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हार

इस चुनाव में कोई जीते  पद की गरिमा हारी है  ज़ुबां से सादगी हारी है शक से यकीन हारा है शोर से शाइस्तगी हारी है नासहों से इबादत हारी है बहस से रिश्ते हारे हैं  दग़ाबाज़ी से यकीन हारा है नफ़रत से मोहब्बत हारी है बेहयाई से तहज़ीब  हारी है फिर भी मैंने नहीं टांगा है  अपने भरोसे को खूंटी पर   मैं अपने इस लिखे से हारना   चाहती हूँ .... वर्षा-शाहिद नासहों - उपदेशकों

क़रीब-क़रीब सिंगल या ऑलमोस्ट मुकम्मल

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क़रीब-क़रीब सिंगल पूरी तरह मुकम्मल मालूम फिल्म मालूम होती है। स्त्री-पुरुष के रिश्तों को इतने रोचक अंदाज़ में पिरोना कि देखनेवाला पूरे समय बस ठुमकती हुई हंसी हँसता रहे आसान नहीं है। इस गुदगुदाने के हुनर में इरफ़ान तो माहिर हैं ही पहली बार हिंदी फिल्म में नज़र आईं पार्वती भी कहीं उन्नीस नहीं  हैं। निर्देशक तनूजा चंद्रा हैं जिन्हें बरसों पहले से हम दुश्मन (फिल्म) के नाम से अपने ज़ेहन में बसाए हुए हैं पूरे 20 साल बाद फॉर्म में नज़र आई  हैं । इन बीस सालों में उनकी संघर्ष, सुर, ज़िन्दगी रॉक्स जैसी फ़िल्में आई लेकिन यह मनोरंजन की नई परि भाषा गढ़ती हैं। प्यारे से रिश्ते के अंकुर फूटने से पहले का मनोरंजन। इरफ़ान के अभिनय जितनी ही सरल सहज है क़रीब क़रीब सिंगल लेकिन जिस किरदार पर मेहनत हुई है वह जया का है। स्त्री होने के नाते तनूजा ने इस किरदार को बहुत ही बेहतरीन रंग दिया है। एक विधवा जो पति के नाम को पासवर्ड बनाकर अब भी उसी की यादों में जी रही है। योगी (इरफ़ान) यहीं तंज़ कसता है कि तुम लड़कियों का अजीब मामला है पति साथ रहे तो सरनेम वर्ना पासवर्ड। शौक से कवि और पेशे से फक्कड़ योगी और पेशे से बीमा अधिकारी और

पद्मावती, जोधा-अकबर आखिर तकलीफ क्या है?

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रानी पद्मावती और तोता हिरामन : तस्वीर गूगल से ही मिली  स्त्री अस्मिता से जुड़ी विरासत हम सबकी साझी है किसी एक समुदाय की नहीं। पद्मावती  केवल एक फिल्म है कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं। विरोध का ऐसा शोर बरपा है कि जैसे संजय लीला भंसाली कोई फिल्म  नहीं ला रहे  बल्कि इतिहास बदलने जा रहे हों।  फिल्म जोधा-अक़बर के साथ भी यही हुआ। फिल्म को राजस्थान में रिलीज़ ही नहीं होने नहीं दिया गया। आज घर- घर में टीवी पर ,इंटरनेट पर देखी जाती है। पहले देखो और फिर जो गलत नज़र आए उस पर गोवारिकर या भंसाली को दृश्यवार फटकार लगाओ।  ये विरोध कम  फिल्म को प्रचार देना ज़्यादा मालूम होता है। राजस्थान में पद्मावती को लेकर राजपूत और राजसी समुदाय तल्ख़ नज़र आ रहा है। तोड़-फोड़ की आशंका को देखते हुए यहाँ के वितरक भी फिल्म को  रिलीज़ नहीं करना चाह  रहे। शूटिंग के दौरान ही भंसाली करनी सेना के थप्पड़ खा चुके हैं। अहम् सवाल यही है कि हमें इन विषयों पर ही एतराज़ है या वाकई हमारा इतिहास से कोई लेना-देना है।  फिल्म को अनावशयक तूल देने की इस कवायद में आइये जानते हैं  सूफी संत कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने क्या कुछ बयां किया है। उनसे  जो

फ़िक्र फिर तुम्हारी है

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जीवन के इस दौर में फिर मन करता है नीली चिड़िया गूगल पर मिली  तुम्हें पढूं तुम्हें गुनूं तुम हो कहाँ ! रहो तुम जहाँ रहना है तुम्हें मुझे पता है ज़रूरी लोग अपने पीछे कुछ भी गैर ज़रूरी नहीं छोड़ते मेरी गुज़र जाएगी फ़िक्र फिर तुम्हारी है मैं ऐसा क्या दे पाईं हूँ तुम्हें ??

नूतन का नू बना न्यू और तन बना टन हो गया न्यूटन

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नूतन कुमार को अपना ये नाम बिलकुल पसंद नहीं था। दोस्त उसे  चिढ़ाते थे और फिर दसवीं कक्षा में उसने  यह क्रांति कर ही दी।  अपने नाम में से नूतन का नू बनाया न्यू और तन को हटा कर  बना दिया टन, बन गया  न्यूटन , न्यूटन कुमार।   न्यूटन को ऑस्कर के लिए बेस्ट  विदेशी फिल्म की श्रेणी में भारत से  भेजा जा रहा है। फिल्म बर्लिन से तो सम्मान ले ही आई है क्या पता ऑस्कर भी जीत लाए। वैसे इसकी उम्मीद मुझे कितनी लगती है यह बाद में लिखूंगी लेकिन पहले फिल्म पर लगे इलज़ाम की बात कि  यह एक ईरानी फिल्म सीक्रेट बैलट की कॉपी है जिसके बारे में निर्देशक ने बड़ी मासूम सी कैफ़ीयत दी है कि सब कुछ पहले ही लिखा जा चुका है।  निर्देशन से ठीक  पहले यानी जब मैं सब  लिख चुका था तब मुझे  पता लगा कि ऐसी एक फ़िल्म है।      बहरहाल  सीक्रेट बैलट मैंने देखी  नहीं है, हो सकता है वह न्यूटन से  भी बेहतरीन हो लेकिन जो भारतीय समाज का लहजा और  मुहावरा न्यूटन ने पकड़ा है वह ईरानी फिल्म का नहीं हो  सकता। खासकर पहला भाग तो कमाल है जब निम्न मधयम वर्ग परिवार का न्यूटन लड़की देखने जाता है। जिस तरह से अंकिता जिसे देखने के लिए न्यूटन  परिवार आता ह

रेंकने वाले प्राणी की चहचहाहट

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गधे की तस्वीर के साथ आए एक ट्वीट के बाद गधों की दुनिया में हलचल मच गई है :-)  इन दिनों गधों की हज़ार सालों  की  सहनशीलता दाव पर है। सब उन्हीं  पर जुमले  बोल रहे हैं।  गधा पचीसी , धोबी का गधा न घर का ना घाट का , गधे की पहलवानी और दुलत्ती तो याद आई ही मुल्ला नसरुद्दीन ,चचा ग़ालिब और चाचा नेहरू भी जीवंत हो  गए  हैं। भला हो रेंकने वाले उस प्राणी से जुड़ी  चहचहाहट का बोले तो  उस ट्वीट का जिसने गधे पर जुमलों  और  किस्सों -कहानियों का पिटारा खोल कर रख दिया है।  मामला  बहुत जल्दी गधे के   सींग-सा होने वाला भी नहीं लग रहा है।                 मुल्ला नसरुद्दीन अपने गधे को खूब इज़्ज़त देते थे।  चचा ग़ालिब को आम के स्वाद से बेइंतहा मोहब्बत थी। वे अपने मुग़लिया बर्तनों में उन्हें भिगो-भिगो कर उनका रस लेते थे। एक दिन इसी रसपान  के दौरान उनके दोस्त  आ पहुंचे। चचा ने आम के लिए   आग्रह किया तो उन्होंने अरुचि ज़ाहिर कर दी।  इतने में  आम की कुछ सौग़ात गधों को  भी परोसी गई, उन्होंने भी मुँह फेर लिया। चचा के मित्र ने इठलाकर कहा देखा -" गधे भी नहीं खाते। " चचा कब चूकने वाले थे तुरंत कहा-'' ग

अरे ओ बेरंग ज़रा देख रंगों का कारबार क्या है

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नोटबंदी से नोटजमा  तक का व्यंग्यात्मक खाका  ----------------------------------------- पांच सौ का पुराना नोट दराज़ में जमे अख़बार के नीचे से निकल-निकल कर मुँह चिढ़ा रहा था और दूसरा उस लाल बक्से में से जी दीपावली की पूजा के बाद चांदी के दो सिक्कों के साथ बंद हो गया। .... और हज़ार और पांच सौ के वे दो नोट भी जो  बेटे ने अपने मुद्रा संग्रहालय के लिए ज़बरदस्ती रख लिए थे। तो कितने हुए ? कुल जमा ढाई हज़ार रुपए। अरे नहीं मैं भूल कर  रही हूँ। पांच सो का एक नोट और है जो बटुए में से निकलते हुए अल्लाह को प्यारा हो गया था यानी फट गया था। । ये तीन हज़ार रुपए का काला-धन  मुझे दो दिन से ठेंगा दिखा-दिखा कर  नाच रहा है कि थोड़ा और ज़्यादा होता तो आतंकवाद, नक्सलवाद और जालीनोट वालों की तो कमर ही टूट गयी होती।     खैर मज़ाक नहीं यह गंभीर मसला है। पूरे देश ने महीनों अपना सफ़ेद समय इस  काले-धन को उजागर करने में लगाया है। अब क्या करें जो 99 फ़ीसदी धन बैंकों में आ गया है, ये सारा का सारा सफ़ेद थोड़ी है।  इसमें काला भी है ।  आप खामखां लगे हैं सरकार को कोसने में। आपको तो बधाई देनी चाहिए कि  अपने नागरिकों का काला धन सफ़ेद

निजता सर्वोच्च है

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वाकई तीन दिन में दो फैसले इंसानी गरिमा को कायम रखनेवाले ही मालूम होते हैं। निजता सर्वोच्च ही होनी चाहिए और कोई भी  एकतरफा मनमानी का शिकार नहीं  होना चाहिए। सब कुछ ठीक रहा तो हम क्या खाएंगे किससे ब्याह करेंगे ये सारे निर्णय हमारे होंगे। एक प्रकार से यह मदद करेगा एक ऐसे समाज को बनाने में जहाँ एक दूसरे का सम्मान हो। यह न्याय, बराबरी और आज़ादी  देनेवाला समाज होगा। इसे किसी भी दल विशेष से जोड़कर देखने के बजाय  मानवीय गरिमा से जोड़कर देखा जाना ही सही होगा। भारत वह देश होगा दुनिया में जहाँ निजता नागरिक का सर्वोच्च हक़ होगा। यह हक़ उसे भारतीय संविधान ने पहले ही दिया भी  है ।  शायद कुछ गलत फहमियां  हो गईं थीं जो अब दुरुस्त  हो जाएंगी। विशेषज्ञ यह भी  मान रहें हैं की इससे धारा 377 को आपराधिक ना मानने की राह भी आसान हो सकती है।  कौन किसके  साथ रहना चाहता है या रह रहा है, उसके लिए वह अपराधी नहीं क़रार दिया जा सकेगा।

दहेज़ से तीन तलाक़ तक

फ़ैसले के चंद घंटे बाद ही दे दिया तलाक़   ---------------------------------------- मेरठ डेटलाइन  से ये ख़बर आज हर अख़बार में प्रकाशित हुई है और उससे पहले तीन तलाक़ के असंवैधानिक हो जाने की सुर्ख़ियों ने हम सबको हर्षाया। बेशक, बेहतरीन, ऐतिहासिक और स्वागत योग्य।  यूं तो दहेज़ लेना भी ग़ैर क़ानूनी है लेकिन कौन परवाह करता है। सब चल रहा है। जब इस ग़ैर क़ानूनी लेन-देन के ख़ुशी-ख़ुशी हो जाने के बाद  कोई समस्या आती है तब सबकी चेतना लौटती है कि देश में दहेज़ के ख़िलाफ़ एक क़ानून भी तो है। यह और बात है कि अपराध जस का तस जारी है लेकिन कानून को ही भोथरा करने की तैयारी पूरी कर ली गयी है ।           दरअसल  काम कई  मोर्चों पर करना है। पहले पहल तो उस मानसिकता का बदलना बहुत ज़रूरी है जहाँ यह कुरीति मान्य है कि लड़की से शादी के बदले हम उससे धन लेंगे और जब मन में आया उसे तज देंगे । परित्यक्ता, छोड़ी हुई जैसे शब्द हमारे ही  समाज के हैं जो कबीलाई सोच को दर्शाते हैं। समस्या को भले ही एक मज़हब, एक समाज या  एक जाति के दायरे में बांध दीजिये लेकिन इसमें  कमज़ोर एक राष्ट्र  ही होता  है। इस मोड़ पर बदलना और संभालना ज़रूरी है क्योंकि

गोरखपुर के बाद रायपुर में O2 का 0 ज़ीरो हो जाना

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 जब सरकारों के सरोकार अपने नागरिक की ज़िंदगी को बेहतर बनाने के बजाय उसकी देशभक्ति को नापने और प्रेम पर पहरे लगाने में लगे हों तो तब व्यवस्था की साँसें ऐसे ही टूटती हैं। अभी गोरखपुए की साँसें लौटीं ही नहीं थीं कि रायपुर में भी दम तोड़ गईं। वहां सत्तर यहाँ चार मासूम। कर लीजिये जिन-जिन को बर्खास्त करना है लेकिन जब तक अंतिम ज़िम्मेदारी लेनेवाला इसे महसूस नहीं करेगा तब तक व्यवस्था के प्राण यूं ही निकलते रहेंगे। एक बीमार और अधमरा  हुआ तंत्र दिन ब दिन मृत्यु शैया की और ही बढ़ेगा ।              इसी छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में सरकारी नसबंदी शिविर में 15  महिलाओं की जान चली गयी थी। यहाँ नवंबर 2014 में पांच घंटे में 83 महिलाओं की लेप्रोस्कोपिक सर्जरी कर दी गई थी। कभी माएं  तो कभी बच्चे ये निज़ाम  बस जान लेने पर तुला है। इस बार तो प्रदेश की राजधानी रायपुर के बड़े सरकारी अस्पताल में प्राणवायु ऑक्सीजन की कमी से सांस रुकी हैं। ऑक्सीजन की कमी से जब बच्चे हिलने लगे तब भी नशे में धुत व्यवस्था को क्या होश आना था।  ऑक्सीजन मीटर काफी नीचे था।  एक बात और जो हैरानी  की सामने आई  है कि मेडिकल ऑक्सीजन पर GST को

औरत को समझने के लिए हजार साल की जिंदगी चाहिए-देवताले

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अब जब महाकवि चंद्रकांत देवताले की देह दिल्ली के एक शवदाह गृह में विलीन हो चुकी है तो फिर क्या शेष है जो हमें उनसे कनेक्ट करता है।  हम  उनके परिवार का हिस्सा नहीं और ना  ही हमारा उनसे रोज़ मिलना-जुलना था। जो जोड़ता है वह है उनकी लेखनी और उनका कवि-मन। वे जब भी लिखते मनवीय संवेदनाओं को स्पंदित कर जाते। ऐसी गहराई  कि कविता एक ही समय में चाँद, सूरज और फिर पूरा  आसमान हो जाती लेकिन फिर भी वे कहते कि मां पर नहीं लिख सकता कविता। क्योंकि मां ने केवल मटर, मूंगफली के नहीं अपनी आत्मा, आग और पानी के छिलके उतारे हैं मेरे लिए।    वे लिखते हैं  मैंने धरती पर कविता लिखी है चन्द्रमा को बदला है गिटार में समुद्र को शेर की तरह आकाश के पिंजरे  में  खड़ा कर दिया सूरज पर कभी भी कविता लिख दूंगा मां पर नहीं लिख सकता कविता बीती सदी जब ढलान पर थी तभी मेरा परिचय ख्यात पत्रकार शाहिद मिर्ज़ा ने कवि चंद्रकांत देवताले जी से करवाया। साल 95 -96 में वह  इंदौर भास्कर का परिसर  था। बड़े कवि  लेकिन लेकिन बच्चों -सा सहज सरल मन। वह दौर ढलान  का होकर भी बहुत बेहतर था जब अख़बार बेहतर परिशिष्टों के लिए साहित्यकारों, कलाकारों

छलकाते रहे सिंधु का जल जो उनकी आँखों में था

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सभी दोस्तों को आज़ादी की वर्षगांठ बहुत-बहुत मुबारक। आज़ाद होने का एहसास जब सत्तर  सालों  बाद भी हमें यूं स्पंदित कर देता है तो कल्पना  की जा सकती है कि उस दौर का आलम क्या रहा होगा। शायद उस दौर में विभाजन ने हमारी  खुशियों में सुराख़ किया था। मैं उन परिवारों से ताल्लुक रखती  हूँ जो मुल्क के विभाजन के बाद भारत आए। शरणार्थी परिवार। हमारे पुरखों के शब्दकोष में बस एक ही शब्द था संघर्ष। क्या स्त्री क्या पुरुष सबने इसी के आस-पास अपनी ज़िंदगी बुन ली थी। ज़िन्दगी बढ़ती रही लेकिन इस कौम को किसी के आगे हाथ फैलाना मंज़ूर नहीं था। कठोर परिश्रम से  अपनी ज़िन्दगियों की सूरत बदलने की ज़िद उन्होंने  हमेशा जारी रखी। जारी रखा अपने बच्चों को बेहतर ज़िंदगी देने का संकल्प। किसी से कोई अपेक्षा नहीं। सरकार को  भी हमेशा  झुक-झुक कर इसलिए  धन्यवाद देते रहे कि उन्हें माँ भारती  की गोद  में शरण मिली। इसके अलावा  कोई मांग इस समुदाय  के भीतर मैंने तो नहीं देखी।  क्या उनका अपमान ना  हुआ होगा ? क्या उनकी संस्कृति, उनके स्थानीय भाषा बोलने के अंदाज़ ने उन्हें मज़ाक का बायस न बनाया होगा ?  फिर भी वे दूध में शकर की तरह घुलते रहे।

ये नए किस्म के पत्थरबाज़

ये नए किस्म के पत्थरबाज़ हैं जो इंसानियत को पत्थर मार रहे हैं.  प रेश रावल, अभिजीत या फिर चेलापति कैसे भूल जाते हैं कि ये स्त्रियों से बात कर रहे हैं।   अपने आक्रामक ट्वीट और खासकर महिलाओं के खिलाफ भद्दी टिप्पिणयां करने के बाद ट्विटर ने गायक अभिजीत भट्टाचार्य के अकाउंट को सस्पेंड कर दिया है।अभिजीत ने अरुंधति को गोली से उड़ा देने की और जेएनयू छात्रसंघ की नेता शहला राशिद पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी।  उन्होंने लिखा था कि ऐसी अफवाह थी कि शेहला रशीद ने ग्राहक से २ घंटे के पैसे लिए और उसे संतुष्ट न कर सकी। तेलगु कलाकार  चेलापति बोले की स्त्रियां बस बिस्तर पर ही ठीक हैं  वे पिछले चार बरसों से एक बेहतरीन जोड़ा ही नजर आते थे। लव बर्ड्स  का जोड़ा। अब भी कुछ नहीं बदला है ना ही कुछ बिगड़ा है। दोनों के ही जीवन में यही कोई दो-तीन बरसों में समय कुछ बदल-सा गया है। दोनों में से एक को लगता है कि शायद वह तो था ही तंग सोच का पैराकार। ये तो बापू और नेहरू ने इरादतन हमें बड़ी सोच और बड़े सपने देखने की आदत डालनी चाही थी। हमने भी रंग तो बदन पर मल लिया लेकिन भीतर कुछ नहीं बदल सके। किसी ने पानी की बौछारें क्या छ

गुरमेहर जिस पर गुरु की कृपा हो

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गुरमेहर यानी वह जिस पर गुरु की कृपा हो। लेडी श्री राम कॉलेज की छात्रा गुरमेहर से बातचीत के लिए जब तर्क खत्म हुुुुए तो उन्हें सबक सिखाने के लिए दुष्कर्म की धमकी दी गई।  तर्क से बात नहीं बनीं तो दुष्कर्म की धमकी देने को किसी भी नजरिए से कैसे सही ठहराया जा सकता है। वे यह भी कहती हैं कि पाकिस्तान ने नहीं युद्ध ने मारा  है मेरे पिता को। जवाब में उन्हें कहा गया कि यदि उनके पिता जिन्दा होते तो  शर्मसार होते।  फिर कौर कहती हैं मेरे पिता को मुझ पर फख्र होता कि मैं अपने साथियों के साथ आवाज बुलंद कर रही हूं। क्या वाकई किसी देश के लिए नर्म रवैया रखना देशद्रोह है और क्यों जब बात तर्क से नहीं बनती तो दुष्कर्म का हवाला देकर सबक सीखाने का पैंतरा अपनाया जाता है? दूसरे विश्व युद्ध के बाद जब पूर्व जर्मनी और पश्चिम जर्मनी के बीच की दीवार टूट सकती है, अमरिका जापान नए समीकरण बना सकते हैं, फ्रांस जर्मनी भी मिलकर नई इबारत लिख सकते हैं  तो ये दो देश क्यों नहीं? कहीं सियासत ही इसकी जड़ में तो नहीं?     कल्पना कीजिए कि ऐसे ही जैसे गुरमेहर को ट्रोल किया गया कोई भारत माता की जय के नारे बोलते हुए उनका कुर्ता

विरह में जलने और यूं जलने में ज़मीन आसमान का फर्क है

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पूर्व से पश्चिम तक हवाएं कुछ गर्म हैं। सर्द मौसम में ये गर्म हवाएं क्योंकर चल रही हैं? क्यों सब निषेध या ना कहकर ही अपनी मुश्किलों को आसान करना चाहते हैं? क्यों हम अभिव्यक्ति  को थप्पड़ मार रोकना चाहते हैं? मान लिया कि आपको घणा एतराज है कि कोई फिल्मकार रानी पद्मावती को क्रूर अलाउद्दीन खिलजी के सपने में दिखाकर  गलती कर रहा है तो आप थप्पड़ जडऩे के अधिकारी हो जाते हैं? फिर जब थप्पड़ खाने के बाद फिल्मकार यह कहता है कि मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूंगा जिससे आपको तकलीफ पहुंचे तो क्या वाकई बहुत खुश हो जाने वाली बात होगी? जिस मरुधरा के  रंग पूरी दुनिया को आकर्षित करते हैं वहां  क्यों इकरंगी और ऊब से भरी दुनिया की पैरवी हो रही है? अगर किसी ने ऐसी ही रोक सूफी संत कवि मलिक मोहम्मद जायसी पर लगाई होती तो क्या हम पद्मावत का सुदंर काव्य पढ़ पाते? इसी महाकाव्य में रानी पद्मावती के सौंदर्य और राजा रत्नसेन के प्रेम की दिव्यता का भी उल्लेख है। जायसी ने पद्मावत में इतिहास और कल्पना, लौकिक और अलौकिक का ऐसा सुंदर सम्मिश्रण किया है कि कोई दूसरी कथा इस  ऊंचाई तक नहीं पहुंच सकी है। जायसी के काव्य में रानी पद्मावती