महिला पहलवान की चीख में छलका दर्द "नया देश मुबारक हो"

 

खूब लिखा जा रहा है, बहसें हो रही हैं कि जिस दिन नई संसद का उद्घाटन हो रहा था, उसी दिन उस जगह से थोड़ी दूर पहलवानों पर लाठियां बरसाई गईं। जंतर-मंतर पर एक महीने से जारी उनके धरने को उखाड़ फेंका गया और यह ऐसा था जिसकी स्वतंत्र भारत के इतिहास  में कोई मिसाल नहीं मिलती। शांतिपूर्ण आंदोलन नागरिक का अधिकार रहे हैं लेकिन यह सरकार इसी बात से सबसे ज़्यादा ख़ौफ़ खाती है। शायद वह अन्ना हजारे के उस आंदोलन से सबक लेती है जिसके बाद यूपीए सरकार के कदम उखड़ गए थे। इसलिए हर धरना, आंदोलन इसी तरह उखाड़ा जाता है। 28 मई को संसद के भीतर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजतंत्र के प्रतीक राजदंड को पुनर्स्थापित कर रहे थे तो बाहर उनकी पुलिस डंडे का ज़ोर दिखा रही थी। उन फ़रियादियों को डंडे मारे जा रहे थे जिन्होंने भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष ब्रजभूषण शरण सिंह के खिलाफ यौन शोषण की शिकायत की थी।  सात महिला पहलवान जिनमें एक नाबालिग भी है उनकी सामूहिक शिकायत पर जनवरी महीने से कोई कार्रवाई नहीं हुई है। वह नाबालिग इस दिसंबर में 16 साल की होगी। 28 मई को जब ये पहलवान पिट रही थीं आरोपी पूरी ठसक के साथ नई संसद में मौजूद था। कभी ये पहलवान भी प्रधानमंत्री के निकट थीं जब वे दुनिया के सबसे बड़ी खेल प्रतिस्पर्धा ओलिम्पिक्स से पदक जीत कर लाई थीं। उन्होंने एक शिकायत क्या की,  कि पीएम ने लम्बी चुप्पी ओढ़ ली। क्या यह सरकार इतनी कमज़ोर है कि इस एक व्यक्ति की ऐंठ को बरकारार रखने के लिए देश की शान बढ़ाने वालों को प्रताड़ित करेगी? इन पहलवान लड़कियों ने भारत का झंडा बुलंद किया है लेकिन बीते रविवार वे ज़मीन पर थीं और उनके साथ देश का झंडा भी। यह झंडा इन पहलवान लड़कियों ने तब भी उठाया था जब उन्होंने अपना सबसे बड़ा सपना साकार किया था और तब भी जब वे गहरी पीड़ा में थीं। अफ़सोस कि देश के मुखिया और उसकी पुलिस इस ध्वज की आन नहीं रख पाई। ऐसा केवल इसलिए कि आरोपी की कुछ सीटों पर पकड़ है? अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक समिति का कहा भी बेअसर, जिसने कह दिया है कि यदि पहलवानों को सुरक्षा नहीं दी गई तो भारत अपने झंडे के साथ अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धाओं में एक बेनामी देश की तरह हिस्सा लेने की दशा में होगा ।

आखिर सरकार जांच से पीछे क्यों हट रही है? क्यों वह उस विशेष जांच समिति की रिपोर्ट को भी उजागर नहीं कर रही जो खुद उसी ने बनाई थी? क्यों इन पहलवानों की एफआईआर भी सुप्रीम कोर्ट के कहने के बाद दर्ज  हुई? आखिर ये वही बेटियां हैं जिनके नाम लिखकर मार्च 2019 में प्रधानमंत्री ने ट्वीट किया था- "हमने आपको कुश्ती की दुनिया में बेहतरीन प्रदर्शन करते देखा है। मैं आपसे निवेदन करता हूँ कि आप इस 'चुनावी दंगल' में अधिक से अधिक भागीदारी का जनता से आव्हान करें और इस अभियान का समर्थन करें।" आखिर अब क्या हुआ जो इन पहलवानों की ओर से यूं पीठ फेरी जा रहा है? यह केवल सांसद ब्रजभूषण के भारी-भरकम होने या लोकसभा सीटों का मामला नहीं है बल्कि उस सोच का प्रतीक है जिसके तहत बिल्किस बानो के सज़ायाफ्ता बलात्कारियों को समय से पहले रिहा कर दिया जाता है। उन्नाव की किशोरी, जिसके साथ भाजपा का विधायक बलात्कार करता है, खुद को आग के हवाले कर देती है। उसके पिता इस हादसे के बाद जान दे देते हैं। कठुआ, हाथरस कितने ही मामले हैं जहां सुरक्षा और न्याय बलात्कार पीड़िताओं को नहीं बल्कि अपराधियों को दिया जाता है। राजदंड का प्रतीक चिन्ह स्थापित करने के बाद चंद न्यायप्रिय राजाओं के हवाले से ही अगर कुछ ले लिया जाता तो पहलवान यूं प्रताड़ित ना होतीं। उन न्यायप्रिय राजाओं के महल के बाहर एक बड़ा सा घंटा लगा होता था जिसे बजाकर फरियादी जब चाहे अपने लिए न्याय की गुहार लगा सकता था। दुर्भाग्य कि अब का निज़ाम सिर्फ प्रतीकों में उलझकर रह गया है। जनता के इन्साफ के लिए जो एजेंसियां कभी ईमानदार रही होंगी, वे अब  उस संस्था और व्यक्ति के खिलाफ इस्तेमाल होती हैं जो सरकार से अलग राय रखते हैं। फिलहाल यह व्यवस्था पहलवान लड़कियों को रौंदने में लगी है जिन्होंने कभी दुनिया के सामने हमें गौरवान्वित किया था। सोचना चाहिए कि ये लड़कियां हमारा फख़्र नहीं तो क्या ये नेता हैं जो विदेश जा-जाकर अपने चुने हुए श्रोताओं से मिलते हैं और भाषण दे आते हैं? यह भी बहुत तकलीफदेह है कि अब भारत से बाहर बसे भारतीय भी बांट दिए गए हैं।
अगर जो ये पहलवान लड़कियां अपमान, दुःख और पीड़ा में डूबकर मंगलवार की शाम अपने मैडल गंगा में तिरोहित कर देतीं तो वाकई इस सरकार का इकबाल भी तिरोहित हो जाता। भला हो उन अनुभवी लोगों का जिन्होंने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। इसमें इन लड़कियों के परिवारों की भी बड़ी भूमिका रही है। इतिहास बताता है कि जो देश अपने नायकों के साथ न्याय नहीं कर पाता, दुनिया के नक़्शे पर उसे धूमिल होने में भी वक्त नहीं लगता है। बेशक, भारत के लोग उस कमज़ोर श्रेणी में नहीं है। सरकार ने इस अमृतकाल में अपने अंतर्राष्ट्रीय खिलाड़ियों को प्रताड़ित कर जो छवि दुनिया को दिखाई है, वह बदलेगी क्योंकि जनता ऐसा नहीं चाहती। जनता अपने खिलाड़ियों को सर आंखों पर बैठाती है, अपना नायक मानती है। मेजर ध्यानचंद, मिल्खा सिंह, मेरी कोम, पीवी सिंधु, नीरज चोपड़ा,साक्षी मलिक, फोगाट बहनें- सब को ऊंचे पायदान पर रखती है। दुनिया को कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस पार्टी की सरकार है, कौन नई संसद बना रहा है? दुनिया केवल भारत को देख रही है। इसीलिए यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग ने खिलाडियों की सुरक्षा और नए चुनाव की बात भारत से कह दी है। उसने पहलवानों के साथ हुए दुर्व्यवहार की निंदा करते हुए कहा है कि उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए।
आरोपी ब्रजभूषण शरण सिंह को इस रवैये से इतनी शह मिली है कि वह इसी पांच जून को अयोध्या में जन चेतना महारैली का आयोजन करने जा रहे हैं। अयोध्या में साधु-संतों को जमा कर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया जा रहा है। संत समुदाय  का एक वर्ग यौन अपराधों से बच्चों के सरंक्षण अधिनियम (पोक्सो एक्ट) को कमज़ोर करने का भी हिमायती है। हैरानी और दुःख की बात है कि एक सांसद,  जिसके खिलाफ एक नाबालिग लड़की के यौन शोषण का भी आरोप है, उन्हीं तौर-तरीकों को अपना रहा है जिनका साथ लेकर कभी पार्टी ने रामराज्य की वापसी का सपना जनता को दिखाया था। पोक्सो एक्ट के तहत एफआईआर होते ही आरोपी को गिरफ्तार किया जाता है ताकि वह साक्ष्यों को प्रभावित न कर सके। यहाँ तो ये पीड़ित पहलवान जनवरी से न्याय की गुहार लगा रही  हैं। इनकी हिम्मत को सलाम है। कितनी तकलीफ़ और पीड़ा में होंगी जब उन्होंने भारतीय समाज के रवैये को जानते हुए भी यह कठोर फैसला लिया होगा। समाज अब भी पीड़िता को ही कटघरे में खड़ा करता है। ऐसा ही सरकार ने भी किया, अपने ही कानून का उल्लंघन किया। इस वक्त हमें आराधना गुप्ता और रुचिका गहरोत्रा की दोस्ती भी याद आनी चाहिए। 13 साल पहले हरियाणा के आईजी लॉन टेनिस एसोसिएशन के अध्यक्ष थे। 14 साल की टेनिस प्लेयर रुचिका के यौन शोषण में लिप्त राठौड़ का कच्चा-चिट्ठा खोलने में उसकी दोस्त ने दिन-रात एक कर दिया। रुचिका ने तंग आकर खुदकुशी कर ली थी। उसे न्याय मिलने में उन्नीस साल लगे थे।
संसद में बिना राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और विपक्ष के राजदंड (सेंगोल) की स्थापना के तुरंत बाद इन पहलवान लड़कियों को पुलिस बसों में भरकर थाने ले गई। वे नई संसद के सामने अपना विरोध प्रदर्शन करना चाहती थीं। बस से अपना दुःख और विषाद से भरा चेहरा बाहर निकालकर एशियन गोल्ड मेडलिस्ट और वर्ल्ड चैंपियनशिप में दो बार की कांस्य मेडलिस्ट विनेश फोगाट ने चीखते हुए कहा- "नया देश मुबारक हो।" इससे पहले ओलंपिक्स में कांस्य जीतने वाली साक्षी मालिक कह रही थी कि जब एक ओलिम्पियन की बात नहीं सुनी जाती और उसे न्याय नहीं मिलता तो भारत के गाँवों और शहरों में महिलाओं की क्या सुनवाई होती होगी? साक्षी ने बिलकुल सही कहा है। बड़े से बड़ा अपराध होने के बावजूद महिलाएं पुलिस का रुख नहीं करतीं। न्याय सपना है उनके लिए। तमाम अपराध सहते हुए वे घर की चारदीवारी में सिसकने और घुटने के लिए मजबूर हैं। उम्मीद सिर्फ एक है कि जिस तरह से जनता के पसंदीदा प्रधानमंत्री रातों-रात आकर नोटबंदी और तालाबंदी (लॉकडाउन) की घोषणा करते हैं, इस बार महिलाओं के हक़ में आएंगे और चुप्पी तोड़ेंगे। आखिर बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ के साथ खेलो इंडिया का नारा भी तो उन्हीं का है। ध्यान इस बात का भी रखना चाहिए कि आधी आबादी किसी वोट बैंक में बंटी  हुई नहीं है। अब वह एक समूचा फैसला लेगी- अन्याय के ख़िलाफ़।


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