मेरा-तुम्हारा कुछ नहीं आजाद करो मुझे इस मोहपाश से जानो तुम यह सब क्या तुम नहीं जानते ?  

पाकिस्तान में मलाला अफगानिस्तान में सुष्मिता

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अफगानिस्तान में अमेरिकी दखल हो जाने के बावजूद लेखिका और स्त्री सेहत से जुड़ी सक्रिय कार्यकर्ता सुष्मिता बैनर्जी की हत्या हो जाती है। इन दिनों यह ताकतवर देश जाने किस हक से सीरिया पर हमला करने की मंशा रखता है। दुनिया के बड़े हिस्से में जब स्त्री को जीने लायक परिस्थिति दे पाना ही नामुमकिन हो रहा है ये देश युद्ध के जरिए शांति प्रयासों में लगा है?  स्त्रियों की सेहत के लिए काम कर रहीं सुष्मिता बैनर्जी अफगानिस्तान में गोलियों से भून दी जाती हैं, तो स्त्री शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही किशोरी मलाला यूसुफजई को तालिबानी पाकिस्तान में मौत देने की कोशिश करते हैं। मलाला सौभाग्यशाली रहीं कि वे आज जिंदा हैं, लेकिन सुष्मिता के साथ ऐसा    न हो सका। वे अफगानिस्तान के पूर्वी पक्तिका प्रांत में अपने घर पर मार दी गईं। उनके पति जांबाज खान को बांध दिया गया और आतंकी उन्हें यह कहते हुए मारने लगे कि तुमने हमारे खिलाफ लिखना नहीं छोड़ा। उनचास साल की सुष्मिता को प्रेम और सौहार्द की कीमत जान से चुकानी पड़ी। काबुलीवाले की बंगाली बहू के स्नेह संदेश में कट्टरपंथियों को अपने इरादों की

वो सजदे के काबिल तो हो

कई बार लगता है कि हम वो समाज हैं जिसे ईश्वर तक पहुंचने के लिए कई सारे जरियों की जरूरत होती है। हम हमेशा माध्यम की ताक में रहते हैं और उम्मीद करते हैं कि कोई आए और हमारा हाथ पकड़कर उस तक ले जाए। हमें ऐ से लोग खूब रास आते हैं, जो हमें यकीन दिला देते हैं कि वे हमें प्रभु तक ले जाएंगे। फिर एक वक्त आता है, जब ये बिचौलिये ही हमें भगवान लगने लगते हैं और हम इनके कहे मुताबिक शतरंज के मोहरों की तरह चलने लगते हैं। यह तो बहुत अच्छा हुआ कि सोलह साल की बेटी के इस पिता की आंखें खुल गईं वरना कई परिवार अपनी संतानों को समर्पित करके भी आंखें बंद किए बैठे हैं। वे इसे बाबा का प्रसाद या धर्म की राह में दी गई आहुति मानते हैं। इस लड़की के पिता भी आसाराम के अंधभक्त थे। लखनऊ से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर शाहजहांपुर में उनका अपना व्यवसाय था कि दस साल पहले आसाराम के फेर में आ गए और दीक्षा ले ली। पास ही जगह खरीदी और अपने पैसों से आश्रम बनाया। चेतना तो तब लौटी, जब आसाराम ने बेटी को भी इसी सिलसिले में जोड़ लिया।   जिस इंदौर शहर से आसाराम की गिरफ्तारी हुई है, उसी शहर की कई महिलाएं और युवतियां बीस साल पहले ही शपथ पत्र दे

टंच स्त्रियाँ और चंट राजनेता

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आईएएस दुर्गा शक्ति नागपाल  सांसद मीनाक्षी नटराजन  अगर जो निलंबन का आधार दुर्गा शक्ति नागपाल की गिराई मस्जिद की दीवार है, जिसके लिए  कोई अनुमति नहीं ली गयी थी तो नेताओं की ऐसी सोच विकास की कौनसी सीढ़ी चढ़ेगी नहीं  कहा जा सकता । यह तो जबरदस्ती उन मुद्दों को हवा देना है जिसकी ओर देश का ध्यान ही नहीं था.   माफिया से राजनेताओं की साँठ-गाँठ  है  जो  इस व्यवस्था को और   पंगू बना रही है.एक पढ़े-लिखे युवा मुख्य मंत्री ने यह कार्यवाही कर निराश किया है तो  दूसरे   पढ़े-लिखे मुख्य मंत्री ने मंदसौर की सांसद मीनाक्षी नटराजन को सौ  टंच माल कहकर साफ़ ज़ाहिर कर दिया है कि  वे स्त्री के लिए चीज़ और माल से बेहतर कोई  उपाधि नहीं खोज सकते एक सियासत में अच्छे मुकाम पर हैं, तो दूसरी ब्यू रोक्रेसी में अच्छे ओहदे पर। करिअर में खुद को ऐ सी जगह देखने की ख्वाहिश में कई युवतियां दिन-रात मेहनत कर रही हैं, लेकिन मेहनत की दुनिया से निकलने के बाद होता क्या है? मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के प्रवक्ता महिला सांसद को ' सौ टंच माल' कह देते हैं और दूसरी को उत्तर  प्रदेश के य

बोतल में बार, बार में डांस

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रोजी सबका हक है  फिर चाहे वह नाचकर ही क्यों न कमाई जा रही हो ….    बुरा लगता  है  तो इस अनपढ़,बेबस,लाचार आबादी को  काम दीजिये उसके बाद इस पेशे को  जी भरकर कोसिये … मेरी   राय में तो यदि पुरुषों  के नाच में महिलाओं को आनंद आता है तो उन पुरुषों को भी   पूरा हक़ है कि वे अपने पेशे को जारी रखें बार डांसर्स पर कवर फोटो के लिए जब तलाश शुरू हुई तो किसी भी फोटो पर निगाह ठहर न सकी। इन तस्वीरों में मौजूद बेबसी, लाचारी और दोहराव की मजबूरी को, मोटे मेकअप की परत भी छिपा नहीं पा रही थी। तस्वीरों के किसी भी हिस्से में सुकून नहीं था। ना बार डांसर्स के चेहरों पर और न उन निगाहों में जो उन्हें  देखने वहां आई थीं। नतीजतन, कवर पर ऐ सी किसी भी तस्वीर का फैसला तर्क हो गया । जाहिर है जिस काम के छायाचित्र ही आप में ऊर्जा का संचार नहीं करते, वह पेशा कैसे जारी रखा जा सकता है? सर्वोच्च न्यायालय को क्योंकर जरूरी लगा कि डांस बारों को बंद करने का महाराष्ट्र सरकार का फैसला गैर-कानूनी था और महाराष्ट्र सरकार को ऐ सा भरोसा क्यों था जो वह मुंबई उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में गई?  दरअसल

इश्क़ करूँ या करूँ इबादत इक्कोइ गल है

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  मिल्खा सिंह ने चोरी-चकारी के जीवन को तज कर दौड़ जी तने के लिए जिस मेहनत  से  इश्क़  किया वही जज़्बा   और जूनून राकेश ओम  प्रकाश मे हरा की टीम ने भी रचा  है  " जब से देश आजाद हुआ है, तब से केवल पांच एथलीट ओलंपिक्स   के फाइनल मुकाबलों में पहुंचे हैं लेकिन मेडल कोई नहीं जीत पाया। मैं, गुरुजीत सिंह रंधावा, पीटी उषा, राम सिंह और अंजू बॉबी जॉर्ज। मैं जब तक जिंदा हूं मेरी आंखों में एक ही सपना रहेगा कि भारत का तिरंगा वहां लहराता देखूं" - मिल्खा सिंह     अठ हत्तर  साल के मिल्खा सिंह यानी भारत के वो एथलीट, जिन्होंने जान की बाजी लगाकर पसीना बहाया। कई बार तो इतना कि मुंह से खून बनकर निकला। सारी दुनिया को लगता था कि चार सौ मीटर का गोल्ड मेडल तो मिल्खा ही जीतेंगे , क्योंकि  उन्होंने ८० में से ७७ दौड़ें अपने नाम की थीं, लेकिन सेकंड के सौंवे हिस्से से मिल्खा चूक गए। ओलंपिक का पदक उनके हाथ से निकल गया और एक अफसोस उनके भीतर हमेशा के लिए पैबस्त हो गया। मिल्खा के पास जब निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा आए, तो उनके गोल्फर बेटे जीव मिल्खा सिंह ने कहा कि पापा अगर आप पर कोई फिल्म बनाए, तो य

xxx और 00 !! आप नहीं समझेंगे

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चौदह जुलाई को किया जानेवाला तार भारत का अंतिम तार होगा , इसी के साथ १ ६ ० साल पुरानी  यह तकनीक हमेशा के लिए अलविदा कह देगी  य ह समय तार को शोक संदेश भेजने का है। आज  के बाद तार इतिहास बनकर रह जाएगा। वह तार जिसका अतीत वाकई सुनहरे लफ्जों में लिखा है। इतना सुनहरा कि इसके बारे में जानते-समझते हुए आपका दिमाग रोशन होता हुआ मालूम होता है। संदेश भेजने की भूख इंसान में हमेशा से रही है। इमारतों से निकलते धुंए  , दूत, नगाडे़, कबूतर, बोतल में रखी चिट्ठी से भी जब इंसान का मन शांत नहीं हुआ, तो वह सुनियोजित डाक की ओर मुड़ा। खत वक़्त  लेते थे और आवाजाही की बेहतर व्यवस्था ही इन्हें सुगम बनाती थी, लेकिन तार विद्युत तरंगों से उपजी ध्वनि को पढऩे की तकनीक थी। गर्र गर्र..गट्ट गट्ट.. की आवाज से ट्रेंड टेलीग्राफिस्ट मैसेज को नोट करता था। अगर जो संदेश ००० श्रेणी का है, तो वह पहली प्राथमिकता के साथ भेजा जाता। संदेश आते ही तुरंत 'बॉय पियन' को आवाज दी जाती थी। वह दौड़ता हुआ आता था । उसकी उम्र 16 से 20 तक की होती थी ताकि स्फूर्ति से दौड़ सके, संदेश रिकॉर्ड में दर्ज होता और

सलाम तो सीधे खुदा को जाता है

क्यों करता है वह सलाम और क्यों ऊंचा हो जाता है मेरा कद रोज़ मेरे आस-पास ऐसा ही होता फिर एक दिन अचानक मेरे ही पाले से आती है एक आवाज़ सलाम हुज़ूर!! सलाम बजानेवाला चौंक उठता है ये मेरी आवाज़ में कौन बोला मेरा सुर इस कंठ में कैसे गूंजा  .....तभी से मैं और वह हो लेते हैं इस आवाज़ के साथ जो कहता है मैं कहूं, तुम कहो क्या फर्क पड़ता है न कहने वाला छोटा न लेने वाला बड़ा सलाम तो सीधे खुदा को जाता है .

तीसरा तेरह साल बाद

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शाहरुख खान और गौरी खान के घर तीसरी संतान अब्राहम का आगमन हुआ है। यह उनका सरोगेट बेबी है यानी जैविक रूप से वे दोनों ही बच्चे के माता-पिता हैं, लेकिन उसे जन्म देने वाली यानी नौ माह कोख में रखने वाली मां कोई और है। इस मामले में सरोगेट मां की भूमिका गौरी की भाभी नमिता छिब्बर ने अदा की है। बच्चे का जन्म समय से दो माह पहले ही हो गया और उसे मुंबई के प्रमुख अस्पताल की इंटेसिव केअर युनिट में रखना पड़ा। पूरी देखरेख डॉ. इंदिरा हिंदुजा की रही, जिन्होंने १९८६ में   देश के पहले टेस्ट ट्यूब बेबी का जन्म करवाया था। शाहरुख-गौरी के दो बच्चे पहले ही हैं। बेटा आर्यन पंद्रह साल का है और बेटी सुहाना तेरह साल की। शाहरुख पर इलजाम है कि उन्होंने अपने तीसरे बेटे का लिंग परीक्षण पहले ही करा लिया था। अभिनेता शाहरुख से जब पत्रकार इस मसले पर बात करना चाहते हैं, तो वे चुप्पी साध लेते हैं और उन्हें अब्राहम की बजाय अपनी नई फिल्म चेन्नई एक्सप्रेस के बारे में बात करना ज्यादा सुहाता है। बहरहाल, शाहरुख खान के निजी मसलों पर न्यायाधीश बनने का कोई इरादा नहीं है, लेकिन सवाल उठता है कि ऐसे फैसले आखिर उनके चाहने

मैंने चाहा था ख़ुशबू को मुट्ठी में कैद करना

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ख़ुशबू मैंने चाहा था ख़ुशबू को मुट्ठी में कैद करना ऐसा कब होना था वह तो सबकी थी उड़ गयी मेरी मुट्ठी में रह गया वह लम्स उसकी लर्ज़िश और खूबसूरत एहसास काफ़ी है एक उम्र के लिए       नासमझी   अक्सर दुआओं में उठे तुम्हारे हाथ देखकर, मैं कहती इनकी सुनना मौला मैं नासमझ नादाँ कहाँ समझ पाई थी कि तुम्हारी हर अरदास हर अर्ज़ हर इबादत में मैं थी. काश, कोई एक सजदा कभी अपने लिए भी किया होता तुमने .. .

ग़ैर मुल्क में कोई अपना

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यह चेहरा है अमेरिकी  नागरिक  एडवर्ड स्नोडेन का , जो अमेरिका  की  सुरक्षा एजेंसी(एनएसए) में कार्यरत हैं। उनतीस साल के  एडवर्ड का अच्छा खासा जॉब है लेकिन रक्षा विभाग में काम क रते हुए उन्हें लगा कि   सुरक्षा के  नाम पर अमेरिका उन करोड़ों नागरिकों  की  निजता का  हनन कर रहा है, जो गूगल, फेसबुक स्काइप, यू ट्यूब, माइक्रोसॉफ्ट, एप्पल, याहू जैसी साइट्स पर सक्रिय  हैं। अमेरिकी  सुरक्षा एजेंसियों की  पहुंच इन्हें चलाने वालों के सर्वर तक है। इन कम्पपनियों के  संचालक भले ही कहते फिरें कि  हमने अमेरिकी  सरकार से इन सूचनाओं को  साझा नहीं किया है, लेकिन एडवर्ड स्नोडेन की माने, तो उनके  जमीर ने यह गवारा नहीं किया कि  हर गैर-अमेरिकी का  निजी खाता महज इसलिए अमेरिकी  सरकार के  पास हो, क्योंकी  उन्हें अपनी सुरक्षा की  चिंता है।   अचरज की  बात है, लेकि न सच्चाई यही है कि  आप अपनी मासूमियत के  चलते जो भी इन सोशल नेटवर्किंग  साइट्स पर साझा करते है, वह अमेरिका  को  मालूम है। एडवर्ड ने जब इसे उजागर किया, तो उन्हें अमेरिका  छोडऩा पड़ा। उन्हें मालूम हो गया है कि  उनका  यह कदम देशद्रोह की  श्रेणी में रखा ज

जॉली वुमन

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बात  ऐसी स्त्री की जिसने अपनी माँ को स्तन कैंसर से मरते हुए देखा और जब जाना कि उनके अन्दर भी वही जीन है तो उन्होंने स्तन ही हटवा लिए . यह फैसला मशहूर हॉलीवुड अदाकरा एंजलीना जॉली का है . क्या वाकई यह एक जॉली वुमन का सहस से भरा   निर्णय है जिससे दुनिया की तमाम स्त्रियों को एक दिशा मिलेग। किसी अंग को महज आशंका में यूं कटवा देना बीमारी का बर्बर इलाज नहीं ?.   हॉलीवुड अभिनेत्री एंजलीना जोली के इस निर्णय का  विरोध ·रते हुए एक अमेरिकी  शिक्षिका  ने ·हा है कि  वे अमीर हैं, उनके  पास सारी सुखसुविधाएं हैं, उनकी  देखभाल के  लिए लंबा-चौड़ा स्टाफ मौजूद है इसलिए वे महंगी सर्जरी करा सकती हैं। एंजलीना के  इसे उजागर करने से मेरी जैसी कई  मध्यमवर्गीय परिवारों को  बेहद तकलीफ हुई है क्योंकि हम इस खर्च का  भार नहीं उठा सकते। मेरी मां को भी कैंसर था और मेरे अंदर भी बीआरएसी 1 जीन हो सकता है  लेकि न मैं परीक्षण को करा पाने में सक्षम नहीं। ऐसा कहने  वाली डे.बी जेंटाइल न्यू जर्सी में नन्हें बच्चों को  पढ़ाती हैं। एंजलीना ने जिस न्यू यॉर्क टाइम्स अखबार में लिख कर अपने स्तन हटवाने

गुड़िया भीतर गुड़ियाएं

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हम सब गुस्से में हैं। हमारी संवेदनाओं को एक  बार फिर बिजली के नंगे तारों ने छू दिया है। हम खूब बोल रहे हैं, लिख रहे हैं लेकिन  कोई नहीं बोल रहा है तो वो सरका र और का नून व्यवस्था   के लिए  ज़िम्मेदार लोग। खूब बोल-लिख कर  भी लग रहा है कि क्या यह काफी है ? कोई हल है हमारे पास कि  बच्चों का  यौन शोषण न हो और बेटियों के  साथ बलात्कार का  सिलसिला रुक जाए। ऐसी जादू की  छड़ी किसी कानून के पास नहीं लेकिन कानून लागू करने वालों के  पास एक शक्ति है वह है इच्छा शक्ति। ईमानदारी से लागू करने की  इच्छा शक्ति । हमने किसी  भी सरकारी मुखिया को  सख्ती से यह कहते नहीं सुना कि  बहुत हुआ, अब और नहीं। मेरे देश, मेरे प्रदेश में इस तरह का कोई  भी अपराध बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। हर मुखिया बचता नजर आता है। बयान आते हैं पुलिस क्या करे वह हर दीवार, हर कौने की  चौकसी नहीं कर सकती; दुष्कर्म एक सामाजिक अपराध है; कोई भी सरकार हो, इलजाम तो सरकार पर ही लगते हैं; ऐसे उबा देनेवाले बयानों की लंबी फेहरिस्त है। कोई सख्त आवाज नहीं गूंजती कि ऐसे वहशियाना कृत्य को  अंजाम देने वाले दरिंदों को  बख्शा नहीं जाएगा। ऐसा  कोई संद