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निजता सर्वोच्च है

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वाकई तीन दिन में दो फैसले इंसानी गरिमा को कायम रखनेवाले ही मालूम होते हैं। निजता सर्वोच्च ही होनी चाहिए और कोई भी  एकतरफा मनमानी का शिकार नहीं  होना चाहिए। सब कुछ ठीक रहा तो हम क्या खाएंगे किससे ब्याह करेंगे ये सारे निर्णय हमारे होंगे। एक प्रकार से यह मदद करेगा एक ऐसे समाज को बनाने में जहाँ एक दूसरे का सम्मान हो। यह न्याय, बराबरी और आज़ादी  देनेवाला समाज होगा। इसे किसी भी दल विशेष से जोड़कर देखने के बजाय  मानवीय गरिमा से जोड़कर देखा जाना ही सही होगा। भारत वह देश होगा दुनिया में जहाँ निजता नागरिक का सर्वोच्च हक़ होगा। यह हक़ उसे भारतीय संविधान ने पहले ही दिया भी  है ।  शायद कुछ गलत फहमियां  हो गईं थीं जो अब दुरुस्त  हो जाएंगी। विशेषज्ञ यह भी  मान रहें हैं की इससे धारा 377 को आपराधिक ना मानने की राह भी आसान हो सकती है।  कौन किसके  साथ रहना चाहता है या रह रहा है, उसके लिए वह अपराधी नहीं क़रार दिया जा सकेगा।

दहेज़ से तीन तलाक़ तक

फ़ैसले के चंद घंटे बाद ही दे दिया तलाक़   ---------------------------------------- मेरठ डेटलाइन  से ये ख़बर आज हर अख़बार में प्रकाशित हुई है और उससे पहले तीन तलाक़ के असंवैधानिक हो जाने की सुर्ख़ियों ने हम सबको हर्षाया। बेशक, बेहतरीन, ऐतिहासिक और स्वागत योग्य।  यूं तो दहेज़ लेना भी ग़ैर क़ानूनी है लेकिन कौन परवाह करता है। सब चल रहा है। जब इस ग़ैर क़ानूनी लेन-देन के ख़ुशी-ख़ुशी हो जाने के बाद  कोई समस्या आती है तब सबकी चेतना लौटती है कि देश में दहेज़ के ख़िलाफ़ एक क़ानून भी तो है। यह और बात है कि अपराध जस का तस जारी है लेकिन कानून को ही भोथरा करने की तैयारी पूरी कर ली गयी है ।           दरअसल  काम कई  मोर्चों पर करना है। पहले पहल तो उस मानसिकता का बदलना बहुत ज़रूरी है जहाँ यह कुरीति मान्य है कि लड़की से शादी के बदले हम उससे धन लेंगे और जब मन में आया उसे तज देंगे । परित्यक्ता, छोड़ी हुई जैसे शब्द हमारे ही  समाज के हैं जो कबीलाई सोच को दर्शाते हैं। समस्या को भले ही एक मज़हब, एक समाज या  एक जाति के दायरे में बांध दीजिये लेकिन इसमें  कमज़ोर एक राष्ट्र  ही होता  है। इस मोड़ पर बदलना और संभालना ज़रूरी है क्योंकि

गोरखपुर के बाद रायपुर में O2 का 0 ज़ीरो हो जाना

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 जब सरकारों के सरोकार अपने नागरिक की ज़िंदगी को बेहतर बनाने के बजाय उसकी देशभक्ति को नापने और प्रेम पर पहरे लगाने में लगे हों तो तब व्यवस्था की साँसें ऐसे ही टूटती हैं। अभी गोरखपुए की साँसें लौटीं ही नहीं थीं कि रायपुर में भी दम तोड़ गईं। वहां सत्तर यहाँ चार मासूम। कर लीजिये जिन-जिन को बर्खास्त करना है लेकिन जब तक अंतिम ज़िम्मेदारी लेनेवाला इसे महसूस नहीं करेगा तब तक व्यवस्था के प्राण यूं ही निकलते रहेंगे। एक बीमार और अधमरा  हुआ तंत्र दिन ब दिन मृत्यु शैया की और ही बढ़ेगा ।              इसी छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सरकारी नसबंदी शिविर में 15  महिलाओं की जान चली गयी थी। यहाँ नवंबर 2014 में पांच घंटे में 83 महिलाओं की लेप्रोस्कोपिक सर्जरी कर दी गई थी। कभी माएं  तो कभी बच्चे ये निज़ाम  बस जान लेने पर तुला है। इस बार तो प्रदेश की राजधानी रायपुर के बड़े सरकारी अस्पताल में प्राणवायु ऑक्सीजन की कमी से सांस रुकी हैं। ऑक्सीजन की कमी से जब बच्चे हिलने लगे तब भी नशे में धुत व्यवस्था को क्या होश आना था।  ऑक्सीजन मीटर काफी नीचे था।  एक बात और जो हैरानी  की सामने आई  है कि मेडिकल ऑक्सीजन पर GST को

औरत को समझने के लिए हजार साल की जिंदगी चाहिए-देवताले

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अब जब महाकवि चंद्रकांत देवताले की देह दिल्ली के एक शवदाह गृह में विलीन हो चुकी है तो फिर क्या शेष है जो हमें उनसे कनेक्ट करता है।  हम  उनके परिवार का हिस्सा नहीं और ना  ही हमारा उनसे रोज़ मिलना-जुलना था। जो जोड़ता है वह है उनकी लेखनी और उनका कवि-मन। वे जब भी लिखते मनवीय संवेदनाओं को स्पंदित कर जाते। ऐसी गहराई  कि कविता एक ही समय में चाँद, सूरज और फिर पूरा  आसमान हो जाती लेकिन फिर भी वे कहते कि मां पर नहीं लिख सकता कविता। क्योंकि मां ने केवल मटर, मूंगफली के नहीं अपनी आत्मा, आग और पानी के छिलके उतारे हैं मेरे लिए।    वे लिखते हैं  मैंने धरती पर कविता लिखी है चन्द्रमा को बदला है गिटार में समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे  में  खड़ा कर दिया सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा मां पर नहीं लिख सकता कविता बीती सदी जब ढलान पर थी तभी मेरा परिचय ख्यात पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा ने कवि चंद्रकांत देवताले जी से करवाया। साल 95 -96 में वह  इंदौर भास्कर का परिसर  था। बड़े कवि  लेकिन लेकिन बच्चों -सा सहज सरल मन। वह दौर ढलान  का होकर भी बहुत बेहतर था जब अख़बार बेहतर परिशिष्टों के लिए साहित्यकारों, कलाकारों

छलकाते रहे सिंधु का जल जो उनकी आँखों में था

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सभी दोस्तों को आज़ादी की वर्षगांठ बहुत-बहुत मुबारक। आज़ाद होने का एहसास जब सत्तर  सालों  बाद भी हमें यूं स्पंदित कर देता है तो कल्पना  की जा सकती है कि उस दौर का आलम क्या रहा होगा। शायद उस दौर में विभाजन ने हमारी  खुशियों में सुराख़ किया था। मैं उन परिवारों से ताल्लुक रखती  हूँ जो मुल्क के विभाजन के बाद भारत आए। शरणार्थी परिवार। हमारे पुरखों के शब्दकोष में बस एक ही शब्द था संघर्ष। क्या स्त्री क्या पुरुष सबने इसी के आस-पास अपनी ज़िंदगी बुन ली थी। ज़िन्दगी बढ़ती रही लेकिन इस कौम को किसी के आगे हाथ फैलाना मंज़ूर नहीं था। कठोर परिश्रम से  अपनी ज़िन्दगियों की सूरत बदलने की ज़िद उन्होंने  हमेशा जारी रखी। जारी रखा अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने का संकल्प। किसी से कोई अपेक्षा नहीं। सरकार को  भी हमेशा  झुक-झुक कर इसलिए  धन्यवाद देते रहे कि उन्हें माँ भारती  की गोद  में शरण मिली। इसके अलावा  कोई मांग इस समुदाय  के भीतर मैंने तो नहीं देखी।  क्या उनका अपमान ना  हुआ होगा ? क्या उनकी संस्कृति, उनके स्थानीय भाषा बोलने के अंदाज़ ने उन्हें मज़ाक का बायस न बनाया होगा ?  फिर भी वे दूध में शकर की तरह घुलते रहे।