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तुम नहीं समझोगे

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तुम नहीं समझोगे  कोई कैसे किसी के भीतर  हर लम्हा सितार सा बजता है  कोई झरने सा बहता है कल-कल  कोई पंछी -सा चहचाहता है निरंतर  कोई फूल सा खिल जाता है अकस्मात्  कोई फ़रिश्ता सिफ़त मुस्कुरा देता है अनायास  कोई मसरूफ है सूफ़ियाना रक्स में  बेतरह  कोई रूह उतरने को है गहरे  तुम नहीं समझोगे  क्योंकि जब तुम्हें अता हुआ यह मौका  तुम  लग गए ज़िन्दगी के हिसाब-किताब में  अब सारी टीस किताबों में दर्ज करने से कुछ नहीं होगा  कुछ भी नहीं। रक्स -नृत्य 

इस रात की नीरव चुप्पी में

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इस रात की नीरव चुप्पी में जो मैं तुमको दूं आवाज़ तुम सुन लोगे ? एक वक़्त था  तुम्हें जब-जब पुकारा  तुम मिले  कई बार तो  अचानक  अनायास  अनजानी जगहों पर भी  अभी इस चुप्पी में  मैंने फिर पुकारा है तुम्हारा नाम  चले आये हैं जाने कितने ख़याल  यादों की सीढ़ी पकड़कर  हौले-हौले,  खामोश प्रेम से भरे  तुम वाकई कमाल हो  वक़्त के साथ कभी नहीं बदले तुम।

मर जाना, इश्क जरूर करना

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कल वसंत पंचमी है और कल ही संत वेलेंटाइन की याद में मनाया जाने वाला प्रणय दिवस भी। लगता है पूरब और पश्चिम की दो अवधारणाएं डेट पर हैं। देखा जाए तो ऐसा  ही माहौल हमारे आसपास भी है। थोड़ा देसी थोड़ा विलाइती।   हूबहू हमारा युवा भी है। वह अपने वक्त के साथ पूरी ईमानदारी से है। उसके प्रेम को मछली पकडऩे के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली फिशिंग रॉड से दिखाना भी हमारी भूल होगी तो केक वॉक की तरह आसान कहना भी जल्दबाजी। पिछले वसंत से इस वसंत पर गौर करते हुए थोड़ा सोचिए कि किस घटना ने हमें झकझोरा है, किसने युवा साथियों के पैरों को जनपथ की ओर मोड़ा है और किसने एक आवाज बन सोती हुई सरकार को कानून बदलने पर मजबूर किया है। कौनसी  एक घटना सोए समाज में बिजली का संचार कर गई। दिल्ली में हुई उस बलात्कार के बाद सोच में इतना बदलाव तो आया  कि नफरत का पात्र लड़की नहीं वे दरिंदे हैं और दोष उस मानसिकता का है जो लड़की को कभी बराबरी का दरजा नहीं दे पाई।  हैरत तो होती है कि क्या हम ही वो समाज हैं जो लैला-मजनूं, शीरीं-फरहाद, मूमल-महेंद्र, हीर-रांझा, उमर-मारवी, ससी-पुन्नू जैसी प्रेम-कथाओं में स्त्री का नाम पहले लिखते