नूतन का नू बना न्यू और तन बना टन हो गया न्यूटन
नूतन कुमार को अपना ये नाम बिलकुल पसंद नहीं था। दोस्त उसे चिढ़ाते थे और फिर दसवीं कक्षा में उसने यह क्रांति कर ही दी। अपने नाम में से नूतन का नू बनाया न्यू और तन को हटा कर बना दिया टन, बन गया न्यूटन , न्यूटन कुमार।
न्यूटन को ऑस्कर के लिए बेस्ट विदेशी फिल्म की श्रेणी में भारत से भेजा जा रहा है। फिल्म बर्लिन से तो सम्मान ले ही आई है क्या पता ऑस्कर भी जीत लाए। वैसे इसकी उम्मीद मुझे कितनी लगती है यह बाद में लिखूंगी लेकिन पहले फिल्म पर लगे इलज़ाम की बात कि यह एक ईरानी फिल्म सीक्रेट बैलट की कॉपी है जिसके बारे में निर्देशक ने बड़ी मासूम सी कैफ़ीयत दी है कि सब कुछ पहले ही लिखा जा चुका है। निर्देशन से ठीक पहले यानी जब मैं सब लिख चुका था तब मुझे पता लगा कि ऐसी एक फ़िल्म है।
बहरहाल सीक्रेट बैलट मैंने देखी नहीं है, हो सकता है वह न्यूटन से भी बेहतरीन हो लेकिन जो भारतीय समाज का लहजा और मुहावरा न्यूटन ने पकड़ा है वह ईरानी फिल्म का नहीं हो सकता। खासकर पहला भाग तो कमाल है जब निम्न मधयम वर्ग परिवार का न्यूटन लड़की देखने जाता है। जिस तरह से अंकिता जिसे देखने के लिए न्यूटन परिवार आता है , उसका कशीदा किया कुशन हर सदस्य के हाथों से गुज़रता है और चाय लाने के बाद जब वह बताती है कि वह केवल नवीं कक्षा तक पढ़ी है, न्यूटन अवाक रह जाता है। अगला सवाल हॉबीज को लेकर होता है जब वह कहती है 'पिक्चरें' देखना और अपनी फेवरेट मूवी का नाम साजन चले ससुराल बताती है तो न्यूटन तो और भी हक्का-बक्का । जब न्यूटन अंकिता की उम्र पूछता है तो वह 16 बताती है और फिर तो न्यूटन वहां से उठ खड़ा होता है। वह साफ़ कहता है लड़की नाबालिग है और यह गलत है। यह शादी नहीं कर सकता। माता-पिता लाख समझाते हैं कि एक तेरी डिग्री कम है क्या चाटने को जो उसकी भी चाटेगा। पढ़ी-लिखी लड़की तेरी माँ के पैर थोड़ी दबाएगी। दस लाख रूपए दे रहे हैं और मोटर साइकिल।
खैर अब न्यूटन का किरदार स्थापित हो चुका है कि वह कायदे के खिलाफ कुछ नहीं करेगा। वह एक पोलिंग अफसर है और जल्दी ही उसे छत्तीसगढ़ के नक्सली क्षेत्र में फ्री और फेयर चुनाव कराने जाना है। प्रशिक्षण के दौरान उसका प्रशिक्षक (संजय मिश्रा छा जाते हैं ) उससे पूछता है कि भैया बड़े बोझ वाला नाम रख लिए हो और सारी उम्र अब इसे ढोना पड़ेगा। तुम्हारे इस नाम में घमंड झलकता है, ईमानदारी का घमंड। इसमें घमंड किस बात का, पूरा हिंदुस्तान इसे सहज भाव से करने लगे तो देश में कोई समस्या ही न हो। ऐसे कई दृश्य हैं न्यूटन में जब दर्शक एक ही समय में हँसता भी है तो कभी तीखे व्यंग्य में चुभती सुइयाँ भी महसूस करता है। पीपली लाइव यहाँ खूब याद आती है।
बंदूकों के साए में रघुवीर यादव जिनकी नौकरी का बमुश्किल एक साल बाकी है , न्यूटन के साथ हेलीकॉप्टर से नक्सली प्रभावी एरिया में उतार दिए जाते हैं। पंकज त्रिवेदी एक पुलिस ऑफिसर के रोल में हैं जो न्यूटन को कहते हैं कि आप आराम करो, वोट हम करा देंगे लेकिन वह भला कहाँ माननेवाला था। बंदा पूरे कायदे से चुनाव कराने के वादे के साथ सख्त सुरक्षा के बीच सदल चल देता है मतदान केंद्र की ओर। वहां एक टीचर उन्हें स्थानीय मददगार के तौर पर मिलती है जिसे भी पुलिस अफसर साथ नहीं लेना चाहते क्योंकि उनका मकसद कैसे भी कर के इस ज़िम्मेदारी को निपटा-भर देना है। उन्हें डर है की यह स्थानीय आदिवासी लड़की उनकी मुश्किल बढ़ा सकती है। रघुवीर यादव के ज़िन्दगी के तजुर्बे मज़ेदार हास्य गढ़ते हैं , मसलन वे टीचर मलकु से पूछते हैं आप आशावादी हैं या निराशावादी तब वह कहती है मैं आदिवासी हूँ। आदिवासी क्षेत्रों में मलेरिया का प्रकोप सर्वाधिक होता है जहाँ के मोटे-मोटे मच्छर महामारी बनकर उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं। टीचर रघुवीर यादव उर्फ़ लोकनाथ जी को चीटियां खाने का आग्रह करते हुए कहती है कि हमारे यहाँ के मच्छरों पर आपके इलाज काम नहीं आएंगे। बहरहाल रास्ते में जले हुए घर हैं जो पुलिस ने जलाए हैं ताकि आदिवासियों को यहाँ से खदेड़ा जा सके। वे केम्पों में शरणरार्थी बनाकर छोड़ दिए गए हैं जहाँ उन पर पुलिस अत्याचार करती है और नक्सली हमला। पुलिस जो नक्सलियों से मुकाबले के लिए आदिवासियों का इस्तेमाल कर रही है और नक्सली जो हथियार के ज़ोर पर अपनी जनताना सरकार कायम करना चाहते हैं।ये आदिवासी दोनों तरफ से मार झेल रहे हैं। देश में ही कई तरह के शरणार्थी हमने बना दिए हैं लेकिन बात केवल रोहिंग्या और बांग्लादेशियों की होती है। यहाँ पत्रकार ह्रदयेश जोशी की लिखी किताब लाल लकीर ज़्यादा असरकारक है जो आदिवासी शिक्षिका भीमे कुंजाम के ज़रिये बस्तर के आदिवासियों के शोषण की पूरी कथा शिद्दत से कहती है।
फिल्म पर लौटते हैं। भारतीय सिनेमा बदल रहा है, यह भी न्यूटन को देखकर पता चलता है। दृश्यों की चुप्पी आप महसूस करते हैं। जंगल अपने आप में मज़बूत किरदार होता है। सभी कलाकार रचनात्मक और ओरिजिनल मालूम होते हैं । श्रेय निर्देशक अमित मसूरकर को जाता है
आदिवासी टीचर की भूमिका में अंजलि पाटिल बहुत बेहतर हैं। उनका पाटिल उपनाम महज़ संयोग हो सकता है लेकिन स्मिता पाटिल की याद दिलाता है। कॉमिक अंदाज़ में न्यूटन चोट करती है लेकिन मानस पर गंभीर घाव करने से थोड़ी चूक भी जाती है। राजकुमार राव बरेली की बर्फी के बाद लगातार बेहतरीन बने हुए हैं। आखिर में फिल्म का वह संवाद कि न्यूटन ने सब एक कर दिया अमीर-गरीब,छोटा-बड़ , राजा-रंक, ज़मीन -आसमान, इससे पहले दुनिया खेमों में बंटी हुई थी। अम्बानी गिरे या चायवाला सब एक साथ मरेंगे। न्यूटन नाम रखते ही फिल्म से भी ज़्यादा ग्रेविटी की अपेक्षा हो जाती है जिसमें काफी हद तक वह कामयाब भी है।
न्यूटन को ऑस्कर के लिए बेस्ट विदेशी फिल्म की श्रेणी में भारत से भेजा जा रहा है। फिल्म बर्लिन से तो सम्मान ले ही आई है क्या पता ऑस्कर भी जीत लाए। वैसे इसकी उम्मीद मुझे कितनी लगती है यह बाद में लिखूंगी लेकिन पहले फिल्म पर लगे इलज़ाम की बात कि यह एक ईरानी फिल्म सीक्रेट बैलट की कॉपी है जिसके बारे में निर्देशक ने बड़ी मासूम सी कैफ़ीयत दी है कि सब कुछ पहले ही लिखा जा चुका है। निर्देशन से ठीक पहले यानी जब मैं सब लिख चुका था तब मुझे पता लगा कि ऐसी एक फ़िल्म है।
बहरहाल सीक्रेट बैलट मैंने देखी नहीं है, हो सकता है वह न्यूटन से भी बेहतरीन हो लेकिन जो भारतीय समाज का लहजा और मुहावरा न्यूटन ने पकड़ा है वह ईरानी फिल्म का नहीं हो सकता। खासकर पहला भाग तो कमाल है जब निम्न मधयम वर्ग परिवार का न्यूटन लड़की देखने जाता है। जिस तरह से अंकिता जिसे देखने के लिए न्यूटन परिवार आता है , उसका कशीदा किया कुशन हर सदस्य के हाथों से गुज़रता है और चाय लाने के बाद जब वह बताती है कि वह केवल नवीं कक्षा तक पढ़ी है, न्यूटन अवाक रह जाता है। अगला सवाल हॉबीज को लेकर होता है जब वह कहती है 'पिक्चरें' देखना और अपनी फेवरेट मूवी का नाम साजन चले ससुराल बताती है तो न्यूटन तो और भी हक्का-बक्का । जब न्यूटन अंकिता की उम्र पूछता है तो वह 16 बताती है और फिर तो न्यूटन वहां से उठ खड़ा होता है। वह साफ़ कहता है लड़की नाबालिग है और यह गलत है। यह शादी नहीं कर सकता। माता-पिता लाख समझाते हैं कि एक तेरी डिग्री कम है क्या चाटने को जो उसकी भी चाटेगा। पढ़ी-लिखी लड़की तेरी माँ के पैर थोड़ी दबाएगी। दस लाख रूपए दे रहे हैं और मोटर साइकिल।
खैर अब न्यूटन का किरदार स्थापित हो चुका है कि वह कायदे के खिलाफ कुछ नहीं करेगा। वह एक पोलिंग अफसर है और जल्दी ही उसे छत्तीसगढ़ के नक्सली क्षेत्र में फ्री और फेयर चुनाव कराने जाना है। प्रशिक्षण के दौरान उसका प्रशिक्षक (संजय मिश्रा छा जाते हैं ) उससे पूछता है कि भैया बड़े बोझ वाला नाम रख लिए हो और सारी उम्र अब इसे ढोना पड़ेगा। तुम्हारे इस नाम में घमंड झलकता है, ईमानदारी का घमंड। इसमें घमंड किस बात का, पूरा हिंदुस्तान इसे सहज भाव से करने लगे तो देश में कोई समस्या ही न हो। ऐसे कई दृश्य हैं न्यूटन में जब दर्शक एक ही समय में हँसता भी है तो कभी तीखे व्यंग्य में चुभती सुइयाँ भी महसूस करता है। पीपली लाइव यहाँ खूब याद आती है।
बंदूकों के साए में रघुवीर यादव जिनकी नौकरी का बमुश्किल एक साल बाकी है , न्यूटन के साथ हेलीकॉप्टर से नक्सली प्रभावी एरिया में उतार दिए जाते हैं। पंकज त्रिवेदी एक पुलिस ऑफिसर के रोल में हैं जो न्यूटन को कहते हैं कि आप आराम करो, वोट हम करा देंगे लेकिन वह भला कहाँ माननेवाला था। बंदा पूरे कायदे से चुनाव कराने के वादे के साथ सख्त सुरक्षा के बीच सदल चल देता है मतदान केंद्र की ओर। वहां एक टीचर उन्हें स्थानीय मददगार के तौर पर मिलती है जिसे भी पुलिस अफसर साथ नहीं लेना चाहते क्योंकि उनका मकसद कैसे भी कर के इस ज़िम्मेदारी को निपटा-भर देना है। उन्हें डर है की यह स्थानीय आदिवासी लड़की उनकी मुश्किल बढ़ा सकती है। रघुवीर यादव के ज़िन्दगी के तजुर्बे मज़ेदार हास्य गढ़ते हैं , मसलन वे टीचर मलकु से पूछते हैं आप आशावादी हैं या निराशावादी तब वह कहती है मैं आदिवासी हूँ। आदिवासी क्षेत्रों में मलेरिया का प्रकोप सर्वाधिक होता है जहाँ के मोटे-मोटे मच्छर महामारी बनकर उन्हें मौत के घाट उतार देते हैं। टीचर रघुवीर यादव उर्फ़ लोकनाथ जी को चीटियां खाने का आग्रह करते हुए कहती है कि हमारे यहाँ के मच्छरों पर आपके इलाज काम नहीं आएंगे। बहरहाल रास्ते में जले हुए घर हैं जो पुलिस ने जलाए हैं ताकि आदिवासियों को यहाँ से खदेड़ा जा सके। वे केम्पों में शरणरार्थी बनाकर छोड़ दिए गए हैं जहाँ उन पर पुलिस अत्याचार करती है और नक्सली हमला। पुलिस जो नक्सलियों से मुकाबले के लिए आदिवासियों का इस्तेमाल कर रही है और नक्सली जो हथियार के ज़ोर पर अपनी जनताना सरकार कायम करना चाहते हैं।ये आदिवासी दोनों तरफ से मार झेल रहे हैं। देश में ही कई तरह के शरणार्थी हमने बना दिए हैं लेकिन बात केवल रोहिंग्या और बांग्लादेशियों की होती है। यहाँ पत्रकार ह्रदयेश जोशी की लिखी किताब लाल लकीर ज़्यादा असरकारक है जो आदिवासी शिक्षिका भीमे कुंजाम के ज़रिये बस्तर के आदिवासियों के शोषण की पूरी कथा शिद्दत से कहती है।
फिल्म पर लौटते हैं। भारतीय सिनेमा बदल रहा है, यह भी न्यूटन को देखकर पता चलता है। दृश्यों की चुप्पी आप महसूस करते हैं। जंगल अपने आप में मज़बूत किरदार होता है। सभी कलाकार रचनात्मक और ओरिजिनल मालूम होते हैं । श्रेय निर्देशक अमित मसूरकर को जाता है

उत्कृष्ट समीक्षा
जवाब देंहटाएंआपने फ़िल्म की ग्रैविटी बढ़ा दी। अच्छा लिखडाला।
जवाब देंहटाएंShukriya shivam ji narain ji aur anoopji...aap dekhkar bataeyega ki film m kitna gravitational force hai
जवाब देंहटाएंदेखने और औरों को दिखलाने लायक है फिल्म
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