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जून, 2023 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

जनता किस हद तक जाएगी अपने हक के लिए

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देशबंधु ,शुक्रवार  30 जून  , 2023  के लिए भारतीय मीडिया अमेरिका से लौट आया है। कार्टूनिस्ट उन्नी ने ठीक ही व्यंग्य किया है कि प्रधानमंत्री के मिस्र पहुँचते ही मीडिया के नगाड़े भी थम गए। समूची बारात तो यूं भी अमेरिका के लिए सजी थी। यह देखना भी मज़ेदार था जो रिपोर्टर प्रधानमंत्री के दौरे के कवरेज के लिए आए थे, वे वहां के मॉल में घुसकर बड़ी और स्वस्थ गोभी को गोभा कह रहे थे और वहां के दाम की तुलना भारत से कर रहे थे। न्यूज़ चैनलों पर महंगाई को लेकर मोदी वर्सेस बाइडन की पट्टी चलाकर हिंदी पट्टी को बर्गलाने का यह सिलसिला खूब चला। सड़कों पर लगे  विज्ञापन बोर्ड में थ्री डी एड देखकर ये रिपोर्टर ऐसे चमत्कृत हो रहे थे जैसे एलिस किसी वंडरलैंड में हो। वे कह रहे थे प्रधानमंत्री मोदी का दौरा कैसे इस चकाचौंध भरी दुनिया में रौशनी लाएगा क्योंकि ये चकाचौंध तो बस खोखली है और भारत कैसे चमक रहा है वे उस पर भी रिपोर्ट दिखाएंगे । पत्रकार पहले भी लवाजमें के साथ प्रधानमंत्रियों  के साथ दौरों पर जाते रहे हैं लेकिन इस तरह की मनोरंजक रिपोर्टिंग का तजुर्बा बड़ा ही नया था।   यात्रा के ठीक बीच में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति

आदिपुरुष और गीताप्रेस के अतीत में विचरते हम

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देश इन दिनों दो बातों की बातें बनाने में व्यस्त है। बेबात की इन बहसों  के हम इस कदर आदी बनाए जा चुके हैं कि जिस तरह पालतू श्वान या बिल्ली अपने नरम और गुद-गुदे खिलौनों से खेलते -उलझते हैं, ठीक यही करने में  हम भी  लिप्त हैं। मुद्दों और असली चुनौतियों की बजाय इन्हीं में उल्टा-पुल्टा होना हमें पसंद है। दशक की सबसे बड़ी रेल दुर्घटना, मणिपुर संकट और महिला पहलवानों के गंभीर आरोपों को अनदेखा कर हम आदिपुरुष और गीता प्रेस गोरखपुर को मिले पुरस्कार में उलझा दिए गए हैं। हिंदी की सबसे महंगी  फिल्म बताई जा रही आदिपुरुष के पात्र रामायण से हैं और इसके संवाद से हर हिंदुस्तानी का दिल दुःख रहा है। अब की बार  विचारों का ध्रुवीकरण नहीं है। एक स्वर में आदिपुरुष की आलोचना हो रही है जिसका एक कारण फिल्म के संवाद लेखक की पृष्ठभूमि भी है। जिस दूसरी बहस में उलझ रहे हैं, वह है गीता प्रेस गोरखपुर को देश का गांधी शांति  पुरस्कार दिया जाना। महात्मा  गांधी  के आदर्शों पर खरे उतरने वालों को यह पुरस्कार भारत सरकार 1995 से दे रही है लेकिन जूरी के एक सदस्य ने कह दिया है कि उन्हें अंधेरे में रखा गया है । जिन संस्थाओं को अब

जैक डोर्सी ने तो केवल आरसी दिखाई है

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  ट्विटर के संस्थापक और पूर्व सीईओ जैक डोर्सी के बयान  में  ऐसा कुछ भी नहीं है कि रोया-पीटा जाए, लेकिन सरकार के मंत्री हर तरफ से उन्हें घेरने में लगे हैं। जैक डोर्सी ने एक साक्षात्कार में कहा है कि भारत में किसान आंदोलन के दौरान सरकार ने उन्हें ट्विटर बंद करने की धमकी दी थी। डोर्सी के मुताबिक  भारत के कई पत्रकारों के अकाउंट बंद करने के लिए कहा गया जो सरकार के आलोचक थे,जबकि भारत एक लोकतांत्रिक देश है। जैक डोर्सी ने यह जवाब उस समय दिया जब भारत का कोई ज़िक्र सवाल में नहीं था। सवाल था कि दुनिया भर के ताकतवर लोग आपके पास आते हैं और कई तरह की मांग करते हैं। इन हालात से आप कैसे निकलते हैं? लगता है जैक डोर्सी के इस जवाब ने सरकार को दबाव में ला दिया है वर्ना एक साथ कई मंत्री यूं हमलावर नहीं होते । कहा जा सकता है कि जैक डोर्सी ने भी अपने कार्यकाल में शायद सर्वाधिक ताकतवर दबाव केवल तब ही महसूस किया हो। डोर्सी का यह बयान भले ही किसान आंदोलन के ढाई साल बाद आया हो, हिंदुस्तान के पत्रकारों व सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए यह सब अब आम है। जो सरकार से अलग राय रखते हैं, उन्हें दमन का सामना करना ही पड़ता है।

क्यों फाड़े जा रहे हैं लोकतंत्र और विज्ञान के पाठ

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    क्या आपको याद  है अपनी डिग्री के दौरान विज्ञान वालों का जलवा। यह उन कॉलेजों की बात हैं जहाँ विज्ञान और अन्य संकायों मसलन कॉमर्स और कला की डिग्री साथ-साथ होती थी । विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थी बड़ी ठसक के साथ रहते और अन्य संकायों के बीच सम्मान से देखे भी जाते । इस बीएससी की डिग्री का मोह ऐसा था कि कई तो अरुचि के बावजूद माथे पर जोर दे -देकर बस पढ़ते ही जाते थे क्योंकि बीए और बीकॉम ज़रा आउट ऑफ़ फैशन थे। समाज में माता -पिता का रुतबा  भी  बना रहता था कि बेटी या बेटा बीएससी कर रहा है यानी पढ़ाई पूरी गंभीरता से हो रही है। भला हो नई शिक्षा नीति का ये रुतबा भी छीन लिया अब आप चाहे कला पढ़ें या कॉमर्स सब को बीएससी की डिग्री मिलेगी। ऐसा लगता है जैसे अपने समय में विज्ञान की डिग्री न ले पाने वाला कोई लाचार, बदला निकाल रहा हो। नई नीति ने उन सब बच्चों की बद्दुआएं ले ली हैं जो देखते रहे कि  कॉमर्स और कला वाले ज़रा -सी पढ़ाई से ही बड़े अंक ले आते थे और विज्ञान वाले आंखें काली कर के भी ज़रा से। ऊपर से प्रायोगिक परीक्षाओं का झमेला और। ख़ैर मज़ाक  से अलग ज़रूरी बात ये कि डिग्री आप किसी भी नाम से दे दो लेकिन डार्विन

महिला पहलवान की चीख में छलका दर्द "नया देश मुबारक हो"

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  खूब लिखा जा रहा है, बहसें हो रही हैं कि जिस दिन नई संसद का उद्घाटन हो रहा था, उसी दिन उस जगह से थोड़ी दूर पहलवानों पर लाठियां बरसाई गईं। जंतर-मंतर पर एक महीने से जारी उनके धरने को उखाड़ फेंका गया और यह ऐसा था जिसकी स्वतंत्र भारत के इतिहास  में कोई मिसाल नहीं मिलती। शांतिपूर्ण आंदोलन नागरिक का अधिकार रहे हैं लेकिन यह सरकार इसी बात से सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ खाती है। शायद वह अन्ना हजारे के उस आंदोलन से सबक लेती है जिसके बाद यूपीए सरकार के कदम उखड़ गए थे। इसलिए हर धरना, आंदोलन इसी तरह उखाड़ा जाता है। 28 मई को संसद के भीतर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजतंत्र के प्रतीक राजदंड को पुनर्स्थापित कर रहे थे तो बाहर उनकी पुलिस डंडे का ज़ोर दिखा रही थी। उन फ़रियादियों को डंडे मारे जा रहे थे जिन्होंने भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह के खिलाफ यौन शोषण की शिकायत की थी।  सात महिला पहलवान जिनमें एक नाबालिग भी है उनकी सामूहिक शिकायत पर जनवरी महीने से कोई कार्रवाई नहीं हुई है। वह नाबालिग इस दिसंबर में 16 साल की होगी। 28 मई को जब ये पहलवान पिट रही थीं आरोपी पूरी ठसक के साथ नई संसद में मौजूद था। कभी ये