क्यों फाड़े जा रहे हैं लोकतंत्र और विज्ञान के पाठ

  

क्या आपको याद  है अपनी डिग्री के दौरान विज्ञान वालों का जलवा। यह उन कॉलेजों की बात हैं जहाँ विज्ञान और अन्य संकायों मसलन कॉमर्स और कला की डिग्री साथ-साथ होती थी । विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थी बड़ी ठसक के साथ रहते और अन्य संकायों के बीच सम्मान से देखे भी जाते । इस बीएससी की डिग्री का मोह ऐसा था कि कई तो अरुचि के बावजूद माथे पर जोर दे -देकर बस पढ़ते ही जाते थे क्योंकि बीए और बीकॉम ज़रा आउट ऑफ़ फैशन थे। समाज में माता -पिता का रुतबा भी बना रहता था कि बेटी या बेटा बीएससी कर रहा है यानी पढ़ाई पूरी गंभीरता से हो रही है। भला हो नई शिक्षा नीति का ये रुतबा भी छीन लिया अब आप चाहे कला पढ़ें या कॉमर्स सब को बीएससी की डिग्री मिलेगी। ऐसा लगता है जैसे अपने समय में विज्ञान की डिग्री न ले पाने वाला कोई लाचार, बदला निकाल रहा हो। नई नीति ने उन सब बच्चों की बद्दुआएं ले ली हैं जो देखते रहे कि कॉमर्स और कला वाले ज़रा -सी पढ़ाई से ही बड़े अंक ले आते थे और विज्ञान वाले आंखें काली कर के भी ज़रा से। ऊपर से प्रायोगिक परीक्षाओं का झमेला और। ख़ैर मज़ाक  से अलग ज़रूरी बात ये कि डिग्री आप किसी भी नाम से दे दो लेकिन डार्विन के विकासवाद और मैन्डलीफ की पीरियाडिक टेबल को पाठ्यक्रम से हटा कर  बच्चों को विज्ञान और वैज्ञानिक सोच से अलग मत करो। विज्ञान की दुनिया में यूं भी इन फैसलों का काफी मज़ाक बन रहा है। एक पन्ना और जो नई सरकार ने नौवीं दसवीं की किताब से फाड़ा है वह लोकतंत्र का है। 


बहुत अजीब है कि यहाँ पार्टियां बदलते ही बच्चों की पढ़ाई भी बदल जाती है। एक दल कहता है यह पढ़ो ,दूसरा कहता है ये सब बकवास था, हम इसे हटा रहे हैं। आखिर देश में लोग यह पूछने का साहस क्यों नहीं जुटा पाते कि बार-बार पढ़ाई (शिक्षा) की किताबों में तुम हेर-फेर क्यों करते हो ? क्या यह कोई काल्पनिक उपन्यास है जिसमें किसी किरदार के 'मूड स्विंग्स' को लिखा जा रहा हो? ऐसा करने से पहले तुम क्यों नहीं अपना माथा जोड़ कर तय कर लेते कि बच्चों को क्या पढ़ाना है और क्या नहीं? यूं भी तुम चुनकर तो थोड़े-से वोट के अंतर से आते हो लेकिन नागरिक के जीवन में पूरी ताकत से दखल दे जाते हो। जैसे वे कोई गिनीपिग हों ,तुम्हारे बिना शोध के  निर्णयों पर अपना सब कुछ खोने को मजबूर। सच है कि जनहित में इंसान ख़ुद को प्रयोग के लिए भी समर्पित करता है। कोरोना वैक्सीन के लिए दुनिया भर में कई वालंटियर्स ने खुद को सबसे पहले इसे लगाया ताकि एक बड़ी आबादी को इस महामारी से बचाया जा सके। यहां तो कोई  प्रयोजन ही नहीं। बस बदलना है, वर्ना क्या कारण है कि नौंवीं से बारहवीं कक्षा के केंद्रीय शिक्षा माध्यमिक बोर्ड  (सीबीएसई) की किताबों से मैंडलीफ की आवर्त सारिणी यानी पीरियाडिक टेबल ,डार्विन की थ्योरी ऑफ़ इवोलुशन और लोकतंत्र से जुड़े पाठ हटा दिए जाते  हैं।  इसी तरह कक्षा बारहवीं की राजनीति  शास्त्र से आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को भी हटा दिया गया। सरकार का कहना था कि ऐसा शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमिटी के कहने पर किया गया। रसायन शास्त्र विषय से जुड़ी पीरियाडिक टेबल में ज्ञात 118  तत्वों की सूची में सभी तत्व अपने एटॉमिक भार और संख्या के हिसाब से सिलसिलेवार व्यवस्थित है। जैसे सभी धातुएं एल्युमीनियम,लोहा,तांबा,जस्ता एक साथ तो अक्रिय गैसें हीलियम नीऑन ,रेडोन एक साथ। एक साथ ही सभी रेडियोधर्मी या रेडियो एक्टीव तत्व भी हैं। आशय यह था कि आगे की कक्षाओं में विस्तार से पढ़ने से पहले बच्चों को तत्वों की बुनियादी जानकारी मिल जाती थी जो अब नहीं मिलेगी। मैंडलीफ ने अपनी इस सूची में कई अज्ञात तत्वों के लिए पहले से जगह भी छोड़ी जिनकी खोज बाद के सालों में होती रही और अब भी हो रही है। ऐसे ही प्रदुषण से जुड़े ब्योरे भी हटाए गए हैं। 


 जैव विकास के सन्दर्भ में डार्विन की 'थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन ' बहुत मायने रखती है। इसके मुताबिक मनुष्य का विकास एक कोशिकीय प्राणी अमीबा से हुआ है और करोड़ों वर्ष (400 करोड़ )के विकास क्रम में मनुष्य तैयार हुआ। जैसे बंदर से मनुष्य बनने की विकास प्रक्रिया ने भी लगभग एक करोड़ साल का रास्ता तय किया। इस क्रमगत विकास में जो उसके लिए ज़रूरी था वह उसने लिया और बाकी छोड़ दिया जैसे जिराफ प्राणी की लम्बी गर्दन का विकास यूं हुआ कि ऊंचे पेड़ों की पत्तियां खाने की लिए उनकी रीढ़ की हड्डी बढ़ती गई। यह उन्हें अधिक ताकतवर और 'सर्वाइवल ऑफ़ द फिटेस्ट' के सिद्धांत के तर्क को मज़बूती देता था। ऐसे ही मनुष्य के विकास में पूंछ हटती गई लेकिन आज भी उसकी  रीढ़ की अंतिम हड्डी में उसके अवशेष हैं। वर्तमान केंद्र सरकार ने इस पाठ को भी हटा दिया है। नहीं भूलना चाहिए कि  पांच साल पहले भारत के उच्च शिक्षा मंत्री सत्यपाल सिंह ने कहा था कि किसी ने बंदर से मनुष्य बनते आज तक नहीं देखा इसलिए पाठ्यक्रम की किताबों से डार्विन की 'थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन' हटा दी जाएगी और अब अंततः इसे हटा ही दिया गया। अपने तर्क में मंत्री ने कहा था कि वे इस पर दुनिया के वैज्ञानिकों को एक मंच पर लाकर बड़ी बहस कर सकते हैं और उनके पास ऐसे दस-पन्द्रह वैज्ञानिकों की सूची है जिनका दावा है  की  'थ्योरी ऑफ़ इवोल्यूशन ' गलत है। तमाम विज्ञान पत्रिकाओं और जर्नल्स ने इस बयान की तीखी भर्त्सना की थी।  तब राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के पूर्व अध्यक्ष और इकोलोजिस्ट राघवेंद्र ने कहा था कि  यह अब विज्ञान और वैज्ञानिकों के ध्रुवीकरण की बारी है और इस खतरे को समझना सबसे ज़्यादा ज़रूरी है। बहरहाल देश दुनिया मंत्री महोदय की उस बहस का इंतज़ार आज भी कर रहे हैं। दरअसल विज्ञान की बुनियाद ही स्वीकारने और रद्द करने के सिद्धांत पर आधारित है। इसी पर चलकर विज्ञान ने अपनी राह तय की है लेकिन जैसी व्याख्या मंत्री जी ने की इस तरह तो शायद असहमत वैज्ञानिक भी झेंप जाएं। यही कि डिग्री सबको विज्ञान की देनी है लेकिन विज्ञान के पाठ के पन्ने फाड़े जा रहे हैं। 

तीसरा महत्वपूर्ण पाठ जिसे सरकार ने पढ़ना-पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझा  वह है लोकतंत्र का। कोविड के दौरान बच्चों पर पढ़ाई का भार काम कम करने के लिए कक्षा नौंवीं से इसे हटा दिया गया था और अब इसे स्थाई रूप से पुस्तक से फाड़ लिया गया है। आपदा में यह कौनसा अवसर था समझना  मुश्किल है। पता नहीं कि लोकतंत्र की पढ़ाई  का बोझ इन बच्चों पर भारी था या सरकार पर। हटाने से पहले किताब के लेखक से कोई बात नहीं हुई और ना ही किसी विशेषज्ञ से। जैसे की सरकार की तहज़ीब भी है कि किसी भी विषय के विशेषज्ञों को तरजीह या महत्व देने के बजाय वह अपने मन को तवज्जो देती है। लोकतंत्र से जुड़े इस पाठ में 1950 के बाद से आए तमाम बदलावों को दर्ज़ किया गया था। पश्चिम की दुनिया से लेकर भारत के पडोसी देश पाकिस्तान ,म्यांमार और नेपाल का ज़िक्र भी था। बेशक लोकतंत्र के इन पन्नों का हटाने का अर्थ लोकतंत्र  की विदाई तरफ नहीं होना चाहिए लेकिन हक़ीक़त के धरातल  पर तो यही दिखाई  दे रहा है। जनता की आवाज़ पर बने आंदोलनों के पैर उखाड़ने का लम्बा सिलसिला चल पड़ा है। शाहीन बाग़ ,किसान आंदोलन और अब महिला पहलवानों के शांति पूर्ण विरोध को कुचलने की कोशिश पूरे देश ने देखी है । सरकार को लगता है कि उसने पहलवानों के तंबू को उखाड़ फेंका लेकिन असलियत में उसकी अपनी साख के  शामियाने उखड़ रहे हैं। 

पाठ्य पुस्तक में लोकतंत्र का पाठ कहता था कि डेमोक्रेसी को किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। यह वक्त के साथ जनता की ज़रूरतों से जुड़ते हुए उदार मूल्यों  के साथ खुद ब खुद परिभाषित होती जाती है। शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच बड़ा ही दिलचस्प संवाद कक्षा नौंवीं की  एनसीईआरटी की पुस्तक में था। पाठ का सार यही था कि बदलाव की गुंजाईश हमेशा रहती है इसलिए परिभाषाएं भी बदलती हैं। डेमोक्रसी ग्रीक शब्द है जिसमे डेमोस का अर्थ है लोग और करतोस यानी शासन या शक्ति। कांग्रेस गठबंधबन की  यूपीए  सरकार को भी कुछ कार्टूनों पर दिक्कत थी लेकिन फिर इसे विशेषज्ञों और पाठ के लेखकों से बातचीत के बाद सुलझाया गया। बातचीत यहाँ भी हो सकती थी। इतिहास की किताबों के साथ भी यही हो रहा है। जिस राज्य को जैसा जंचता है वैसा पढ़ाना शुरू कर देता है।  बदलाव अपनी विचारधाराओं के अनुसार ऐसे होते  है जैसे ये ऐतिहासिक तथ्य नहीं बल्कि किसी घर की आतंरिक सज्जा का बदलाव हो। ये सरकारें जो देश की किस्मत लिखती हैं, वे अपनी ढपली अपना राग नहीं बल्कि अपने नगाड़े और अपना फरमान बजाती आ रही हैं। जनता को इन दलों से  केवल इतना कहना है कि आप पहले तय कर लो देश के नायक और इतिहास कौन और क्या होंगे ,हमारा समय मत बर्बाद करो। 



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