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तेरा ज़िक्र होगा अब इबादत की तरह...

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original picture of mastani(1699 -1740 ) sanjay leela bhansali 's mastani mastani mazar/samadhi in pune मस्तानी कहने को मराठा साम्राज्य के पास बुंदेलखंड रियासत की ओर से नजराने में आई हो लेकिन उसने साबित किया कि वह उन बेजान सौगातों की तरह नहीं है। वह अपनी धड़कनों की मलिका थी। वह योद्धा थी, घुड़सवारी, तलवारबाजी जानती थी, बेहद खूबसूरत थी और संगीत उसकी रगों में था। हम जिस बुंदेलखंड को 'सौ डंडी एक बुंदेलखंडी' कहावत  से जानते हैं, उसी बुंदेलखंड की वह पैदाइश थी। बुंदेलखंड के राजपूत राजा छत्रसाल को मोहम्मद खान बंगश से खतरा था। उसका आक्रमण किसी भी क्षण उनके राज को तबाह कर सकता था।  गरुड़ दृष्टिवाले बाजीराव पेशवा यानी मराठा साम्राज्य से मिली ताकत से ही वे राज्य को बचा पाए। सौगात में झांसी, कलपी,सागर और 33 लाख सोने के सिक्के  दिए गए। मस्तानी भी पहुंची। मस्तानी-बाजीराव की कुरबत को मराठा राजघराना पचा नहीं पाया। मस्तानी राजपूत राजा और मुस्लिम मां रूहानी बाई की संतान थी। बाजीराव की शोहरत और वीरता उसे एक महायोद्धा में तब्दील करती जा रही थी लेकिन महल के गलियारे बाजीर

आज 16 दिसंबर है

सामंजस्य उस घटना पर ही नहीं है जिसने पूरे देश को झकझोर दिया था। दिल्ली सरकार निर्भया के नाबालिग अपराधी का पुनर्वास करना चाहती है  और केंद्र  उसे कैद में रखना चाहता है।   आज 16 दिसंबर है, वो तारीख जिस रात निर्भया छह दरिंदों की हैवानियत का शिकार हुई थी। हर भारतवासी दहला हुआ था। दुष्कर्म जैसे अपराध के खिलाफ एक ज्वाला-सी धधक रही थी। ये वह समय था जब लगता था कि अब हर स्त्री का सम्मान सुरक्षित रहेगा। क्या स्त्री क्या पुरुष हरेक मोमबत्तियों की  लौ में इस कुत्सित प्रवृत्ति को जलते हुए देख रहा था। मानना था कि ऐसे अपराधों पर यहीं विराम लग जाना चाहिए। संभावना से भरपूर निर्भया फिजियो थेरेपिस्ट बनने वाली थी। वह माता-पिता के सपनों को साकार कर देना चाहती थी। दिल्ली में एक एअरपोर्ट श्रमिक की यह बेटी परिवार की उम्मीद थी लेकिन उस रात एक बस में उसके मित्र के सामने दरिंदों ने उसके साथ दुष्कर्म किया और उसे इस कदर घायल कर दिया कि तेरहवें दिन सिंगापुर में इलाज के दौरान उसकी मौत हो गई। यह हत्या थी जिसके बारे में उसके अपराधी ने कहा था कि अगर वह विरोध नहीं करती तो नहीं मरती।     इस अपराध से जुड़े एक नाबालिग अ

ब्याह के इस मौसम मे

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 शादी, ब्याह इस दिव्य संबंध को चाहे जिस नाम से पुकारा जाए जब दो जिंदगियां साथ चलने का फैसला करती हैं तो कुदरत दुआ देती ही मालूम होती है। शहनाई की मंगल ध्वनि इसी दुआ की संगीतमय अभिव्यक्ति है। ब्याह की तमाम परंपराएं, फेरे, वचन, आहुति, मंत्र ऐसे दिव्य वातावरण का आगाज करते हैं कि ब्याह को बरसों-बरस जी चुका जोड़ा भी नई ताजगी का अनुभव करता है। सच है कि हम विवाह संस्था और कुटुंब का हिमायती समाज हंै। हम किसी भी कीमत पर इस संस्था को बचाए रखना चाहते हैं। शादी में ईमानदारी बुनियादी जरूरत है लेकिन हम इस नींव के खिसकने के बाद भी शादी को बचाए रखने में यकीन रखते हैं। आखिर क्या वजह है इसकी? हमारी अदालतें, हमारा समाज सब शादी को बचाए रखने में यकीन रखते हैं क्योंकि तमाम मतभेदों के बावजूद सुबह झगड़ते पति-पत्नी शाम को फिर एक हो जाते हैं। यह स्पेस इस रिश्ते में हमेशा बना रहता है। कई जोड़े तलाक की सीमारेखा को छूने के बाद इस कदर एक होते हैं कि मालूम ही नहीं होता कि विच्छेद शब्द उन्हें छूकर भी गुजरा था। सवाल यह उठता है कि हमारे पुरखों ने एकनिष्ठ होने की अवधारणा के साथ विवाह संस्था को स्थापित किया था तो आज क

छंद की तरह गूंजते तुम

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दो जिंदगियों के बीच ऐसा कौनसा गठजोड़ है जो ताउम्र उन्हें एक रखता है। अरसा पहले यही सोच थी कि कहीं भी चले जाओ पति-पत्नी अक्सर जूझते हुए ही नजर आते हैं। जोधपुर में पैंतीस साल के दांंपत्य के बावजूद उम्रदराज जोड़े को लड़ते-झगड़ते देखना हैरत में डाल देता था। आखिर इतने बरस बीत गए लेकिन इनके मतभेद उतने ही ताजादम क्यों हैं। वे छोटी-छोटी बातों पर उलझते रहते। जयपुर में एक और जोड़े को करीब से देखने का मौका मिला। उनमें गजब का मतैक्य इस बात को लेकर था कि इन मुद्दों पर हम एक दूसरे को बिलकुल नहीं टोकेंगे। तुम तुम्हारे हिसाब से और मैं मेरे हिसाब से। अलवर के एक जोड़े को देखकर लगता था कि पत्नी कुछ कहती भी नहीं हैं और पति समझ लेते हैं। पति-पत्नी आंखों ही आंखों में पूरी बात कर लेते। कभी उन्हें तेज संवाद करते नहीं सुना।     इन सभी सूरतों में जो सीधे नुमाया नहीं था वह था प्रेम। वह भाव कि हम दोनों को एक ही रहना है। साथ देना है एक दूसरे का। एक दूसरे को इस रिश्ते में इतना खुलापन देना है कि एक का भी दम ना घुटे। जो पति-पत्नी कहते हैं कि हममें कभी झगड़ा नहीं हुआ वे झूठ कहते हैं। जिस दांपत्य में बहस नहीं,

लौटाने वालों के हक़ में

सब अपने-अपने तर्क गढ़ रहे हैं।  शशि थरूर कहते हैं रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अंग्रेजों का नाइटहुड  सम्मान था कोई साहित्य का नोबेल नहीं।  राजस्थान के आईदान सिंह भाटी लिखते हैं जिस साहित्य अकादमी ने मेरी राजस्थानी भाषा को मान्यता दी, उसे लौटाने का कदम कोई कैसे उठा सकता है। सबके अपने तर्क हैं लेकिन विरोध के विरोध में शायद कोई नहीं लेखक अपने अवार्ड्स लौटा रहे हैं। वह सम्मान, जिसे पाकर उन्हें अपना जीवन सार्थक लगा होगा उसे वे लौटा रहे हैं। क्यों लौटा रहे हैं? क्या मिल जाएगा उन्हें? शायद आत्मरक्षा। यह सुरक्षा के  लिए उठाया गया कदम है। उन्होंने देखा कि कन्नड़ साहित्यकार कलबुर्गी गोलियों से शूट कर दिए जाते हैं। पानसरे  और दाभोलकर की भी हत्या कर दी जाती है। किसी के लिए किसी की विचारधारा को सहन नहीं कर पाने की संकीर्ण मानसिकता इस कदर सिर उठाती है कि कभी भीड़ तो कभी हथियारबंद समूह व्यक्ति को मार डालते हैं। या तो मरने के लिए तैयार हो जाओ या फिर अपना रक्षाबल खुद खड़ा करो। लेखकों ने यही किया है उन्होंने प्रतीकात्मक विरोध खड़ा किया है। लोकतंत्र में इससे शांतिप्रिय और कुछ नहीं हो सकता।  नाइटहुड सम्मान ल

न मनाएं no bra day लेकिन ....

पिछले कई महीनों से खुशबू में प्रकाशन के लिए एक आलेख रखा है। आलेख अंदर पहने जाने वाले वस्त्र को लेकर है कि इसकी खरीदारी में क्या सावधानी बरती जाए कि यह स्वास्थ्य को कम नुकसान पहुंचाए। हर सप्ताह यह लेख हमारी टीम चुनती और फिर संकोच के साथ इसे रोक दिया जाता। सच है कि यह महिलाओं की ही पत्रिका है और यहां ब्रा के बारे में प्रकाशन से संकोच की क्या जरूरत  है। सच यह भी है कि हम इस बारे में सबके सामने ज्यादा बातचीत नहीं करतें और इन्हें सुखाया भी छिपाकर ही जाता है। कोशिश यह हो कि खराब सेहत को ना छिपाया जाए। सवाल यह भी है कि  किसी भी मसले पर जागृति बढ़ाने वाले कदमों पर रोक क्यों? इस पर वैसे ही बातचीत होनी चाहिए जैसे हम सर्वाइकल कैंसर या किसी भी अन्य कैंसर के बारे में बात करते हैं। कल तेरह अक्टूबर को 'नो ब्रा डे' मनाया गया। इस अंग को अतिरिक्त कसकर रखने से कोशिकाओं की गतिशीलता प्रभावित होती है जिनसे गांठें बनती हैं और ये सख्त होकर कैंसर का कारण बनती हैं। कसी हुई ब्रा के कारण बीच के हिस्से में पसीने की वजह से संक्रमण भी हो सकता है और यह त्वचा के कैंसर में बदल सकता है। एक टीवी चैनल ने भले ही इ

क्यों झांकना किसी की रसोई में

हमारे खान-पान की शैली को आप क्या कहेंगे? कहां से विकसित होती है? शायद आदत। खाना-पीना एक आदत ही तो है। जो बचपन से हमें खिलाया जाता है वही हमारी आदत बन जाता है। मेरी मित्र के घर प्याज-लहसुन बिलकुल नहीं खाया जाता तो उसने नहीं खाया। यहां तक कि उसकी गंध से ही उसकी हालत खराब हो जाती। वह वहां बैठ ही नहीं पाती जहां लहसुन का तड़का लगता। वक्त बीता शादी ऐसी जगह हो गई जहां लहसुन के बगैर कोई सब्जी नहीं पकती। पहले-पहल वह अपनी सब्जी अलग बनाती लेकिन इन दिनों मुस्कुरा कर कहती है -"अब तो आदत पड़ गई है, ऐसी आदत की अब टमाटर के झोल वाली सब्जी खाई ही नहीं जाती।" बहरहाल इसका उलट होना भी उतनी ही सहजता के साथ स्वीकारा जा सकता है।                 एक ओर मेरी मित्र की माताजी हैं चिकन इस कदर बनातीं कि उसके यहां खाने का इंतजार हर मित्र को होता। इस बार सभी दोस्त काफी अरसे बाद मिले और आंटी के हाथ का चिकन खाने की इच्छा जाहिर की। मित्र ने कहा भूल जाओ, चिकन-विकन।  खाना-पकाना तो दूर मां अब उस जगह खाना भी नहीं  खातीं जहाँ  ये सब पकता है। उनकी रसोई में अब कोई एक अंडा भी नहीं उबाल सकता। एक बांग्ला परिवार में हम स

मनु ने क्या लिखा बापू के बारे में

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 कल बापू की 147वीं सालगिरह मनाई जाएगी। बापू हमारे जीवन में इस कदर रचे-बसे हैं कि यूं तो हमारा हर काम उन्हीं पर जाकर खत्म और शुरू होता है। वे हमारी मुद्रा यानी नोटो पर हैं। हमारे अस्पताल के नाम उन्हीं पर हैं। चौराहे, चौराहों की मूर्तियां, रास्ते, सब गांधीमय हैं।हैं फिर भी नहीं हैं । जीवन में भी दो तरह के लोग मिलते हैं। समर्पित गांधीवादी और दूसरे घोर गांधी विरोधी। इस कदर विरोधी कि लगता है गोड़से को फांसी जरूर दे दी गई लेकिन गोड़सेवाद पूरी ताकत से जिंदा है। बापू के जाने के 67 साल बाद भी लगता है कि हम उन्हें समझ ही नहीं पाए। कोई उनके नाम पर झाड़ू उठा लेता है तो कोई खादी का हवाला देने लगता है। बापू को हमने अपनी सुविधानुसार टुकड़ों में बांट दिया है। कुछ बातें जो बापू के व्यक्तित्व को रेखांकित करती हैं वह मनु गांधी की डायरी में मिलती हैं। मनु और आभा ये दोनों अंतिम समय में भी बापू के साथ थीं जब उन्हें गोली मारी गई। मनु लिखती हैं एक दिन रात साढ़े दस बजे बापू ने मुझे जगाया और कहा, 'मेरा वह पेंसिल का टुकड़ा ले आओ तो'। मैं घबरा गई और सोचा कि इस समय बापू पेंसिल के टुकड़े का क्या करेंगे।

दुनिया की पहली स्मार्ट सिटी मुअन जो दड़ो

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 चलते हैं अपनी जड़ों की ओर। कहीं दूर नहीं जाना बस पास ही है राजस्थान से लगा हुआ सिंध। वहीं है मुअन जो दड़ो यानी मुर्दों का टीला। सिंधी भाषा में मुअन यानी मरे हुए और दड़ा यानी टीला। कोई क्या दावा करेगा स्मार्ट सिटी बनाने का! हमारे पुरखे तो पांच हजार साल पहले ही सुनियोजित नागर व्यवस्था को जी चुके हैं। को जी चुके हैं।   सिंध कभी दूर नहीं था हमसे। ना राजस्थानियों से ना उन सिंधियों के दिलों से जो विभाजन के बाद पाकिस्तान छोड़कर हिंदुस्तान आ गए थे। पश्चिमी राजस्थान पड़ोस के सिंध से बहुत कुछ साझा करता है। पहनावा, घरों की बनावट, खानपान, ब्याह-शादी के रस्म-ओ-रिवाज और इनमें गाए जाने वाले लाडे। लाडे यानी वे गीत जो शादी से एक माह पहले ही गाए जाते थे। सिंधी घरों में आज भी गाए जाते हैं। सिंधी स्त्रियों की वेशभूषा में भी चटख रंग का कढ़ाईदार घाघरा और कांच की जरदोजी वाली कुर्ती शामिल है। गहने लाख और चांदी के। दादाजी अकसर इस पहनावे का जिक्र करते थे और उसे 'पड़ो-कोटी' कहते थे। पुरखों के सिंध से आने के कारण मुअन जो दड़ो और हड़प्पा नाम से हमेशा ही लगाव रहा। यहां-वहां से मिली जानकारियों ने ह

हिंदी मेरी जां

हिंदी दिवस से दो दिन पहले कोई इरादा नहीं है कि हिंदी ही बोलने पर जोर दिया जाए या फिर अंग्रेजी की आलोचना की जाए। हिंदी बेहद काबिल और घोर वैज्ञानिक भाषा है जो खुद को समय के साथ कहीं भी ले चलने में सक्षम है। क से लेकर ड तक बोलकर देखिए तालू के एक खास हिस्से पर ही जोर होगा। च से ण तक जीभ हल्के-हल्के ऊपरी दांतों के नीचे से सरकती जाएगी और व्यंजन बदलते जाएंगे। ट से न तक के अक्षर तालू के अगले हिस्से से जीभ लगने पर उच्चारित होते हैं। सभी व्यंजनों के जोड़े ऐसे ही विभक्त हैं। हिंदी इतनी उदार है कि उसने हर दौर में नए शब्दों और मुहावरों को शामिल किया। अरबी से तारीख और औरत ले लिया तो फारसी से आदमी आबादी, बाग, चश्मा और चाकू। तुर्की से तोप और लाश, पोर्चूगीज से पादरी, कमरा, पलटन और अंग्रेजी के तो अनगिनत शब्दों ने हिंदी से भाईचारा बना लिया है। डॉक्टर, पैंसिल, कोर्ट, बैंक, होटल, स्टेशन को कौन अंग्रेजी शब्द मानता है। अंग्रेजी हमारी हुई, हम कब अंग्रेजी के हुए। हिंदी भाषा पर इतने फक्र की वजह, बेवजह नहीं है। हाल ही जब अंग्रेजी में पढ़ी-लिखी अपने मित्रों और परिचितों में हिंदी की ओर लौटने की जो

दर्द का यूं दवा बनना

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अलविदा अलान पिता अब्दुल्लाह बच्चे को अंतिम विदाई देते हुए।  तस्वीर रायटर हम में से लगभग सभी ने नीली शर्ट और लाल शॉर्ट्स  पहने उस बच्चे की तस्वीर देखी होगी जो टर्की के समंदर किनारे औंधा पड़ा है। टर्की के तटीय सुरक्षाकर्मी ने जब पिछले बुधवार उसे  उठाया तो उसके दिल ने यही कहा कि काश धड़कनें चल रही हों लेकिन वह मृत था। तीन साल का अलान कुर्दी अपने बड़े भाई गालिब, मां रिहाना और पिता अब्दुल्लाह के साथ बरास्ता ग्रीस, कनाडा जाकर बस जाना चाहता था। उसके मुल्क सीरिया में इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने कहर मचा रखा है। इस कहर से बचने के लिए उसके पिता ने समुद्री स्मगलरों को चार हजार यूरो (एक यूरो लगभग ७५ रुपए) दिए। वह एक रबर बोट थी जिसमें पर्याप्त लाइफ जैकेट्स नहीं थे। रात के तीन बजे यह सफर शुरू हुआ। पता चला कि लहरें कभी-कभी पंद्रह फुट ऊंची भी हो जाती हैं। नाव पलट गई। माता-पिता ने दोनों बच्चों का सिर पानी से ऊपर रखने की भरपूर कोशिश की। अलान ने पापा से कहा 'पापा आप मेरा हाथ पकडऩा, मैं आपका पकडूंगा तो छूट जाएगा।' पकड़ नहीं बनी अलान छूट गया और अब्दुल्लाह का पूरा परिवार जल समाधि में लीन ह

सानदार, जबरजस्त, जिंदाबाद,

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सानदार, जबरजस्त, जिंदाबाद,  केतन मेहता की हालिया रिलीज मांझी का नायक दशरथ मांंझी जब ये तीन शब्द बोलता है तो उस पूरे मंजर में जान पड़ जाती है फिर चाहे हालात कितने भी बदतर, वाहियात और मुर्दानगी वाले क्यों ना हों। हालात और व्यवस्था के खिलाफ लडऩे वाला मांझी खुद इस कदर तकलीफों का मारा है कि देखने वाले को घनघोर निराशा होती है और जब फिल्म में यही सब गरीबी और अभाव की पृष्ठभूमि में हो तो कम अज कम भारतीय दर्शक उस फिल्म को सिनेमा हॉल तक देखने नहीं जाता। उसके लिए फिल्म के मायने मसाला मनोरंजन से है। मांझी कुव्यवस्थाओं के बीच से रास्ता निकालने की कोशिश है, जो आखिर में मोहब्बत के शाहकार ताजमहल से भी बड़ी पैरवी मोहब्बत के लिए कर जाती है। अपनी बीवी फगुनिया को याद करने वाला दशरथ  मोहब्बत का मसीहा मालूम होता है। दिलों को जोडऩेवाला दशरथ सब बराबर सब बराबर गाता है लेकिन जात-पांत की गहरी खाई में फंसे देश में होते कई प्रयास भी इस खाई को नहीं पाट पाते।       दशरथ मांझी की पत्नी फगुनिया का पैर उस समय पहाड़ से फिसल जाता है जब वह पति के लिए रोटी ला रही होती है। गेहलोर गांव (बिहार में गया के समीप) एक ऐसा गांव ह

महाभारत में कौन है चाचा कलाम को प्रिय

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 मेरी पीढ़ी ने महात्मा गांधी को नहीं देखा, शास्त्री को नहीं देखा केवल सुना था कि उनके एक आह्वान पर देश उस दिशा में चल देता था। जिन्हें देखा वे थे डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम। उनकी बात मानने का मन करता था। उनसे वादे करने का जी चाहता था। उनके साथ शपथ लेने को दिल करता था। इस साल जब जनवरी माह में जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में पधारे तो वहां का जर्रा-जर्रा कलाम-कलाम पुकार रहा था। सारे रास्ते वहीँ जा रहे थे जहाँ वे बोलने वाले थे।  हजारों बच्चों ने उनके साथ शपथ ली कि वे जिसे भी वोट देंगे उससे पहले उसके काम की गणना करेंगे। उन्होंने वहां मौजूद सबसे दोहराने के लिए कहा कि यदि दिल में सुंदर चरित्र बसता है तो घर में सौहार्द्र होता है और जो घर में साौहाद्र्र होता है तो देश व्यवस्थित होता है और जब देश व्यवस्थित होता है तो दुनिया में शांति स्थापित होती है।   लेकिन हमने ये क्या किया देश के सबसे कर्मठ व्यक्ति के देह त्यागते ही स्कूलों में छुट्टी घोषित कर दी। सोमवार रात ही बच्चों के स्कू ल से मोबाइल पर मैसेज आ गया कि पूर्व राष्ट्रपति के दुखद निधन पर स्कूल में अगले दिन अवकाश रहेगा और परीक्षा उसके अगले दिन होगी

मंटो से विजयेंद्र तक हम

मंटो ने  बंटवारे का जो दर्द कहानी टोबाटेक सिंह में लिखा वह खुशवंत सिंह के उपन्यास ट्रेन  टू पाकिस्तान से अलग था। ये दर्द इन दोनों ने जिया था।  आज के लेखक वी. विजयेंद्र प्रसाद हैं  और वे बजरंगी भाईजान रचते हैं। यह आज के समय की ज़रूरत है। हमारे बच्चे भारत के साथ जिस एक और मुल्क का नाम लेते हुए बड़े होते हैं वह है पाकिस्तान। अखबार की सुर्खियां पढ़ते हुए, टीवी पर बहस देखते हुए उन्हें समझ में आ जाता है कि यह दुश्मन मुल्क केवल हमारे देश का अमन-चैन बर्बाद करने के लिए बना है। यह एक ऐसा देश है जिसकी ओर हमारी तमाम मिसाइलों का रुख होना चाहिए। हमारे जन्नत से खूबसूरत कश्मीर में इन्होंने ही तबाही मचा रखी है और सरहद पर ये आए दिन गोलीबारी करते रहते हैं। बच्चे ये भी जानते हैं कि क्रिकेट के मैदान में हमें पाकिस्तान को हराकर जितनी खुशी मिलती है उतनी इंग्लैंड को परास्त कर नहीं मिलती। उन्होंने हिंदुस्तान के एथलीट मिल्खा सिंह की ओलंपिक्स में हार के लिए बंटवारे को जिम्मेदार ठहराने वाली फिल्म भाग मिल्खा भाग देखी और पसंद की है। उनके जेहन में पाकिस्तान के लिए नफरत है। उतनी नहीं जितनी बंटवारे के आसपास जन्मी

क्यों कोई स्त्री नहीं बनती FTII की अध्यक्ष

  गजेंद्र चौहान विवाद को छोड़कर किसी महिला को एफटीआईआई का अध्यक्ष बना देना चाहिए जो आज तक नहीं बनी। कई हैं जो इस पद के काबिल हैं। युधिष्ठिर ने कभी नहीं सोचा होगा कि उनके नाम पर यूं महाभारत छिड़ेगी। कौरव-पांडव यूं बंट जाएंगे। जाहिर है जो उनके पक्ष में होगा वो उन्हें पांडव लगेगा और उनका विरोधी कौरव। उनके लिहाज से कौरवों की संख्या दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। दरअसल, फिल्म एंड टेलीविजन इंस्टीट््यूट जो पुणे में है उनके सभी पूर्व अध्यक्षों का प्रोफाइल बेहद गंभीर और शानदार रहा है। आरके लक्ष्मण (1970-1980) श्याम बेनेगल 1981-83) मृणाल सेन (1984-86) अडूर गोपालकृष्णन 1987-89) महेश भट्ट (1995-97) गिरीश कर्नाड (1999-2001) और यूआर अनंतमूर्ति (2008 -2011  )  जैसे दिग्गजों  के आगे गजेंद्र चौहान का कद छोटा मालूम होता है। एक समय विनोद खन्ना भी अध्यक्ष रहे। बेशक टीवी धारावाहिक रामायण में वे पांडवों के सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर की भूमिका में थे लेकिन मुंबई फिल्म उद्योग को यह नाकाफी लग रहा है। वे रहे होंगे युधिष्ठिर की भूमिका में लोकप्रिय लेकिन इंस्टीट्यूट को चलाने के लिए यह काफी नहीं है। ऐसा कहते हुए इंडस्ट

दुष्कर्मी को ही पति बना देने वाले वैवाहिक दुष्कर्म को कैसे मानेंगे अपराध

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जब हम दुष्कर्मी को ही पति बना देने का मानस रखते हैं तो हम शादी के बाद वैवाहिक दुष्कर्म को कैसे अपराध ठहरा सकते हैं।   रसिक मोहन को साची पसंद थी। वो उसका खूब पीछा करता। छेडऩे की हद तक। फोन, मैसेजेस रसिक मोहन ने कोई जरिया नहीं छोड़ा था साची को परेशान करने का। साची कई बार उसे लताड़ चुकी थी, झिड़क चुकी थी लेकिन रसिक मोहन हरकतों से बाज नहीं आया। चूंकि साची की जरा भी रुचि रसिक मोहन में नहीं थी, उसने सारी बात अपनी मां को बताई। साची की मां कुछ सोचती इससे पहले एक प्रतिष्ठित जरिए से साची के लिए रिश्ता आया। यह रसिक मोहन की तरफ से था। मां-बेटी दोनों हैरान-परेशान थे लेकिन पिता की राय थी कि परिवार अपनी बिरादरी का है, आर्थिक हैसियत भी अच्छी है, हमें इसे मंजूर कर लेना चाहिए। मां चाहकर भी ये नहीं कह पाई कि यह लड़का साची को काफी समय से परेशान कर रहा है और यह साची को नापसंद है। शादी हो गई और रसिक मोहन ने बड़े गर्व से साची को बताया कि उसे बहुत अच्छा लगा जब साची ने उसके प्रणय निवेदन को ठुकरा दिया था। साची ने समझ लिया था कि यह रसिक मोहन का लड़कियों की शुचिता परखने का उपक्रम था। हालंांंकि अब साची उस बा

छोड़ गईं छुट्टियां

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 छुट्टियां साथ छोड़ गई हैं बच्चे फिर स्कूल जा रहे हैं। वो बेफिक्री, वो मस्ती घर में छूट गई है। उनकी चीजों का जो पसारा घर के कमरों में फैला रहता था वह अब अलमारी में दुबका दिया जाएगा। वे फिर एक कसी हुई जिंदगी के पीछे कर दिए जाएंगे। जुलाई की पहली तारीख को घर लौटे बच्चों से जब भी पूछा कि क्या मैम ने आपसे आपकी छुट्टियों के बारे में बात की, बच्चों का जवाब ना होता। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि बच्चे जो अपने नाना-नानी के यहां या किसी दूसरे शहर या किसी पहाड़ पर गए हैं, उनसे उनके अनुभव साझा किए जाएं। उनसे पूछा जाए कि उन्होंने क्या महसूस किया। पूरी कक्षा के लिए ये यात्रा संस्मरण किसी बड़ी किताब को सुनाने वाले होंगे। बच्चे बोलने-सुनने की कला में प्रवीण होंगे। किसी बच्चे ने अगर किसी नए खेल या कला को सीखा है वह भी मैम को मालूम होगा। किसी कार्यक्रम या आयोजन में मैम उनकी प्रतिभा को शामिल कर सकती हैं। पहले दिन स्कूल से घर लौटे बच्चों से अगर किसी भी कक्षा में ऐसी सृजनशील बातचीत हुई है तो मान लीजिएगा कि वह स्कूल केवल प्रतिस्पर्धा के लिए घोड़े तैयार नहीं कर रहा है बल्कि उसका मकसद बच्चों के संपूर्ण विकास से ह

घर टूट रहे हैं

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वह पिता है। उम्र कोई तीस-बत्तीस साल। दो साल की बेटी के उस पिता की आंख में आंसू थे। जाने कैसा दुखद संयोग था कि वह फादर्स डे के दिन ही रो रहा था जबकि उसे पता ही नहीं था कि आज फादर्स डे है क्योंकि वह पिछले पांच दिन से परेशान था। उसकी पत्नी बेटी को लेकर मायके चली गई थी और अब लौटना नहीं चाहती थी। सासू मां से झगड़ा हुआ और वह चल दी। कह दिया कि अब मुझे लेने आने की जरूरत नहीं मैं आप लोगों के साथ नहीं रह सकती। बहू के इस रवैये से खिन्न परिवार दो साल की पोती को नहीं भूल पा रहा हंै और उसे याद करते ही सबकी आवाज रूंधने लगती हैं।     अकसर हम कहानी के उस छोर पर होते हैं जहां बहू होती है। वह ससुराल में रहते हुए आपबीती सुना रही होती है जिसमें उसके सपनों के टूटने और कष्टों का ब्योरा होता है। इस बार ससुराल पक्ष था। उसकी शिकायत थी कि बहू को साफ-सफाई की समझ नहीं है। उसे बच्ची को पालना नहीं आता है। वह कभी हंसती भी नहीं है। जब-तब अगले मोहल्ले में अपने मायके जाना चाहती है। सुबह दस बजे से रात आठ बजे तक नौकरी करती है। घर का काम भी करती है तो टालते हुए। बेटा कहता है कई बार मैंने उससे कहा कि जॉब बदल ले। छह बजे त

अच्छे लगे पीकू के बाबा

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पीकू कब्ज की चर्चा पर बनी ऐसी फिल्म है कि अच्छे-अच्छों की सोच में जमा बरसों बरस का पाखाना साफ कर सकती है। मुख्य किरदार पीकू भले ही पिता की मां बनकर तीमारदारी करने वाली बेटी हो, लेकिन जब पिता बेटी के लिव इन या वर्जिनिटी पर सहजता से चर्चा करता है तो फिल्म बहुत ही व्यापक कैनवस ले लेती है। पीकू के पिता अपनी मृत पत्नी को खूब शिद्दत से याद करते हैं, लेकिन इस भाव के साथ कि उसने अपनी सारी जिंदगी मेरे लिए खाना पकाने और मेरी दूसरी जरूरतें पूरी करने में समर्पित कर दी। वह काबिल महिलाओं के यूं अपनी जिंदगी होम कर देने को लो आईक्यू वाली कहते हैं। उन्हें आश्चर्य है कि रानी लक्ष्मी बाई, सरोजिनी नायडू और एनी बेसेंट के देश में ये कैसा समय आया है जो पढ़ी-लिखी स्त्रियां अपने जीवन को एक स्टुपिड रुटीन में तब्दील कर देने पर आमादा हैं। पीकू उनकी पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर बेटी है और वे बिल्कुल नहीं चाहते कि ब्याह-शादी के नाम पर उनकी बेटी भी ऐसी ही शोषित जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो जाए। कथा यहीं नहीं रुकती, वह पीकू की चाची के उस भाव में भी अभिव्यक्त होती है कि अगर एक दिन उनकी शादी देर से होती तो वह अपना इम्

माँ पर नहीं लिखी जा सकती कविता

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मां के प्रेम और समर्पण को यहां लिखा कोई शब्द हूबहू बयां नहीं कर सकता। मां वह है जो अपनी जान देकर भी अपने दिल को बच्चे में धड़कते देखना चाहती है। इसे हिंदी फिल्म हार्टलेस में पूरी संवेदना के साथ दिखाया गया है। वह खुद को खत्म कर अपना दिल बीमार बेटे में लगवाती है। मां  बच्चे से अगर कुछ चाहती है तो वह है उसकी सलामती उसकी सेहत। मालवा के कवि चंद्रकांत देवताले सही लिखते हैं कि मैं नहीं लिख सकता मां पर कविता क्योंकि मां ने केवल मटर, मूंगफली के नहीं अपनी आत्मा, आग और पानी के छिलके उतारे हैं मेरे लिए। वाकई मां शब्द-शिल्पियों के लिए चुनौती है। संकट शब्दों का है, साहित्यकारों का है। मां तो निर्बाध नदी की तरह अपना सब कुछ अपने बच्चों पर वारती है, कुर्बान करती है, न्यौछावर करती है।                बदलते वक्त में मां की भूमिका भी बदली है। अब तक भारतीय समाज में एक लड़की की तरबियत ऐसी ही की जाती थी कि वह शादी के बाद ससुराल में सबकी सेवा करते हुए अपने बच्चों का लालन-पालन करे। उसकी समूची टे्रनिंग ऐसी होती थी कि वह एक बेहतरीन बीवी, बहू और मां साबित हो। काम पर जाने वाले पुरुषों के तमाम हितों का खयाल

तुम तो पढ़ी-लिखी काबिल थीं

काबिल डॉक्टर की खुदकुशी से पहले लिखी गई चिट्ठी समाज से भी कई सारे सवाल करती है  कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका नाम क्या है और वह किस शहर की है। फर्क पड़ता है तो उसके खत से जो उसने खुदकुशी से पहले अपने फेसबुक अकाउंट पर समाज को संबोधित करते हुए लिखा है। फर्क पड़ता है इस बात से कि वह पढ़ी-लिखी काबिल एनेस्थेटिस्ट युवा थी। फर्क पड़ता है कि जिस कॅरिअर को हासिल करने के लिए उसने कड़ी मेहनत की होगी उसने उसे एक  पल में मिटा दिया। वह व्यक्ति उसका पति था। पति-पत्नी दोनों डॉक्टर। हैरानी होती है कि चिकित्सक होते हुए भी वह अपने शारीरिक रुझान को समझ नहीं पाया। अठारह अप्रेल के खतनुमा फेसबुक स्टेटस में उसने लिखा है कि उसका पति समलैंगिक था। शादी के पांच सालों में दोनों के  बीच कोई संबंध नहीं बना और जब वह पति के समलैंगिक संबंधों को भांप गई तो पति ने उसे प्रताड़ित  करना शुरू कर दिया। युवती का खत महसूस कराता है कि वह अपने पति से बहुत प्रेम करती थी उसका यह व्यहार उसके बरदाश्त से बाहर हो रहा था। वह लिखती है कि मैं सिर्फ उसका साथ चाहती थी अगर कोई समस्या भी है तो हम मिलकर सुलझा सकते थे, लेकिन मैं ऐसा कर पाने में न

मार्गरीटा चखने से पहले

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मार्गरीटा चखने से पहले कुछ लिखा था दोस्तों एक फिल्म ने रिलीज से पहले ही अखबार, टीवी चैनल्स, सोशल मीडिया को बाध्य कर दिया है कि वह इस मुद्दे पर सोचे और बात करे। मुद्दा सेरिब्रल पल्सी नामक बीमारी से जुड़ा है, जिसमें मरीज के  दिमाग का वह हिस्सा चोटग्रस्त या कमजोर होता है जो संतुलन और गति को बनाए रखता है। मसल्स सख्त हो जाती हैं। मरीज बोलने, करवट लेने में तकलीफ महसूस करता है और कभी-कभी इसका असर आंखों पर भी देखा जा सकता है। प्रति एक हजार पर 2.1 ब"ो सेरिब्रल पल्सी का शिकार होते हैं। एक और बहस साथ में चलती है कि विकलांग और अपंग को फिजिकली डिसएबल्ड ना कहा जाए इन्हें डिफरेंटली एबल्ड कहा जाए यानी इनमेेंं ऐसी असमर्थता है, तो कई ऐसे गुण भी हैं जो इन्हें समर्थ बनाते हैं। बेशक लेकिन हमारा सारा जोर एबल्ड या समर्थ बनाने की ओर ही क्यों है? इतने सक्षम बनो कि जीवन की रफ्तार से कदम मिला सको। हम आम बच्चों  को तो इस रफ्तार में धकेल ही रहे हैं इन बच्चों  को जिन्हें कुदरत ने कुछ अलग नेमत देकर भेजा है वे भी इसी दौड़ में शामिल कर लिए हैं। कुदरत ने ऐसे बच्चों  को बड़ा ही सुंदर दिल बख्शा होता है। ये हरेक स