मर जाना, इश्क जरूर करना


कल वसंत पंचमी है और कल ही संत वेलेंटाइन की याद में मनाया जाने वाला प्रणय दिवस भी। लगता है पूरब और पश्चिम की दो अवधारणाएं डेट पर हैं। देखा जाए तो ऐसा  ही माहौल हमारे आसपास भी है। थोड़ा देसी थोड़ा विलाइती।  
हूबहू हमारा युवा भी है। वह अपने वक्त के साथ पूरी ईमानदारी से है। उसके प्रेम को मछली पकडऩे के लिए इस्तेमाल में लाई जाने वाली फिशिंग रॉड से दिखाना भी हमारी भूल होगी तो केक वॉक की तरह आसान कहना भी जल्दबाजी। पिछले वसंत से इस वसंत पर गौर करते हुए थोड़ा सोचिए कि किस घटना ने हमें झकझोरा है, किसने युवा साथियों के पैरों को जनपथ की ओर मोड़ा है और किसने एक आवाज बन सोती हुई सरकार को कानून बदलने पर मजबूर किया है। कौनसी  एक घटना सोए समाज में बिजली का संचार कर गई। दिल्ली में हुई उस बलात्कार के बाद सोच में इतना बदलाव तो आया  कि नफरत का पात्र लड़की नहीं वे दरिंदे हैं और दोष उस मानसिकता का है जो लड़की को कभी बराबरी का दरजा नहीं दे पाई। 
हैरत तो होती है कि क्या हम ही वो समाज हैं जो लैला-मजनूं, शीरीं-फरहाद, मूमल-महेंद्र, हीर-रांझा, उमर-मारवी, ससी-पुन्नू जैसी प्रेम-कथाओं में स्त्री का नाम पहले लिखते हुए आदर देते हैं। ऐसा ही एक जोड़ा वह भी जो उस भयानक रात में साथ-साथ था । इन दोनों का नाम भी इसी तरह लिए जाने की ज़रुरत है इसलिए नहीं कि वे एकदूसरे के साथ थे या प्रेमी थे या शादी करने वाले थे बल्कि इसलिए कि इतने बडे़ हादसे के बावजूद विवेक ( वह लड़का ) की बातचीत में जो गंभीरता और जिम्मेदारी का भाव झलकता है वही शायद आज के युवा की असलियत है। वह जिम्मेदार है, आधुनिक है और साथी को खो देने के बावजूद कहीं संयम नहीं खोता और सिलसिलेवार अपनी बात रखता है। वह सामने आता है एक पीडि़त लड़के की तरह लेकिन हीरो बन जाता है। वह किसी पर आरोप नहीं लगाता लेकिन जैसे-जैसे वह घटना का ब्यौरा देता है, वैसे-वैसे सिस्टम की धज्जियां उडऩे लगती हैं। पुलिस, प्रशासन, अस्पताल, राजनेता सब बेनकाब होते चले जाते हैं। बेआबरू हम भी होते हैं क्योंकि कोई राहगीर उनके नंगे बदन पर कपड़ा तक नहीं ढकता है। सोलह दिसंबर की उस सर्द रात में वे चीखतें हैं, रोते हैं लेकिन  कोई अपनी गाड़ी का शीशा भी नहीं खोलता। वे एक घंटे से ज्यादा समय तक रक्तरंजित पडे़ रहते हैं । विवेक नायक से कम नहीं, वह लड़की के दुनिया से चले जाने के बावजूद जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटता। जाने-अनजाने वह बहुत बड़ा संदेश  देता है उन माता-पिताओं को जो अपने बच्चों के फैसलों पर शक करते हैं। यह कहने से भी डरते हैं कि बेटी (या बेटा) तुम ढूंढों अपने जीवन का साथी, यदि फैसला गलत हुआ तो भी हम तुम्हारा साथ देंगे। ये क्या बात हुई कि मर्जी की शादी करते ही आप उन्हें ऐसे काट के अलग करते हैं  जैसे वे आपके शरीर का हिस्सा नहीं बल्कि कैंसर की कोशिकाएं हों। आपको सौ बार लड़के वालों के लिए सूखे मेवे की थाली सजाना मंजूर है, पंडितों से कुंडली सुधार के उपाय स्वीकार्य हैं, छोटी सी बात पर रिश्ते का नामंजूर होना मंजूर है लेकिन यह कहना  मंजूर नहीं कि बेटी तुम्हारा फैसला भी हमारा फैसला हो सकता है।

पिछले दिनों सिंध की शायरा अतिया दाऊद की एक कविता सुरभि नामक लघु पत्रिका में मिली जो उन्होंने अपनी बेटी के लिए लिखी है। जयपुर से प्रकाशित सुरभि पाकिस्तान के सिंध में लिखे जा रहे सिंधी साहित्य को हिंदी में पढ़ाए जाने की खुशबू से सराबोर है। इस वसंत आपके लिए वही कविता...

गर तुझे कारी-कारी कहकर मारें,
मर जाना, इश्क जरूर करना।
शराफत के शो-केस में
बुर्का लगाकर न बैठना,
इश्क जरूर करना।
प्यासी ख्वाहिशों के बियाबां में
थारे जैसी न रहना,
इश्क जरूर करना।
गर किसी की याद हौले से,
तेरे मन में उठ रही हो, मुस्करा पडऩा,
इश्क जरूर करना।
वो लोग क्या करेंगे?
सिर्फ पत्थर फैं क कर,
तुझे मारेंगे
जीवन पल को तू भोगना,
इश्क जरूर करना।
तेरे इश्क को गुनाह भी कहा जाएगा
तो क्या....? सह लेना,
इश्क जरूर करना।
कारी-कारी-बदचलन

टिप्पणियाँ

  1. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति.

    मेरे ब्लोग्स संकलक (ब्लॉग कलश) पर आपका स्वागत है,आपका परामर्श चाहिए.
    "ब्लॉग कलश"

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुन्दर और प्रभावी संदेश,

    जिसमें मन मुक्त हो जाये,
    मन कुछ ऐसा कर जाये।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत सुन्दर पोस्ट!!!!


    सादर
    अनु

    जवाब देंहटाएं

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