मैंने चाहा था ख़ुशबू को मुट्ठी में कैद करना


ख़ुशबू
मैंने चाहा था ख़ुशबू को मुट्ठी में कैद करना
ऐसा कब होना था
वह तो सबकी थी
उड़ गयी
मेरी मुट्ठी में रह गया वह लम्स
उसकी लर्ज़िश
और खूबसूरत एहसास
काफ़ी है एक उम्र के लिए 


  

 नासमझी
 

अक्सर दुआओं में उठे
तुम्हारे हाथ देखकर,
मैं कहती
इनकी सुनना मौला
मैं नासमझ नादाँ
कहाँ समझ पाई थी
कि तुम्हारी
हर अरदास
हर अर्ज़
हर इबादत
में मैं थी.
काश, कोई एक सजदा
कभी अपने लिए भी किया होता तुमने ..
.

टिप्पणियाँ

  1. आपकी यह रचना कल शनिवार (22 -06-2013) को ब्लॉग प्रसारण पर लिंक की गई है कृपया पधारें.

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. कभी कभी अहसास भी कितने मायने रखते हैं हमारे लिए ...
    दोनों रचनाएं बेहद खुबसूरत

    जवाब देंहटाएं

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