छलकाते रहे सिंधु का जल जो उनकी आँखों में था

सभी दोस्तों को आज़ादी की वर्षगांठ बहुत-बहुत मुबारक। आज़ाद होने का एहसास जब सत्तर  सालों  बाद भी हमें यूं स्पंदित कर देता है तो कल्पना  की जा सकती है कि उस दौर का आलम क्या रहा होगा। शायद उस दौर में विभाजन ने हमारी  खुशियों में सुराख़ किया था। मैं उन परिवारों से ताल्लुक रखती  हूँ जो मुल्क के विभाजन के बाद भारत आए। शरणार्थी परिवार। हमारे पुरखों के शब्दकोष में बस एक ही शब्द था संघर्ष। क्या स्त्री क्या पुरुष सबने इसी के आस-पास अपनी ज़िंदगी बुन ली थी।
ज़िन्दगी बढ़ती रही लेकिन इस कौम को किसी के आगे हाथ फैलाना मंज़ूर नहीं था। कठोर परिश्रम से  अपनी ज़िन्दगियों की सूरत बदलने की ज़िद उन्होंने  हमेशा जारी रखी। जारी रखा अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने का संकल्प। किसी से कोई अपेक्षा नहीं। सरकार को  भी हमेशा  झुक-झुक कर इसलिए  धन्यवाद देते रहे कि उन्हें माँ भारती  की गोद  में शरण मिली। इसके अलावा  कोई मांग इस समुदाय  के भीतर मैंने तो नहीं देखी।  क्या उनका अपमान ना  हुआ होगा ? क्या उनकी संस्कृति, उनके स्थानीय भाषा बोलने के अंदाज़ ने उन्हें मज़ाक का बायस न बनाया होगा ?  फिर भी वे दूध में शकर की तरह घुलते रहे। छलकाते रहे सिंधु का जल जो उनकी आँखों में था। पुरखे सिंध को याद करते हुए इन सत्तर बरसों में  बिदा होते रहे। विरसे में छोड़ गए अपने दम  पर अपनी कौम के  कल्याणका मज़बूत इरादा ।  देशहित में  ये वाकई बड़ा योगदान होता है जब एक समाज अपनी मदद के  लिए किसी ओर नहीं ताकता। बुज़ुर्गों को मैंने हमेशा नतशिर ही पाया , इतने विनम्र और व्यवहार कुशल कि बजाय भिड़ने के हर  मामले को  शांति की ओर मोड़ देते। ऐसा आत्मनियंत्रण और संयम शायद सिंधु की ही देन  था। पांच हज़ार साल की सभ्यता के अंश को महसूस करना कोई सादा काम नहीं है लेकिन वह  पुरखों में नज़र आती थी।
विभाजन की कथा में दर्द  के सिवाय  होता भी  क्या है लेकिन सत्तर साल में कोई समाज कितनी  समरसता के साथ कितना आगे बढ़ा यह वक्त उस लेखे-जोखे का भी तो  है। 

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